मीराबाई के पद

मीराबाई के पद

1

मण थे परस हरि रे चरण।
सुभग सीतल कँवल कोमल, जगत ज्वाला हरण।
इण चरण प्रह्लाद परस्यां, इन्द्र पदवी धरण।
इण चरण ध्रुव अटल करस्यां, सरण असरण सरण।
इण चरण ब्रह्मांड मेटयां, नखसियां सिरी भरण।
इण चरण कलिया नाथ्यां गोपलीला करण।
इण चरण गोबर धन धारयां, गरब मघवा हरण।
दासि मीरां लाल गिरधर, अगम तारण तरण।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

प्रस्तुत काव्यांश में मीराबाई की प्रभु श्री कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावना प्रकट हुई है |

व्याख्या — मीराबाई जी कहती हैं कि हे मेरे मन! तू प्रभु श्री कृष्ण के चरणों को स्पर्श कर क्योंकि ये चरण शीतल, कमल के समान कोमल और जगत की ज्वाला को हरण करने वाले हैं | इन चरणों को प्रहलाद ने स्पर्श किया था और इंद्र के पद को धारण कर लिया | इन चरणों ने भक्त ध्रुव को अटल भक्त के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की | ये चरण निराश्रित लोगों को शरण प्रदान करते हैं | इन चरणों ने ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की है और उसे सम्पूर्ण शोभा से आपूरित किया | इन चरणों ने कालिया नाग को नियंत्रण में किया और गोपियों के साथ रास-लीला की | इन चरणों ने ही गोवर्धन पर्वत को धारण करके इंद्र के अहंकार को चूर-चूर किया था |

मीराबाई कहती हैं कि मैं गिरिधर गोपाल की दासी हूँ क्योंकि वे ही इस अगम्य भवसागर से पार लगाने वाली नाव के समान हैं |

विशेष — (1) श्री कृष्ण की महिमा का गुणगान है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

2

म्हारों प्रणाम बांके बिहारी जी।
मोर मुगट माथ्यां तिलक विराज्यां, कुण्डल अलकां कारी जी।
अधर मधुर धर वंसी बजावां, रीझ रिझावां ब्रज नारी जी।
या छब देख्यां मोह्यां मीरां, मोह गिरवर धारी जी।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या – कवयित्री मीराबाई कहती है कि हे बांके बिहारी श्री कृष्ण ! आप को मेरा प्रणाम | श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य और वेशभूषा का वर्णन करते हुए मीराबाई कहते है कि हे बाँके बिहारी! आपके मस्तक पर मोर के पंखों का मुकुट विराजमान है, तिलक सुशोभित है । आपके कानों में कुंडल सुशोभित हो रहे हैं तथा सिर पर काले घुंघराले बाल हैं। आप अपने मधुर होठों पर बांसुरी धारण करके उसकी मधुर ध्वनि से ब्रज की नारियों को मोहित कर लेते हो | हे गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले मोहन ! आपकी इस छवि को देखकर मैं भी आपकी ओर आकर्षित हो गई हूँ।

विशेष — (1) श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का सजीव चित्रांकन किया गया है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

3

बस्यां म्हारे णेणण मां नन्दलाल
मोर मुगट मकराकृत कुण्डल अरुण तिलक सोहां भाल।
मोहन मूरत सांवरा सूरत णेणा बण्या विशाल ।
अधर सुधारस मुरली राजां, उर बैजतां माल ।
मीरां प्रभु संतां सुखदायाँ, भक्त बछल गोपाल।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि नंद के पुत्र कृष्ण उनकी आंखों में बस गए हैं | कृष्ण ने अपने सिर पर मोर पंखों से बना हुआ मुकुट धारण कर रखा है | उनके कानों में मकर की आकृति के कुंडल सुशोभित हो रहे हैं तथा उनके मस्तक पर लाल रंग का तिलक शोभायमान हो रहा है | उनका रूप मन को मोहने वाला, शरीर सावला तथा आंखें विशाल हैं | उनके अमृत-रस से सिक्त होठों पर मुरली सुसज्जित है और वक्षस्थल पर वैजयंती माला है | मीराबाई कहते हैं कि गोपाल कृष्ण भक्त वत्सल है तथा संतों को सुख प्रदान करने वाले हैं |

विशेष — (1) श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का सजीव चित्रांकन किया गया है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

4

आली री म्हारे णेणा बाण पड़ी।
चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी।
कब से ठाढ़ी पंथ निहारां, अपणे भवण खड़ी।
अटक्यां प्राण सांवरों प्यारी, जीवन मूर जड़ी।
मीरा गिरधर हाथ बिकानी, लोक कह्यां बिगड़ी।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहती है कि हे सखी! मेरी आंखों को कृष्ण की ओर देखने की आदत हो गई है | कृष्ण की मधुर मूर्ति मेरे हृदय में बस गई है और मेरे हृदय में इस प्रकार गड़ गई है कि निकाले नहीं निकलती | हे सखी ! मैं न जाने कब से अपने महल में खड़ी हुई अपने प्रिय के रास्ते को ताक रही हूँ अर्थात उनके आने की प्रतीक्षा कर रही हूँ | मेरे प्राण सांवले कृष्ण में ही फंसे हुए हैं, वही मेरे जीवन के लिए संजीवनी बूटी के समान हैं |

अंत में मीराबाई कहती हैं कि मैं तो गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले प्रभु कृष्ण के हाथों बिक गई हूँ परंतु लोग मेरे बारे में कहते हैं कि मैं बिगड़ गई हूँ |

विशेष — (1) मीरा की भक्ति-भावना व समर्पण का प्रभावशाली वर्णन हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

5

म्हारा री गिरधर गोपाल दूसरा णा कूयां।
दूसरां णां कूयां साधां सकल लोक जूंयां।
माया छाडयां, बंधा छांडयां, छांडयां सगा सूयां।
साधां ढिग बैठ बैठ, लोक लाज खूयां।
भगत देख्या राजी ह्ययां, जगत देख्यां रूयां।
असवां जल सींच-सींच प्रेम बेल बूया
दध मथ घृत काढ़ लयां डार दया छूयां।
राजा विषरो प्याला भेज्यां, पीय मगण हूयां।
मीरां री लगण लग्यां होणा हो जो हूयां।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मेरे तो सर्वस्व गिरधर गोपाल ही हैं | उनके अतिरिक्त मेरा अपना कोई नहीं है | हे संतो! मैंने संपूर्ण संसार में भ्रमण करके देख लिया है कि एकमात्र प्रभु श्री कृष्ण के सिवाय मेरा अन्य कोई नहीं है | उनके लिए मैंने अपने भाई-बंधु तथा सगे सबंधियों का त्याग कर दिया है | साधु-संतों के साथ बैठ-बैठ कर मैंने लोक-लाज को भी त्याग दिया है | प्रभु कृष्ण के भक्तों को देखकर मेरा ह्रदय प्रसन्नता से भर जाता है लेकिन इस भौतिक संसार को देखकर मेरा मन खिन्न हो जाता है |

मीराबाई कहती हैं कि मैंने अपनी प्रेम रूपी लता को अश्रु-जल से सींच-सींचकर बोया है | मैंने दूध को मथकर घी निकाल लिया है और व्यर्थ छाछ को फेंक दिया है अर्थात साधु-संतों की संगति से मिले सार तत्त्व को मैंने ग्रहण कर लिया है और निस्सार तत्त्वों को छाछ के समान निरर्थक मान कर फेंक दिया है |

मीरा कहती है कि राणा ने मुझे मारने के लिए विष का प्याला भेजा था लेकिन अपने प्रियतम के प्रेम में मगन होकर मैंने उसका भी हँसते-हँसते पान कर लिया | अंत में मीराबाई कहती है कि मुझे तो प्रभु श्री कृष्ण से लगन लग गई है | अब मुझे किसी की कोई परवाह नहीं | जो होना होगा हो जाएगा |

विशेष — (1) मीरा की अनन्य भक्ति भावना का वर्णन हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

6

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हारो सांचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊं।
रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर गये उठि आऊँ।
रैणदिना वाके संग खेलूं, ज्यूं ज्यूं वाहि रिझाऊँ।
जो पहिरावै सोई पहिरुं, जो दे सोई खाऊं।
मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊ।
जहां बैठावें तित ही बेचै, बेचै तो बिक जाऊं।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मैं तो गिरीधर के घर जाऊंगी क्योंकि वही मेरा सच्चा प्रियतम है | मैं उसके रूप-सौंदर्य को देखकर उस पर आसक्त हो गई हूँ | रात होते ही मैं उसके घर चली जाती हूँ और सवेरा होने पर मैं उसके यहां से वापिस आ जाती हूँ | मैं रात-दिन उसके साथ खेलती हूँ और जैसे-तैसे करके उनको प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं | जो कुछ भी वह मुझे पहनने को देते हैं, मैं वही पहनती हूँ और जो कुछ खाने को देते हैं, वही खाती हूँ | मेरा और उनका प्रेम बहुत पुराना है | मैं उनके बिना एक पल भी नहीं रह सकती | मेरे प्रभु कृष्ण जहां मुझे बिठाएंगे मैं वहीं बैठ जाती हूँ | यदि वह मुझे बेच भी देंगे तो मैं उनके लिए सहर्ष बिक भी जाऊंगी | अंत में मीरा कहती है कि मेरे स्वामी तो भगवान कृष्ण हैं | अतः मैं बार-बार उन पर न्योछावर जाती हूँ |

विशेष — (1) मीरा की अनन्य भक्ति व समर्पण का प्रभावशाली वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

7

बरजी री म्हां स्याम बिना न रह्यां।
साधां संगत हरि मुख पास्यूं जग सूं दूर रह्यां।
तण मण म्हारां जावां जास्या, म्हारो सीस लह्यां।
मण म्हारो लाग्यां, गिरधारी जगरा बोल सह्यां।
मीरां रे प्रभु हरि अविनासी, थारी सरण गह्या।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे सखी! आज मुझे मत रोको ; मैं श्री कृष्ण के बिना नहीं रह सकती | मैं साधु संतों के सत्संग में रहकर प्रभु-मुख दर्शन का सुख प्राप्त करना चाहती हूँ | प्रभु भक्ति के इस मार्ग पर चलते हुए भले ही मेरा तन-मन नष्ट क्यों न हो जाए ; मैं प्रभु भक्ति के इस मार्ग से विचलित नहीं होउंगी | यदि कोई मेरा सिर भी लेना चाहे तो मैं उसे भी समर्पित करने को तैयार हूँ | मेरा मन श्रीकृष्ण में लग गया है अर्थात मेरा मन उनके प्रेम में अनुरक्त हो गया है ; उनके लिए मैं जग के ताने भी सहने को तैयार हूँ |

अंत में मीराबाई कहती है कि मेरे तो प्रभु श्री कृष्ण हैं जो अविनाशी हैं | मैंने उनकी शरण ग्रहण कर ली है |

विशेष — (1) मीरा की अनन्य भक्ति भावना की अभिव्यक्ति हुई है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

8

नहिं भावै थारो देशलड़ो रंगरूड़ो।
थारे देशां में राणा साध नहीं छै, लोग बसै सब कूड़ो।
गहणा गांठी राणा हम सब त्यागा, त्याग्यो कररो चूड़ो।
काजल टीको हम सब त्याग्या त्याग्यो छै बांधन जूड़ो ।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, बर पायो छै पूरो।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा अपने देवर राणा विक्रम सिंह को संबोधित करते हुए कहती है कि मुझे तुम्हारा विचित्र देश अच्छा नहीं लगता क्योंकि तुम्हारे देश में सज्जन लोग निवास नहीं करते यहां बेकार लोग निवास करते हैं | यही कारण है कि मैंने इस घर के द्वारा दिए गए आभूषणों और वस्त्र आदि का त्याग कर दिया है, मैंने अपने हाथ के चूड़े को भी त्याग दिया है | यही नहीं मैंने काजल टीका आदि लगाना और अपने बालों का जुड़ा बांधना भी छोड़ दिया है |

अंत में मीराबाई कहती हैं कि मैंने तो गिरधर नागर प्रभु श्री कृष्ण को ही अपना स्वामी मान लिया है और उनके रूप में सर्वगुण संपन्न पति अर्थात स्वामी प्राप्त किया है |

विशेष — (1) मीरा की श्री कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ भक्ति भावना का परिचय मिलता है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

9

पग बांध घुघरया णाच्यारी।
लोक कह्यां मीरां बावड़ी, सास कह्यां, कुलनासी री।
विष रो प्यालो राणां भेज्या, पीवां मीरां हांसी री।
तण मण वारयां हरि चरणां मां दरसण अमरित प्यास्यां री।
मीरां रे प्रभु गिरधर नागर, थारी सरणां आस्यां री।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मैं प्रभु श्री कृष्ण के प्रेम में डूब कर अपने पैरों में घुंघरू बांधकर नाचती रहती हूँ | लोग कहते हैं कि मैं पागल हो गई है, सास कहती हैं कि मीरा कुलनाशिनी बन गई है | राणा ने मुझे मारने के लिए विष का प्याला भेजा जिसे मैं प्रसन्नता पूर्वक पी गई | मैंने अपना तन-मन प्रभु कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया है और मैं उन्हीं के दर्शन की प्यासी हूँ | मीरा कहती है कि मेरे प्रभु तो गिरधर नागर श्री कृष्ण ही हैं | मैंने उन्हीं की शरण ग्रहण की है |

विशेष — (1) मीरा की भक्ति भावना का परिचय मिलता है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

10

माई म्हां गोबिन्द गुण गाणा।
राणा रूठ्यां नगरी त्यागां, हरि रूठ्यां कहं जाणां।
राणां भेज्या विषरो प्याला, चरणामृत पी जाणां।
काला नाग पिटारयां भेज्या, सालगराम पिछाणा
मीरां तो अब प्रेम दिवांनी, सांवलिया वर पाणा।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा अपनी सखी को संबोधित करती हुई कहती है कि हे सखी! मैं तो सदा प्रभु कृष्ण के गुणों का गान करूंगी | यदि राणा मुझसे नाराज हो जाएगा तो मुझे अपने नगर से निकलवा देगा किंतु यदि प्रभु मुझसे रूठ गए तो फिर मैं कहां जाऊंगी | अर्थात प्रभु के रूठने के पश्चात मेरा कोई ठौर-ठिकाना नहीं रहेगा | राणा ने मुझे मारने के लिए विष का प्याला भेजा था जिसे मैं चरणामृत समझ कर दी गई | यही नहीं राणा ने पिटारे में सर्प भी भेजा था ताकि वह मुझे डंस ले और मेरी जीवन-लीला समाप्त कर दे किंतु मुझे उसमें भी सालगराम ( कृष्ण ) का ही रूप दिखाई दिया | मीरा कहती है कि मैं प्रभु के प्रेम की दीवानी हूँ तथा मैंने सांवले कृष्ण को अपने पति रूप में प्राप्त कर लिया है |

विशेष — (1) मीरा के जीवन की घटनाओं का चित्रण है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

11

जोगी मतजा मतजा मतजा, पाइ पंरू मैं तेरी चेरी हौं,
प्रेम भगति को पैड़ों न्यारा, हमकूँ गैल बता जा।
अगर चंदन की चिता बणाऊं, अपने हाथ जला जा।
जल बल भई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा।
मीरां कहे प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहती है कि हे योगीराज! तुम मुझे छोड़कर मत जाओ | हे योगीराज! मैं तुम्हारे पांव पढ़ती हूँ, मैं तुम्हारी दासी हूँ | आप मुझे मत त्यागो | प्रेम-भक्ति का तो मार ही अलग है, उसे समझना सरल नहीं है | हे कृष्ण मुझे वह प्रेम-मार्ग दिखला जा | मैं तुम्हारे विरह में जीना नहीं चाहती | मैं चंदन की लकड़ियों से अपनी चिता बना रही हूँ | तुम आकर अपने हाथों से उसे जला जाओ | जब मैं जलकर राख की ढेरी बन जाऊं तो उस राख को अपने अंग से लगा लेना | मीराबाई कहती है कि हे गिरिधर नागर श्री कृष्ण! मेरी ज्योति को अपनी ज्योति में मिला ले |

विशेष — (1) मीराबाई का कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम अभिव्यक्त हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

12

हेरी म्हां दरद दिवाणी म्हारा दरद न जाण्यां कोय।
घायल की गत घायल जाण्यां, हिवड़ो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
दरद की मारया दर-दर ढोल्यां बंद नहिं कोय। मीरां री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है हे सखी! मैं श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई हूं किंतु मेरी इस विरह वेदना को कोई नहीं समझता क्योंकि घायल के मन की पीड़ा को तो कोई घायल ही समझ सकता है, कोई दूसरा नहीं | जैसे बहुमूल्य रत्न का मूल्य तो कोई रत्नों को परखने वाला जौहरी ही समझ सकता है या या वह व्यक्ति जान सकता है जो उस बहुमूल्य रत्न को खो चुका हो | मीरा कहती है की विरह वेदना के दर्द की मारी में वन वन भटकती हूँ किंतु इस दर्द का उपाय करने वाला मुझे कोई वैद्य नहीं मिला | अंत में मीराबाई कहती है कि यह विरह वेदना तो तभी मिट सकती है जब स्वयं श्री कृष्ण वैद्य बनकर मुझे मिल जाएंगे |

0 — (1) मीरा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है | p

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

13

को बिरहनी को दुख जाणे हो।
जा घट बिरहा सोई लखि है, कै कोई हरिजन मानै हो।
रोगी अंतर बैद बसत है, बैद ही ओखद जाणै हो।
बिरह दरद उरि अंतरि मांही, हरि विणि सब सुख कानै हो।
दुगधा कारण फिरै दुखारी, सुरत बसी सुत मानै हो।
चात्रग स्वाति बूंद मन माही, पीव पीव उकलांणै हो।
सब जग कूड़ो कंटक दुनिया, दरध न कोई पिछांणे हो।
मीरां के पति रमैया, दूजो नहिं कोइ छाणै हो।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि उसके विरह-वेदना को कौन समझ सकता है? अर्थात उसके ह्रदय की पीड़ा को कोई नहीं समझ सकता | उसकी पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने कभी विरह वेदना की पीड़ा को अनुभव किया हो या कोई प्रभु का भक्त ही उसकी विरह वेदना को समझ सकता है जो ईश्वर से मिलन के लिए सदैव विकल रहता हो | वस्तुत: मुझ रोगी के ह्रदय में ही मेरे वैद्य रहते हैं और वही मेरे रोग की औषधि भी जानते हैं |

मीरा कहती है कि उनके हृदय में विरह रूपी पीड़ा हो रही है और प्रभु के बिना उसे संसार के सभी सुख व्यर्थ प्रतीत होते हैं | जिस प्रकार एक दुग्धा गाय जंगल में व्याकुल होकर भटकती रहती है क्योंकि उसका मन उसके बछड़े में अटका रहता है उसी प्रकार मीरा के मन में उसके प्रियतम बसे हुए हैं जिनसे मिलन के लिए वह सदैव व्याकुल रहती है | जिस प्रकार चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए व्याकुल रहता है और ‘पीव-पीव’ की पुकार करता रहता है ठीक उसी प्रकार मेरा भी अपने प्रिय प्रभु की पुकार करती रहती है और उनसे मिलन के लिए व्याकुल रहती है |

मीराबाई कहती है कि उसके लिए यह सारा संसार कूड़े करकट के ढेर की भांति व्यर्थ है क्योंकि वह उसके दर्द को नहीं पहचानता | मीराबाई कहती है कि मेरे तो प्रभु श्री कृष्ण ही पति स्वरूप हैं उनके अतिरिक्त मेरा कोई आश्रय नहीं है |

विशेष — (1) मीरा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

14

पतिया मैं कैसे लिखू, लिख्योरी न जाए।
कलम धरत मेरो कर कंपत है नैन रहे झड़ जाय।
बात कहूं तो कहत न आवै, जीव रह्यौ डरवाय।
बिपत हमारी देख तुम चाले, कहिया हरिजी सूं जाय
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, चरण ही कंवल रखाय।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मैं अपने प्रिय को पत्र कैसे लिखूं | मेरे द्वारा तो पत्र लिखा ही नहीं जाता | जब कभी मैं पत्र लिखने के लिए अपने हाथ में कलम पकड़ने का प्रयास करती हूँ तो मेरे हाथ कांपने लगते हैं | मेरी आंखों से आँसू झड़ने लगते हैं | जो बात मैं कहना चाहती हूँ, मुझसे कहते नहीं बनती अर्थात मैं अपने मन के भावों को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती | मेरा हृदय भयभीत हो उठता है | हे सखी / संदेशवाहक तुम मेरी विपत्ति देख ही चुके हो | अतः मेरा संदेश तुम प्रभु से जाकर कह देना | उनको यह संदेश देना कि गिरधर नागर श्री कृष्ण की मेरे प्रभु हैं और उनके चरण कमलों में ही मेरी रक्षा हो सकती है |

विशेष — (1) मीरा के हृदय की व्याकुलता का मार्मिक चित्रण हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

15

री म्हां बैठ्यां जागां, जगत सब सोवां।
विरहण बैठ्यां रंगमहल मां, णेण लड्या पोवां ।
इक बिरहणि हम ऐसी देखी, अंसुवन की माला पोवै
तारां गणतां रेण बिहानां, सुख घड़ियारी जोवां ।
मीरां रे प्रभु गिरधर नागर, मिल बिछड्या णा होवां।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — अपनी विरह व्यथा को व्यक्त करते हुए मीराबाई अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! सारा संसार सुख की नींद सो रहा है किंतु मैं जाग जागकर रात बिता रही हूँ | रंग-महल में बैठी मैं विरहिणी रो-रोकर आंसुओं की माला पिरो रही हूँ | जब लोग रात को गहरी नींद में सो रहे होते हैं तो वह तारे गिन-गिनकर रात बिताती है अर्थात वह रात भर सो नहीं पाती | इस प्रकार मैं सुख के क्षणों की प्रतीक्षा करती रहती हूँ | अंत में मीराबाई कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरिधर नागर श्री कृष्ण हैं जिनसे एक बार अगर मिलन हो जाए तो फिर बिछड़ना नहीं होता | अर्थात जब आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती हैं तो वह सदा के लिए उसका एक अभिन्न हिस्सा बन जाती है |

विशेष — (1) मीरा के हृदय की व्याकुलता का सजीव एवं प्रभावशाली चित्रण हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

16

सखी म्हारी नींद नसाणी हो।
पिय रो पंथ निहारत सब रैण विहाणी।
सखियन सब मिल सीख दयां मण एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल ना पड़ां मन रोस णा ठानी हो।
अंग क्षीण ब्याकुल भयां मुख पिय-पिय वाणी हो।
अन्तर वेदन बिरह री म्हारी पीण णा जाणी हो।
ज्यूं चातक घड़कू रटै मछरी ज्यूं पाणी हो।
मीरां व्याकुल विरहणी, सुध बुध बिसराणी हो।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा अपनी सखी को संबोधित करती हुई कहती है कि हे सखी! प्रिय के विरह के कारण उसकी नींद नष्ट हो गई है | मैं सारी रात प्रियतम की प्रतीक्षा करते हुए बिता देती हूँ | प्रेम भक्ति के मार्ग में पड़ने से पूर्व मेरी सभी सखियों ने मिलकर मुझे बहुत समझाया था लेकिन मेरे मन में किसी की बात नहीं मानी | उनको देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता और यदि वे नहीं भी मिलते तो भी मैं अपने मन में उनके प्रति रोष का भाव नहीं रखती | उनकी बिरहा में मेरे अंगने पड़ गए हैं और मेरे मुख से सदा प्रियतम का नाम ही निकलता रहता है | मेरे हृदय में जो विरह-वेदना है उस पीड़ा को कोई नहीं समझ सकता | जिस प्रकार चातक निरंतर बादलों की और मछली पानी की रट लगाए रखती है उसी प्रकार मैं भी अपनी सुध-बुध भुलाकर विरह-वेदना से व्याकुल होकर श्री कृष्ण की रट लगाए रहती हूँ |

विशेष –(1) मीरा की विरह वेदना का मार्मिक चित्रण हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

17

म्हारे घर होता आज्यो महाराज।
नेण बिछास्यूं हिबड़ो डास्यूं, सर पर राख्यूं विराज।
पांवडां म्हारो भाग संवारण, जगत उधारण काज।
संकट मेट्या भगत जणारां, थाप्या पुन्न रा पाज।
मीरां रे प्रभु गिरधर नागर, बांह गह्य री लाज।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा अपने प्रभु कृष्ण से विनम्र प्रार्थना करती हुई कहती है कि हे महाराज! तुम तनिक मेरे घर से होते हुए जाना | मैं तुम्हारे स्वागत में अपने नयन बिछा दूंगी तथा सदा तुम्हें अपने हृदय में रखूंगी | आपको अपने सिर-माथे पर बिठाकर रखूंगी | हे प्रभु! तुम तो इस संसार का उद्धार करने वाले हो | अतः तुम मेरे घर अतिथि बनकर आओ और मेरे भी भाग संवार दो अर्थात मेरा भी उद्धार कर दो | तुम तो सदा अपने भक्तों के संकटों को दूर करते हो तथा पुण्य की मर्यादा को स्थापित करते हो | मीरा गिरधर नागर को अपना प्रभु मानते हुए उनसे निवेदन करती है कि वह मेरी बांह पकड़कर मेरी लाज रख लें |

विशेष — (1) मीराबाई का एकनिष्ठ प्रेम उजागर हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

18

मेरे घर आवौ सुन्दर स्याम।
तुम आया बिनु सुध नहीं मेरे, पीरी परी जैसे पाण।
मेरे आसा और ण स्यामी, एक तिहारो ध्याण।
मीरां के प्रभु वेग मिलो अब, राषो जी मेरो प्रान।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा अपने प्रभु श्री कृष्ण से प्रार्थना करती हुई कहते हैं कि हे श्याम सुंदर! मेरे घर आ जाओ | तुम्हारे बिना मुझे कोई सुध नहीं है | तुम्हारी विरह-वेदना में मेरा शरीर पत्ते की भांति पीला पड़ गया है | हे स्वामी! तुम्हारे अतिरिक्त मेरी अन्य कोई आशा नहीं है ; मैं केवल तुम्हारे ही ध्यान में रात रहती हूँ | हे प्रभु! आप मुझे शीघ्र दर्शन दे दीजिए और मेरी लाज रख लीजिए |

विशेष — (1) मीरा के एकनिष्ठ प्रेम की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

19

मेरी बेड़ो लगायो पार, प्रभुजी मैं अरज करूं छु।
या भव में मैं बहु दुख पायो, संसा सोग निवार।
अष्ट करम की तलब लगी है दूर करो दुख भार।
यो संसार सब बह्यो जात है, लाख चौरासी री धार।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, आवागम निवार।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु मैं आपसे विनती करती हूं कि आप मेरा बेड़ा पार लगा दीजिए अर्थात मेरा उद्धार कर दीजिये | इस संसार में बहुत दुख हैं | अतः आप मेरे समस्त सांसारिक दुखों का निवारण कर दीजिए | हे प्रभु! इस संसार में रहते हुए मुझे अष्ट-कर्म करने की तीव्र इच्छा बनी रहती है | अतः आप मेरी इस तलब को दूर करके मुझे दुःखों के भार से मुक्त कीजिए | चौरासी लाख योनियों की धारा में यह संसार बहा जा रहा है अर्थात अर्थात यह संसार व्यर्थ में आवागमन के चक्र में फंसा हुआ है | अतः मीराबाई कहती है कि हे गिरधर नागर श्री कृष्ण! तुम मुझ पर कृपा करके इस सांसारिक आवागमन से मुक्ति दिला दो |

विशेष — (1) मीराबाई की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावना व्यक्त हुई है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

20

रंग भरी राग भरी राग सूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सू भरी, री।
उड़त गुलाल लाल बादला रो रंग लाल ।
पिचकां, उड़ावा रंग-रंग री झरी, री।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीरा अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! मैं अपने प्रिय श्री कृष्ण के साथ रंग, प्रेम तथा मधुर गान से भरी होली खेल रही हूँ | मेरे होली खेलने से होली के लाल गुलाल से बादल भी लाल हो गए हैं | मैं पिचकारी में रंग भर-भरकर तथा भांति-भांति के रंगों की गुलाल की झड़ी उड़ाकर होली खेल रही हूँ | मैंने अपने प्रिय कृष्ण के साथ होली खेलने के लिए चंदन, अरगजा और केसर आदि सुगंधित पदार्थों के घोल से अपनी मटकी भर ली है | मीरा कहती है कि मैं श्री कृष्ण की दासी हूँ तथा उनके संग होली खेलने के लिए मैंने रंगों से भरी यह गागर उनके चरणों में धर ली है |

विशेष — (1) मीराबाई की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावना व्यक्त हुई है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

21

साजण म्हारे घर आया हो।
जुगां-जुगां री जोवतां, विरहण पिव पाया, हो।
रतण करां नेवछावरां, ले आरत साजां, हो।
प्रीतम दिया सनेसड़ा, म्हारो घणो णेवाजां, हो।
पिय आया म्हारे सांवरा, अंग आनन्द साजां हो।
हरि सागर सूं नेहरो, नैणां बंधया सनेह, हो।
मीरां रे सुख सागरां, म्हारे सीसी विराजां हो।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती हैं कि हे सखी! मेरे साजन श्री कृष्ण आज मेरे घर आ गए हैं | मैं विरह से व्याकुल होकर युगों-युगों से उनकी प्रतीक्षा कर रही थी, आज मुझ विरहिणी ने अपने प्रिय को पा लिया है | मैं उनका स्वागत करने के लिए उनपर तमाम रत्नों को न्योछावर करूंगी और उनकी आरती उतारूँगी | मेरे प्रियतम आकर मुझे जो प्रेम-संदेश भेजा है, यह उन्होंने मुझ पर अपार कृपा की है | जब से मेरे सांवरे प्रियतम हरदा श्री कृष्ण मुझसे मिलने आए हैं तब से मेरे अंग-अंग में आनंद समाहित हो गया है | मेरे प्रभु प्रेम के सागर हैं | मेरी आंखें उनके स्नेह में बंध गई हैं |

अंत में मीराबाई कहती है कि मेरे प्रिय श्री कृष्ण सुख के सागर हैं ; मैं आदरपूर्वक उन्हें अपने सिर पर स्थान देती हूँ |

विशेष — (1) प्रिय-मिलन के समय मीराबाई की आनंदानुभूति का वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

22

स्याम बिन दुख पावां सजणी।
कुण ह्यां धीर बंधावां।
यौ संसार कुबुध रौ भांडो, साध संगत णा भावां।
साधां जणरी निंद्या ठाणां, करम रा कुगत कुमावा।
राम नाम बिनि मुकुति न पांवां, फिर चौरासी जावां ।
साध संगत मां भूल णा जावां मूरिख जणम गुमावां ।
मीरां रे प्रभु थारी सरणां, जीव परम पद पावां।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे सजनी! श्री कृष्ण के बिना मैं बहुत दुख पा रही हूँ | भला ऐसा कौन है जो मुझे धीरज दे सकता है? यह संसार वास्तव में अज्ञानता से भरा हुआ बर्तन है | यहां रहने वाले लोगों को साधु-संतों की संगति अच्छी नहीं लगती | यह लोग सदैव साधुओं की निंदा करते रहते हैं तथा बुरे कार्यों से बुरे कर्मों की कमाई करते रहते हैं | लेकिन राम-नाम के स्मरण के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ; राम-नाम के स्मरण बिना जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है | परंतु इस संसार के लोग इस सत्य से अनभिज्ञ हैं ; वे साधुओं की संगत नहीं करते तथा अपना अनमोल जीवन व्यर्थ गंवा देते हैं | मीराबाई कहती है कि जो मीरा के प्रभु श्री कृष्ण की शरण को ग्रहण कर लेता है वह जीव परम पद अर्थात मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है |

विशेष — (1) प्रभु भक्ति का संदेश दिया गया है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

23

प्रभु तो मिलण कैसे होय।
पांच पहर धन्धे में बीते, तीन पहर रहे सोय।
माणष जनम अमोलक पायो, सोतै डारयो खोय।
मीरां के प्रभु गिरधर भजीये होनी होय सो होय।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि इस संसार में रहने वाले प्राणियों का प्रभु से मिलन किस प्रकार हो सकता है | इस विषय पर विचार करते हुए वह कहती है कि समस्त प्राणियों के दिन के पांच प्रहर तो काम-धंधे में बीत जाते हैं तथा बाकी के तीन प्रहर सोने में बीत जाते हैं | कहने का भाव यह है कि मनुष्य अपने दिन के आठों प्रहर खाने-पीने और सोने में व्यतीत कर देता है | उसे ईश्वर-भक्ति का समय ही नहीं मिलता | इस प्रकार मनुष्य का प्रभु से मिलन कैसे हो सकता है? मनुष्य को मानव के रूप में अनमोल जीवन मिला है परंतु वह उसे सोते हुए गवा देता है |

अंत में मीराबाई मनुष्य को प्रभु-मिलन का रास्ता बताते हुए कहती है कि मनुष्य को उनके प्रभु श्रीकृष्ण की उपासना करनी चाहिए तथा बाकी सभी बातों की चिंता छोड़ देनी चाहिए |

विशेष — (1) प्रभु भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

24

होजी हरि कित गये णेह लगाय।
णेह लगांय मेरो हर लीयो रस भरी टेर सुनाय।
मेरे मण में ऐसी आवै, मरूं जहर विष खाय।
छाड़ि गए विसवास घात करि, णेह केरी नाव चढ़ाय।
मीरां के प्रभु कब रे मिलोगे, रहे मधुपुरी छाय।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — प्रेम में व्याकुल मीरा अपने मन की दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि हे मेरे प्रियतम! तुम मुझसे प्रेम करके कहां चले गए? उन्होंने अपनी रस भरी मुरली की धुन सुना कर और प्रेम भावना जगा कर मेरे ह्रदय को हर लिया | मेरी विरह वेदना इतनी बढ़ गई है कि मेरे मन में यह आता है कि मैं जहर खा कर अपने प्राण त्याग दूं | वे मुझे प्रेम की नौका पर चढ़ाकर और विश्वासघात करके मुझे छोड़ कर चले गए हैं | मीराबाई कहती है कि हे मेरे प्रभु! तुम मथुरा नगरी में जाकर बस गए हो, अब तुम मुझसे आकर कब मिलोगे ?

विशेष — (1) मीराबाई की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

25

म्हारो मण हर लीण्या रणछोड़।
मोर मुकुट सिर छत्र बिराजां, कुंडल री छब ओर।
चरण पखारयां रतणाकर री, धारा गोमत जोर।
धजां पताका तट तट राजां झालर री झकझोर ।
भगत जणारों काज संवाऱया म्हारा प्रभु रणछोर।
मीरां रे प्रभु गिरधर नागर, कर गह्यो नन्द किशोर ।।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है |

व्याख्या — मीराबाई कहती है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनका मन हर लिया है | उनके सिर पर मोर-पंखों से बना हुआ मुकुट विराजित है तथा उनके कानों में लटक रहे कुंडलों की शोभा अनूठी है | सागर उनके चरणों को धोता है | उनके चरणों में नदी की धारा प्रवाहित रहती है जिसके तट पर झालरों वाली ध्वजाएं फहराती अत्यंत सुन्दर लगती हैं | ऐसी शोभा से युक्त मेरे प्रभु श्री कृष्ण अपने भक्तोंजनों के काम सवारते हैं | मीराबाई कहती है कि हे गिरधर नागर, नंद के बेटे कृष्ण मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपनी शरण में ले लो अर्थात मेरा भी उद्धार कर दो |

विशेष — (1) मीराबाई का श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम उजागर हुआ है |

(2) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है |

(3) राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा का प्रयोग है |

(4) तत्सम व तद्भव शब्दावली का समन्वय है |

(5) गीति शैली का प्रयोग हुआ है |

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