चोल प्रशासन ( Cholas Administration )

दक्षिण भारत के इतिहास में चोल वंश का महत्वपूर्ण स्थान है | यद्यपि चोलों का इतिहास बहुत अधिक पुराना है परंतु 9वीं सदी में यह वंश शक्तिशाली अवस्था में उभर कर सामने आया तथा 1200 ईस्वी तक दक्षिण भारत में सत्तासीन रहा | 9वीं सदी के उत्तरार्ध में चोलों ने तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में अपना शक्तिशाली राज्य स्थापित किया | चोलों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था तथा प्रजा हितार्थ कार्यों से अपने साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की | चोल प्रशासन की महत्वपूर्ण विशेषताएं प्रकार हैं —

(1) चोलों की शासन प्रणाली ( Administration of Cholas )

चोलों ने दक्षिण भारत में एक बड़े भू-भाग पर अपना स्वामित्व स्थापित किया | उन्होंने उच्च कोटि की शासन प्रणाली विकसित की और इस शासन प्रणाली के बूते उन्होंने लंबे समय तक सफलतापूर्वक शासन किया | चोलों की शासन-प्रणाली को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है —

(क ) चोलों की केंद्रीय शासन-प्रणाली

चोलों की शासन प्रणाली मुख्य रूप से केंद्रीकृत थी | उनकी केंद्रीय शासन प्रणाली के दो भाग किए जा सकते हैं — (i) शासक तथा (ii) केंद्रीय मंत्रीमण्डल |

(i) शासक — चोल साम्राज्य में शासक शासन में सर्वोच्च पद पर आसीन था | राज्य की रक्षा, न्याय, शांति व सांस्कृतिक-सामाजिक विकास उसका प्रमुख कार्य था | राज्य में उसकी प्रतिष्ठा इस बात से प्रमाणित हो जाती है कि मंदिरों में राजा व उसके परिवार के सदस्यों की मूर्तियां स्थापित कर उनकी पूजा की जाती थी | सामान्य तौर पर युवराज ही शासक बना करते थे | उत्तराधिकार के लिए झगड़ों के उदाहरण भी मिलते हैं |

(ii) केंद्रीय मंत्रीमण्डल — चोल साम्राज्य में यद्यपि सभी प्रमुख कार्य शासक करता था परंतु उसकी सलाह के लिए एक परिषद का गठन किया जाता था जिसे केंद्रीय मंत्रिमंडल भी कहा जा सकता है | चोल इतिहास के प्रमुख स्रोतों में मुख्य रूप से तीन अधिकारियों का उल्लेख मिलता है — ओलेनायकय ( प्रधान सचिव ), पेरूदश्य ( एक प्रधान कर्मचारी ) तथा विदेयाचिकारित ( कार्य-प्रेषक ) | यह अधिकारी राजा की आज्ञाओं के आज्ञा पत्र तैयार करते थे तथा उनको राजकिय रिकॉर्ड में रखते थे | केंद्रीय प्रशासन को ठीक ढंग से चलाने के लिए विभिन्न भागों में बांटा गया था | यह अधिकारी भी प्रायः वंशानुगत की होते थे | उन्हें वेतन के रूप में जमीन दी जाती थी |

(ख ) चोलों की प्रांतीय शासन-प्रणाली

चोलों ने शासन की शक्तियों का विभाजन करने के लिए अपने साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में बांटा था | प्रांतीय इकाई को वलनाडु कहा जाता था | वलनाडु ( प्रान्त ) का मुखिया भी प्रायः राजघराने से नियुक्त किया जाता था परंतु कुछ प्रांत-मुखिया पराजित राजा भी होते थे | प्रांत का मुखिया अपने प्रांत में उन सभी शक्तियों का प्रयोग करता था जो केंद्र में शासक करता था | प्रांतों को मण्डल ( कोट्टम ), मण्डल को जिले ( नाडु ) में बांटा गया था |

(ग) स्थानीय शासन

स्थानीय शासन का सफल संचालन ही इस साम्राज्य की शक्ति का प्रतीक था। यह पूर्ण दक्षता व निपुणता से चलाया जाता था। स्थानीय शासन को व्यवस्थित क्रम में करने का श्रेय राजाराज प्रथम को जाता है। ग्राम व नगर स्थानीय शासन में मुख्य थे। इन क्षेत्रों का शासन चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होता था। ये संरचनाएँ उर एवं सभा के रूप में जानी जाती थीं। उर व्यवस्था लोगों की संस्था थी। जबकि सभा में अग्रहारी या ब्राह्मण होते थे। स्थानीय शासन को स्वायत्त शासन कहा जा सकता है। अपने क्षेत्र की सभी प्रशासनिक गतिविधियों को चलाने की जिम्मेदारी इनकी थी। अपने क्षेत्र में शान्ति, न्याय, शिक्षा व विकास की व्यवस्था करना इनका काम होता था। सरकारी अधिकारी इनकी कार्यप्रणाली व आय-व्यय का नियमित निरीक्षण करते थे।

(घ) राजस्व शासन

इस समय राज्य की आय का मुख्य साधन भू-राजस्व या विभिन्न
अभिलेखों व दान पात्र लेखों में इस बात के प्रमाण हैं कि कृषि उत्पादन का 1/3 भू-राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था। सीमाशुल्क, राहदारी, व्यापार, उद्योग-धंधों पर कर से भी राज्य की आय होती थी। व्यक्तिगत खानों पर कर होता था। जबकि सरकारी खानों की आमदनी अलग होती थी। इसी प्रकार वन व नमक उत्पादन पर राज्य द्वारा कर लगाया गया था। करों की वसूली के लिए कठोर नीतियाँ भी अपनाई जाती थीं। सरकार के व्यय के स्रोत भी परम्परागत थे। राज-परिवार, दरबार व सेना पर अधिकतर खर्च होता था। कुछ अधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था। मन्दिर निर्माण, सिंचाई, सड़क व शिक्षा इत्यादि जनहित कार्यों पर भी सरकारी आय खर्च की जाती थी।

(ङ) न्याय व दण्ड-व्यवस्था

इस काल में दो प्रकार की न्याय व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। एक सरकारी प्रणाली, दूसरी सामाजिक प्रणाली। सरकारी प्रणाली में जैसे-जैसे प्रशासन की इकाइयाँ थीं वैसे ही अधिकारी न्याय व्यवस्था करते थे। इसमें कानून लिखित होते थे। प्रमाण के रूप में दस्तावेज व गवाहों का होना जरूरी था। फैसले मौके पर हो जाते थे। राज-द्रोह सबसे बड़ा अपराध था। दण्डों में मृत्यु-दण्ड, अंग काटना तथा सम्पत्ति जब्त करना इत्यादि मुख्य थे। सामाजिक प्रणाली में ग्राम पंचायतें व जातीय पंचायतें थीं, ये सभी परम्परा अनुसार फैसले किया करती थीं। इनमें बीच-बचाव का रास्ता अपनाया जाता था। इनकी दण्ड-प्रणाली में ग्राम निष्कासन व जाति निष्कासन सबसे बड़ा था।

(च) सैनिक शासन

चोलों का सैनिक प्रबन्ध बहुत अच्छा था। उन्होंने शक्तिशाली जल व थल सेना का निर्माण किया था। इसी सैनिक बल के आधार पर ये भारत के अन्दर व बाहर अपना वर्चस्व बना सके। इनकी स्थल सेना में पैदल, धनुषधारी, हाथी, अश्व, रथ के अतिरिक्त जंगल में युद्ध करने वाले प्रशिक्षित सैनिक थे। सेना के लिए छावनी व प्रशिक्षण की व्यवस्था थी। सैनिकों की भर्ती शासक विश्वासपात्र लोगों के माध्यम से करवाता था। सेना के अभ्यास व अनुशासन सबसे महत्वपूर्ण माने जाते थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों में वर्णन मिलता है कि उन्होंने अरब देशों से नियमित घोड़े आयात करने की व्यवस्था की थी। इनकी विशाल सेना में 60 हजार हाथी, एक लाख अश्व सेना व डेढ़ लाख पैदल सैनिक बताए जाते हैं।

(छ) प्रजाहितार्थ कार्य

प्रजाहित का ध्यान चोल शासकों को था। उन्होंने कृषि के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया। जमीन की पैमाईश करवाकर कुएँ, तालाब व नहरों का निर्माण करवाया। झीलों का निर्माण करवाकर, उनके पानी का समुचित प्रयोग किया। पूरे संरक्षण दिया गया। शिक्षण संस्थाओं व मन्दिर के निर्माण में भी उन्होंने पूरी रुचि ली। गरीबों राज्य में सड़कों का निर्माण करवाया। व्यापारियों व उद्योगों से जुड़े लोगों को भी उनके द्वारा को दान दिया जाना व अनाथालय का होना भी इसकी जन-हितकारी सोच को प्रदर्शित करता है।

(2) शिक्षा व साहित्य (Education and Literature)

चोल शासकों के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में भी कार्य किए गए। इस समय ये शिक्षा दो स्थानों पर दी जाती थी-एक प्रारम्भिक शिक्षा, दूसरी उच्च शिक्षा। प्रारम्भिक शिक्षा मन्दिरों में तथा उच्च शिक्षा राज्य द्वारा स्थापित संस्थाओं में दी जाती थी। वेद, रामायण, उपनिषद, महाभारत, पुराण, धर्मशास्त्र, ज्योतिष तथा व्याकरण इत्यादि शिक्षा के विषय थे। नाटक मंचन भी उस समय में शिक्षा प्रणाली का हिस्सा था। साहित्य के क्षेत्र में इनके काल के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। सोविकसार का रचयिता पेरियापुराणम तथा तमिल रामायण का रचयिता कम्बन, इस काल से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार विभिन्न संत-कवियों द्वारा भी तमिल व कन्नड़ साहित्य को प्रोत्साहित किया गया।

(3) कला (Art)

कला के क्षेत्र में इनका योगदान अद्वितीय है। इससे पूर्व पल्लवों के
द्वारा भी मन्दिर निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की गई थी। चोलों की सांस्कृतिक विकासवादी सोच के कारण तंजावुर, गंगकोड, चोलपुरम् व काँची जैसे बड़े-बड़े नगरों का महत्व बना। इस काल में मन्दिर स्थापत्य कला अपने उच्चतम शिखर पर थी । इन्होंने जो शैली
विकसित की वह द्रविड़ शैली के नाम से विख्यात हुई। इस शैली की प्रमुख विशेषताओं में वर्गाकार विमान, मंडम, गोपुरम, कला पूर्ण स्तम्भ, सजावट के लिए शेरों की आकृतियाँ व संयुक्त स्तम्भों का प्रयोग शामिल है। इन मन्दिरों में तंजौर का शिव मन्दिर 190 फुट ऊँचा व चौदह मंजिलों का है। इसके गुम्बद का भार 80 टन है। तंजौर का सुब्रह्मन्यम मन्दिर भी उच्चतम कला व अलंकरण के लिए प्रसिद्ध है। श्री रंग पदम का मन्दिर अपनी वास्तुकला का विरला उदाहरण है। हजार स्तम्भों से बना यह मन्दिर 450 फुट लम्बा, 130 फुट चौड़ा व 160 फुट ऊँचा है। इसका मुख्य आकर्षण नटराज की काँसे की मूर्ति है। कुभकोणम् का मन्दिर अपने प्रवेश द्वार (गोपुरम) के कारण दक्षिण में विख्यात है। चित्रकारी व मूर्तियों के निर्माण ने इन मन्दिरों की शोभा को और अधिक बढ़ा दिया।

(4) धर्म (Religion)

चोल शासक शैव थे। इसी कारण इस क्षेत्र में इस धर्म की प्रधानता रही। चोल शासकों की अन्य धर्मों के प्रति नीति भी उदार थी। वैष्णव, बौद्ध व जैन धर्म को उन्होंने दान दिया था। राजाराज प्रथम ने शैव होते हुए भी वैष्णव मन्दिर का निर्माण करवाया व बौद्ध विहार की स्थापना करवाई। चोलों के शासन काल में कर्मकाण्ड को कम महत्व दिया जाता था। राजाधिराज ही मात्र ऐसा शासक था जिसने अश्वमेघ यज्ञ किया। तीर्थयात्रा को शासक व आमजन काफी महत्व देते थे। जितने भी मन्दिर इस काल में बने उनमें शैव व वैष्णव देवताओं के अतिरिक्त चोल शासकों व रानियों की मूर्तियाँ भी लगी होती थीं। लोग उनकी उपासना भी देवी-देवताओं की तरह ही करते थे। वैष्णव अलवार एवं शिव नायनार अपने सिद्धांतों की धारणा स्वतन्त्र ढंग से करते थे। इस तरह से इनके काल में हर धर्म के लोग अपना प्रचार कर सकते थे।

अन्त में हम कह सकते हैं कि पूर्व मध्यकाल में स्थापित चोल राज्य का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक महत्व काफी अधिक है। राजनीतिक तौर पर इन्होंने सम्पूर्ण दक्षिण क्षेत्र को लगभग 400 ई० तक एकता के सूत्र में बाँधे रखा था। सांस्कृतिक क्षेत्र में धर्म, कला व शासन-प्रबन्ध के क्षेत्र में इन्होंने उच्च कोटि की व्यवस्था स्थापित की | यही कारण है कि इस दौरान जहाँ उत्तर भारत में संघर्ष व अस्थिरता थी वहीं दक्षिण भारत में चोल-वंश के शासक प्रजा हितार्थ कार्य कर आम जनता के कष्टों को कम करने का प्रयास कर रहे थे |

यह भी पढ़ें

गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल

सल्तनत काल / Saltnat Kaal ( 1206 ईo – 1526 ईo )

दिल्ली सल्तनत का संस्थापक : इल्तुतमिश

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण

सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला

सल्तनत कालीन अर्थव्यवस्था

महमूद गजनवी के आक्रमण ( Mahmud Ghazanavi’s Invassions )

मुहम्मद गौरी के आक्रमण ( Mohammed Gauri’s Invassions )

बलबन की रक्त और लौह की नीति

अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं ( Alauddin Khilji’s Military Achievements )

अलाउद्दीन खिलजी के सुधार

मुहम्मद तुगलक की हवाई योजनाएं

फिरोज तुगलक के सुधार

सूफी आंदोलन ( Sufi Movement )

भक्ति आंदोलन : उद्भव एवं विकास ( Bhakti Andolan : Udbhav Evam Vikas )

Leave a Comment

error: Content is proteced protected !!