अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो का शिष्य था | अरस्तू का विरेचन सिद्धांत अपने गुरु प्लेटो के काव्य संबंधी सिद्धांत का प्रतिवाद कहा जा सकता है | प्लेटो की यह धारणा थी कि काव्य हमारी क्षुद्र वासनाओं को उभरता है और आदर्श नागरिकता के मार्ग में बाधा बनता है | उनका मानना था कि काव्य वासनाओं का दमन करने की अपेक्षा उनका पोषण करता है | यही कारण है कि प्लेटो ने कविता की आलोचना की और उसे त्याज्य माना | प्लेटो ने त्रासदी पर भी आरोप लगाए कि त्रासदी का नायक भी केवल विलाप करके दर्शकों के भावों को उद्दीप्त करने का कुत्सित कार्य करता है | त्रासदी का नायक उस वास्तविक व आदर्श नायक के विपरीत है जो कष्टों का सामना करता है | इस प्रकार प्लेटो ने काव्य और त्रासदी को जीवन के लिए अनुपयोगी मानते हुए उसका विरोध किया |

परंतु प्लेटो के शिष्य अरस्तु ने अपने गुरु के विचारों के सर्वथा विपरीत विचार प्रकट करते हुए विरेचन सिद्धांत का प्रतिपादन किया | उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि कविता शुद्र वासनाओं के दमन के स्थान पर उनका विरेचन, निष्कासन तथा परिशमन करती है |

‘विरेचन’ शब्द का अर्थ

‘विरेचन’ के लिए यूनानी शब्द ‘कैथार्सिस‘ प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है — मल-शुद्धि, निष्कासन, बहिर्गमन आदि | यूनान में ‘कैथार्सिस‘ शब्द का प्रयोग आयुर्विज्ञान तथा चिकित्सा शास्त्र में रेचक औषधि के लिए प्रयुक्त हुआ है | रेचक औषधि का प्रयोग मल निष्कासन के लिए होता है | क्योंकि अरस्तु के पिता एक वैद्य थे इसलिए अरस्तु इस शब्द के अर्थ से भली-भांति परिचित थे | उन्होंने ‘कैथार्सिस’ शब्द का प्रयोग विचार शुद्धि के अर्थ में किया |

अरस्तु का मानना था कि वासनाएँ मानव के स्वाभाविक गुण हैं | उनके इस मत का समर्थन मनोविज्ञान में भी किया गया | उन्होंने कहा कि भय, करुणा आदि हीन भावनाएं भी हमारे अंदर उसी प्रकार रहती हैं जिस प्रकार वीरता, साहस आदि उच्च भावनाएं | उन्होंने कहा कि इन हीन भावनाओं का दमन करने से मन को शांति प्राप्त नहीं हो सकती बल्कि उन्हें विरेचित करने से ही मानसिक शांति प्राप्त होती है | अपनी बात को स्पष्ट करते हुए अपनों ने कहा कि जिस प्रकार से वैद्य उदर विकार से ग्रस्त रोगी को रेचक औषधि के द्वारा मल-निष्कासन कर रोगी को मानसिक और शारीरिक शांति प्रदान करता है उसी प्रकार से विरेचन सिद्धांत काव्य पर लागू होता है | कविता भी हमारे मनोबल को विरेचित कर उनका समंजन करती है | अतः कविता त्याज्य नहीं, ग्राह्य है |

अरस्तु ने अपनी दो रचनाओं में विशेषण शब्द का प्रयोग किया है |

अरस्तु ‘पोइटिक्स‘ त्रासदी के विषय में लिखते हैं —

“Tragedy then is an imitation of action that is serious, complete and of a certain magnitude, in language embellished with each kind of artistic ornament, the several kinds being found in separate parts of the play in the form of action, not of narrative, through pity and fear affecting the proper katharsis or purgation of these emotions.”

अर्थात “त्रासदी किसी गंभीर, स्वत: पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न रूप में प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है, जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य व्यापार के रूप में होती है और जिसमें करुणा तथा त्रासदी के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है |”

इसके अतिरिक्त ‘पॉलिटिक्स में अरस्तु लिखते हैं कि संगीत का अध्ययन अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए — जैसे शिक्षा के लिए, धार्मिक आवेश को शांत करने के लिए तथा आनंद की उपलब्धि के लिए |

‘विरेचन’ की विभिन्न व्याख्याएँ

यद्यपि अरस्तु के विरेचन सिद्धांत की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है परंतु फिर भी यह सिद्धांत एक उपयोगी सिद्धांत है तथा परवर्ती आलोचकों के विषय का केंद्र रहा है | इस सिद्धांत में प्रयुक्त ‘विरेचन’ शब्द की भिन्न-भिन्न ढंग से व्याख्या की गई है |

(1) ‘विरेचन’ का धर्म-परक अर्थ

प्रोफेसर गिलबर्ट मरे तथा लिवी ने ‘विरेचन’ की धर्म-परक व्याख्या की है | प्रोफ़ेसर मरे के अनुसार यूनान में वर्ष के आरंभ पर दियोन्युसस यूनानी देवता से संबंधित एक उत्सव का आयोजन किया जाता था | यह उत्सव अपने आप में एक विशेष शुद्धि का प्रतीक था क्योंकि इस अवसर पर देवता से प्रार्थना की जाती थी कि वह उपासकों को बीते हुए वर्ष के सभी पापों व कुकर्मों से मुक्त करके आगामी वर्ष में शुद्ध हृदय से पापमुक्त जीवन बिताने की प्रेरणा प्रदान करे |

लिवी के अनुसार अरस्तु के जीवनकाल में ही यूनानी त्रासदी रोम में प्रवेश कर चुकी थी किंतु यह किसी कलात्मक उद्देश्य से नहीं बल्कि धार्मिक अंधविश्वास के परिणामस्वरूप हुआ था | रोम के निवासी मानने लगे थे कि इस प्रकार का उत्सव मनाने से दैवी आपदाओं को रोका जा सकता है | संभवत: अरस्तु को अपने विरेचन सिद्धांत की प्रेरणा इसी प्रथा से मिली |

विरेचन के धर्म-परक अर्थ को मारने वाले विद्वानों के अनुसार विरेचन का अर्थ है — बाह्य उत्तेजना और अंत में बाह्य उत्तेजना के शमन द्वारा आंतरिक शुद्धि एवं शांति |

आलोचना

अरस्तू ने धार्मिक संगीत तथा मानसिक शुद्धि का हवाला तो स्वयं भी दिया है | लेकिन प्रोफेसर मरे ने धार्मिक प्रथा के साथ विरेचन को जोड़कर कुछ अधिक अर्थ निकालने का प्रयास किया है | यह सही है कि अरस्तू के सिद्धांत पर कुछ धार्मिक प्रभाव हो सकता है | यह प्रभाव प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में संभव है | धर्म भी श्रोता के भावों को उत्तेजित कर सकता है | कविता पाठक कि करुण मनोवृत्तियों का निवारण ही नहीं करती अपितु स्वास्थ्यपरक भावनाओं की अभिवृद्धि भी करती है |

(2) ‘विरेचन’ का नीतिपरक अर्थ

अरस्तू ने अपने ग्रंथ ‘पॉलिटिक्स‘ में संगीत का एक उद्देश्य विरेचन बताया है | जर्मन विद्वान वारनेज ने इसी कथन के संदर्भ में विरेचन के अर्थ की स्थापना की जो नीतिपरक माना जाता है क्योंकि इसका आधार व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य है | वारनेज के अनुसार मानव के हृदय में अनेक मनोविकार होते हैं | इन मनोविकारों में करुणा एवं भय का भी अपना स्थान है और यह मूलत: दु:खद मनोवेग हैं | त्रासदी रंगमंच पर ऐसी काल्पनिक परिस्थितियां प्रस्तुत करती है जिनमें मानव मन के मनोविकार करुणा, भय आदि अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं | जब दर्शक इन परिस्थितियों को देखता है तो उसके मन में अवस्थित करुणा, भय आदि आवेगों का पहले तो तीव्र उद्वेलन होता है और तत्पश्चात उनका उपशमन होता है | इन मनोविकार का उपशमन हो जाने से दर्शक को मानसिक शांति का अनुभव होता है |

आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करता है | इसके अनुसार मनुष्य के मनोविज्ञान कुंठित होकर अवचेतन में चले जाते हैं और वहां से अनजाने ही मन को दंशित करते रहते हैं | पूरे न होने के कारण यह ग्रंथि में परिणत हो जाते हैं | यह एक प्रकार की मानसिक बीमारी है जिसका मनोवैज्ञानिक उपचार यही है कि उन मनोवेगों को किसी प्रकार उदबुद्ध कर उद्वेलित किया जाए और उचित प्रकार से उनका परीशमन किया जाए |

इस प्रकार विरेचन का नीतिपरक अर्थ है — मनोवेगों अथवा मनोविकारों के उद्दाम उद्वेलन के पश्चात उद्वेगों का शमन और उससे उत्पन्न मानसिक शुद्धता व शांति |

आलोचना

जहां तक विरेचन के नीतिपरक अर्थ का संबंध है आधुनिक मनोविज्ञान भी इसी की पुष्टि करता है | आधुनिक मनोवैज्ञानिक फ्रायड, एडलर आदि भी यह मानते हैं कि जब आदमी की वासनाओं की तृप्ति नहीं होती तो हमारे मनोवेग कुंठित हो जाते हैं और हमारे अवचेतन मन में ग्रंथि बनकर बैठ जाते हैं और हमें निरंतर दंशित करते रहते हैं | ऐसी स्थिति में व्यक्ति कुंठित हो जाता है और ऐसा कुंठित व्यक्ति तभी मानसिक संतुष्टि प्राप्त कर सकता है जब उसके अतृप्त मनोवेग तृप्ति प्राप्त कर लेंगे | इस प्रकार विरेचन से न भावों का दमन होता है न निष्क्रमण होता है अपितु उनका संतुलन होता है | अतः भावातिरेक मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है |

(3) ‘विरेचन’ का कला-परक अर्थ

कला-परक अर्थ सर्वप्रथम प्रसिद्ध जर्मन विद्वान गेटे ने दिया। अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी कवियों व आलोचकों ने भी ‘विरेचन’ के गेटे द्वारा प्रदत्त अर्थ की ओर संकेत किया है। परन्तु विरेचन के कला-परक अर्थ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन अरस्तू के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो. बूचर ने किया। प्रो. बूचर के अनुसार ‘विरेचन’ शब्द केवल मनोविज्ञान अथवा निदान-शास्त्र के एक तथ्य विशेष का ही वाचक न होकर, एक कला सिद्धान्त का भी व्यंजक है। इस प्रकार स्पष्ट रूप से उनके मत में विरेचन का केवल चिकित्सा-शास्त्रीय अर्थ अरस्तू के संपूर्ण अर्थ को अभिव्यंजित नहीं करता। काव्य-शास्त्र में कला सम्बन्धी सिद्धान्तों के संदर्भ में उसका अर्थ अधिक व्यापक है। मानसिक सामंजस्य एवं संतुलन विरेचन का प्रारम्भिक भाग है जिसकी परिणति कलात्मक परिष्कार में होती है। यह कलात्मक परिष्कार त्रासदी के कलागत आस्वाद का आवश्यक प्रतिफलन है।

डॉ. जानसन ने स्वीकार किया है कि भाव मानवीय कार्यों के प्रेरक होते हैं, परन्तु वे अशुद्ध तत्त्वों से पूर्ण होते हैं। इसी से करुणा एवं भय के माध्यम से अशुद्धियों का परिष्कार किया जाता है।

इस प्रकार विरेचन का कलापरक अर्थ हुआ — करुणा और भय के भावों के माध्यम से मानव मन के कुत्सित भावों का परिष्कार।

आलोचना

प्रोo बूचर ने विरेचन के दो पक्ष माने हैं — भावात्मक एवं अभावात्मक। अभावात्मक पक्ष पहले मनोवेगों को उत्तेजित करता है। फिर उनका शमन करके मन को शान्ति प्रदान करता है। परन्तु उसका भावात्मक पक्ष है — कलात्मक परितोष। विरेचन से अरस्तू का अभिप्राय केवल मन का सामंजस्य और भावनाओं की शुद्धता से था। अरस्तू के अनुसार त्रास और करुणा दोनों कटु भाव हैं। विरेचन प्रक्रिया से यह कटुता नष्ट हो जाती है और प्रेक्षक मनःशान्ति को अनुभव करता है। मन की यह शान्ति सुखद होती है। परन्तु प्रो. बूचर त्रास और करुणा के साधारणीकरण होने से अव्यवस्था के परिवर्तन के कलात्मक प्रक्रिया पर बल देते हैं।

परन्तु डॉ. नगेन्द्र इसे विरेचन सिद्धान्त के अन्तर्गत स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि विरेचन द्वारा प्रेक्षक मन की शान्ति को अनुभव करता है। अतः कलापरक अर्थ उनको मान्य नहीं है।

(4) ‘विरेचन’ का भाव-परक अर्थ

भाव-परक अर्थ का प्रतिपादन लूकस एवं हर्बर्ट रीड ने किया। वास्तविक जीवन में करुणा एवं भय जैसे भावों का उद्रेक सुरक्षित नहीं, किन्तु इन भावों का दबाना भी न तो संभव है और न स्वस्थ। अतः प्रेक्षागृह में ट्रेजेडी के अवलोकन से इन भावों का उद्रेक वास्तविक जीवन की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है। लूकस का मत है कि हम प्रेक्षागृह में भावों को प्राप्त करने के लिए जाते हैं, न कि उनसे छुटकारा पाने के लिए। इसका अर्थ यह हुआ कि कम से कम कुछ क्षण के लिए, नाटक के अन्त में, उन भावों के लिए हमारी भूख या मांग समाप्त हो जाती है, जिससे हमें मानसिक विश्राम मिलता है। यही ‘विरेचन’ का भाव-मूलक अर्थ है।

(5) ‘विरेचन’ का मनोवैज्ञानिक अर्थ

मनोवैज्ञानिक अर्थ के प्रतिपादक आधुनिक आलोचक आई. ए. रिचर्ड्स का कथन है कि करुणा प्रवृत्तिमूलक भाव है और भय निवृत्तिमूलक, अर्थात् करुणा के जाग्रत होने पर हम किसी प्रकार की क्रिया में प्रवृत्त होते हैं जिससे पीड़ित व्यक्ति का दुःख दूर हो सके। किन्तु भय में हम दृश्य से दूर भागना चाहते हैं। इसलिए जब ट्रेजेडी को देखते समय इन दोनों विरोधी भावों की अनुभूति होती है तो एक प्रकार के सन्तुलन का अनुभव होता है। अतः यही सन्तुलन ‘विरेचन’ है, जिसमें हमें आनन्द प्राप्त होता है।

(6) ‘विरेचन’ का होम्योपैथी तथा ऐलोपैथीपरक अर्थ

विरेचन के पहले अर्थ का प्रतिपादन इटली के पुनर्जागरण काल के कुछ आलोचकों द्वारा किया गया। अंग्रेजी के महान् कवि मिल्टन ने भी इसका अनुमोदन किया। यह अर्थ होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति की भांति समान का समान से चिकित्सा सिद्धान्त पर आधारित है। पुनः नव-क्लासिकवाद के काल में भावुकता के बढ़ते हुए प्रभाव के परिणामस्वरूप विरेचन के लिए ऐलोपैथिकपरक अर्थ को भी समर्थन
मिला। यह समान का असमान से चिकित्सा सिद्धांत पर बल दिया जाता है। डॉ. जॉनसन ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा —

“जो भाव मानवीय कार्यों के प्रेरक होते हैं, वे अशुद्ध तत्त्वों से परिपूर्ण होते हैं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि करुणा एवं भय के माध्यम से उन अशुद्धियों का शुद्धिकरण और परिष्कार किया जाए।”

आलोचना

ल्यूकस होम्योपैथिक तथा ऐलोपैथिक अर्थों के बारे में कहता है कि प्रेक्षागृह कोई अस्पताल नहीं है जहाँ पर शरीर के रोगों के समान प्रेक्षक के अन्तर्मन की भावनाओं एवं रोगों का भी उपचार होता है। प्रेक्षक तो आनन्दानुभूति पाने के लिए ही नाटक देखने जाता है।

विरेचन सिद्धांत की आलोचना व देन

अनेक विद्वानों ने विरेचन सिद्धान्त पर कुछ आक्षेप भी किए हैं। उन्हें विरेचन प्रक्रिया के अस्तित्व पर विश्वास नहीं है। उनका विचार है कि वास्तविक जीवन में विरेचन होता ही नहीं। क्योंकि त्रासदी को देखकर करुणा, त्रास और भय आदि मनोवेग जागृत होते हैं, परन्तु मनःशान्ति प्रदान नहीं करते। उनका यह भी विचार है कि बहुत से नाटक या फिल्में केवल प्रेक्षक के भावों को क्षुब्ध करके रह जाती हैं।

परन्तु भारतीय आलोचक डॉ. नगेन्द्र इस मत से सहमत नहीं है। उनका कथन है —

“विरेचन प्रक्रिया भावों को उद्बुद्ध करती है तथा उनका समंजन करती है तथा आनन्द की भूमिका तैयार करती है। यही विरेचन सिद्धान्त की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है।”

दूसरा आक्षेप यह लगाया जाता है कि त्रासदी में प्रदर्शित भाव वास्तविक नहीं होते हैं। वे हमारे भावों को उत्तेजित नहीं कर पाते। फिर विरेचन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। नाटक में प्रेक्षक केवल कला का आस्वादन करता है।

यह आक्षेप भी निराधार प्रतीत होता है। क्या कालिदास का ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ केवल हमें कला का आस्वादन प्रदान करता है? क्या वह पाठकों के भावों को उत्तेजित नहीं करता? क्या सिनेमा और रंगमंच भी हमें केवल आनन्दानुभूति ही प्रदान करते हैं? सच तो यह है कि अनेक साहित्यिक नाटकों को पढ़कर व रंगमंच पर अभिनीत अनेक नाटकों को देखकर प्रेक्षक रोने लगता है | यह केवल भावोद्रेक का चमत्कार नहीं है। अतः हमें यह मानकर चलना होगा कि विरेचन की प्रक्रिया के द्वारा ही प्रेक्षक को आनन्दानुभूति प्राप्त होती है।

विरेचन सिद्धांत के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. शांतिस्वरूप गुप्त ने लिखा है —

“विरेचन सिद्धांत अपनी समस्त शक्ति तथा सीमाओं सहित पाश्चात्य काव्यशास्त्र को अरस्तु की महत्वपूर्ण दिन है | इसके द्वारा अरस्तु ने प्लेटो के काव्य पर लगाए आरोप का उत्तर दिया, काव्य की महत्ता स्थापित की और त्रासदी के प्रभाव को गौरवपूर्ण बनाया । अरस्तू के विरेचन, रिचर्ड्स के अंतर्वृत्तियों के समंजन और शुक्ल जी द्वारा प्रतिपादित ‘हृदय की मुक्तास्था’ में अन्ततः कोई भेद नहीं।”

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

काव्यात्मा संबंधी विचार

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप

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