‘पद्मावत’ का महाकाव्यत्व ( Padmavat Ka Mahakavyatv )

‘पद्मावत’ ( Padmavat ) मालिक मुहम्मद जायसी ( Malik Mohammad Jaysi ) द्वारा रचित सर्वाधिक प्रसिद्ध सूफी महाकाव्य है | तथापि इस रचना के काव्य-रूप को लेकर विद्वानों में मतभेद है | वस्तुत: उन्होंने अपना काव्य -ग्रन्थ में भारतीय प्रबंध-काव्य शैली व मनसवी शैली के ; दोनों का निर्वहन किया है | इसके साथ-साथ उन्होंने पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रबंध कार्यों के लक्षणों का भी कुछ मात्रा में अनुकरण किया है |

भारतीय काव्यशास्त्र, मनसवी शैली तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र सिद्धांत ; इन तीनों के लक्षणों के आधार पर पद्मावत के काव्य-रूप अथवा महाकाव्यत्व पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है

भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा में विविध विद्वानों ने महाकाव्य के जिन लक्षणों का उल्लेख किया है आचार्य विश्वनाथ ने प्रायः उन सभी लक्षणों को अपने मत में समुचित स्थान देते हुए महाकाव्य के निम्नांकित लक्षण ( Mahakavya Ke Lakshan ) घोषित किए हैं-

(क) महाकाव्य की कथा सर्गबद्ध होती है।

(ख) इसमें एक नायक होता है जो देवता अथवा धीरोदात्त गुणों से ओत-प्रोत उच्च क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुआ क्षत्रिय होता है।

(ग) श्रृंगार, वीर अथवा शांत रसों में से कोई एक रस महाकाव्य का अंगी रस होता है |

(घ) महाकाव्य की कथावस्तु में नाट्य सन्धियों का निर्वाह किया जाता है।

(ड.) महाकाव्य का इतिवृत्त (कथा) या तो इतिहास प्रसिद्ध होता है अथवा सज्जनों के चरित्र पर आधारित होता है।

(च) महाकाव्य के आरंभ में मंगलाचरण की योजना की जाती है।

(छ) इसमें यत्र-तत्र दुष्टों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा की जाती है।

(ज) इसके एक सर्ग में प्रायः एक ही छन्द अपनाया जाता है, जिसे अन्त में परिणत कर देते हैं। सर्ग के अन्त में आगामी सर्ग की कथा की सूचना दी जाती है।

(झ) महाकाव्य में कम से कम आठ सर्ग होने चाहिएँ ।

(ण) इसमें संध्या, सूर्य, चन्द्रमा रात्रि, अंधकार, दिन प्रातःकाल, मध्याह्न, संयोग-वियोग, ऋतु, पर्वत, वन, समुद्र, नदी, संग्राम आदि का वर्णन होता है।

(ट) सर्गों का नामकरण सर्गों की कथा के अनुरूप और ग्रन्थ का नामकरण नायक के नाम या कृति की कथानुरूप किया जाता है |

यदि पाश्चातय महाकाव्य के लक्षणों पर दृष्टिपात किया जाए तो वे भी भारतीय महाकाव्य के लक्षणों से पर्याप्त साम्य रखते हैं। ‘काव्य के रूप’ शीर्षक ग्रंथ में गुलाबराय ने पाश्चात्य काव्य – शास्त्र में महाकाव्य (Epic) के निम्नलिखित लक्षणों का उल्लेख किया है —

(क) महाकाव्य एक प्रकथन प्रधान (Narrative) विशालकाय काव्य-रचना है।

(ख) इसमें जातीय भाव की प्रधानता होती है, व्यक्ति की नहीं, इसलिए इसमें प्रायः कोई जातीय संघर्ष भी दिखाया जाता है।

(ग) इसका विषय परम्परा से प्रतिष्ठित और लोकप्रिय होता है।

(घ) महाकाव्य के पात्र शौर्य-गुण प्रधान होते हैं |

(ड.) इसमें नायक के इर्द-गिर्द सारी कथा एक सूत्र में बंधी रहती है।

(च) महाकाव्य की शैली में एक विशेष प्रकार की शालीनता और उत्कृष्टता रहती है।

(छ) इसमें एक ही छन्द का प्रयोग रहता है।

डॉ० शंभूनाथ सिंह ने अपने ‘महाकाव्य का स्वरूप विकास’ शीर्षक शोधग्रन्थ में महाकाव्य के निम्नलिखित सार्वभौम सिद्धान्त स्वीकार किए गए हैं जिनके आधार पर उन्होंने पद्मावत को अलंकृत व साहित्यिक महाकाव्य स्वीकार किया है —

(1) महदुद्देश्य, महत्प्रेरणा और महती काव्य प्रतिभा ।

(2) गुरुत्व, गांभीर्य और महत्व ।

(3) महत्कार्य और युग-जीवन के विविध चित्र

(4) सुसंगठित और जीवित कथानक

(5) महत्वपूर्ण नायक तथा अन्य चरित्र ।

(6) गरिमामयी उदात्त शैली।

(7) प्रभावान्विति और गंभीर रस।

(8) अनवरुद्ध जीवनीशक्ति और सशक्त प्राणवत्ता ।

यहाँ इन्हीं तत्वों की दृष्टि से पद्मावत के महाकाव्य पर आगे विचार किया जा रहा है।

(1) महदुद्देश्य, महत्वप्रेरणा और महती काव्य-प्रतिभा

महान् काव्य-प्रतिभा के अभाव में महाकाव्य की रचना करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती और इस तथ्य में संदेह नहीं है कि अट्ठावन खण्डों के वृहदकाय तथा उत्तम काव्यगुणों से ओत-प्रोत पद्मावत का प्रणयन करने वाले जायसी वास्तव में ही महान काव्य प्रतिभा के धनी थे।

काव्य-प्रेरणा के रूप में अनेक तत्वों का हाथ माना जा सकता है। कुछ लोग यश के लिए काव्य-रचना करते हैं तो कुछ धनार्जन के लिए कुछ पाठकों को व्यवहार ज्ञान की शिक्षा देना चाहते हैं तो कुछ काव्य-रचना द्वारा अपने अमंगलों से छुटकारा पाना चाहते हैं। जायसी के संदर्भ में कहा जा सकता है कि उनकी प्रेरणा और उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति और साधना पद्धतियों में समन्वय करने का प्रयास रहा है। वह सत्य है कि पद्मावत में जायसी ने स्थल-स्थल पर सूफी मान्यताओं को अन्य धर्मों की मान्यताओं के स्थान पर अधिक बलपूर्वक प्रतिष्ठित किया है तथापि हिन्दू देवी-देवताओं, महापुरुषों और धार्मिक मान्यताओं का भी उन्होंने श्रद्धापूर्वक उल्लेख और चित्रण किया है, यही नहीं वे तो यहाँ तक कहते हैं-

“विधिना के मारणग हैं तेते, सरग नखत तन रोवाँ जेते ।”

ग्रन्थ-रचना की मूल-प्रेरणा ‘यशार्जन’ (काव्यं यशसे) की भावना रही है, इस तथ्य का उल्लेख स्वयं जायसी के ही निम्नांकित उद्गारों से मिल जाता है-

“काहूँ न जगत जस बेचा, काहु न लीन्ह जस मोल । जो पढ़े कहानी, हम यह सुमिरै दुइ बोल।”

जहाँ तक पद्मावत के उद्देश्य का सम्बन्ध है वह निश्चय ही उदात्त और भव्य है। जीवन के पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से पद्मावत में यद्यपि धर्म, अर्थ और काम की भी सिद्धि दिखाई गई है तो भी उसका विशेष ध्येय ‘मोक्ष’ का मार्ग बताना रहा है। जिसे जायसी अपने शब्दों में परम सत्त के प्रेम की ‘पीर’ मानते हैं।

कवि ने ग्रन्थ के अन्त में इस तथ्य को स्वयं ही उद्घाटित कर दिया कि मैंने रत्नसेन, पद्मावती, राघवचेतन आदि पात्रों के माध्यम से जिस कथा को कृति में निबद्ध किया है, वह तो मेरे उद्देश्य के निर्वहण का माध्यम मात्र है, जबकि वस्तुस्थिति यह है–

“चौदह भुवन जो तर उपराही ते सब मानुष के घट माहीं । तन चितउर, मन राजा कीन्हा हिय सिंघल बुधि पदमिनी चीन्हा ।

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गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निर्गुन पावा ।

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नागमती यह दुनिया धंधा बाँचा मोह न एहि चित बँधा।

( 2 ) महत्कार्य और युग-जीवन के विविध चित्र

पद्मावत का मुख्य या मूल कार्य क्या है, यह विषय किंचित् विवादास्पद है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पद्मावती और नागमती के सती होने को मूल कार्य माना है। कवि का उददेश्य आध्यात्मिक प्रेम का निरूपण करना था। तदर्थ संसार की असारता को दिखाना आवश्यक था, जायसी ने सती खंड में इस प्रकार दिखाया है —

“रातीं पिय के नेह गई, सरग भएउ रतनार | जो रे उवा सो अथवा, रहा न कोई संसार ||”

‘जन्म लेने वाले की मृत्यु अनिवार्य है’ के तथ्य के साथ ही जगत् की असारता के तथ्य को विजयोन्मत्त अलाउद्दीन के माध्य से व्यक्त कराना और भी अधिक प्रभावशाली बन पड़ा है- “छार उठाइ लीन्ह एक मूठी दीन्ह उड़ाइ पिरथमी झूठी।”

(3) सुसंगठित और जीवंत कथानक

सुसंगठित और जीवंत कथानक की दृष्टि से भी पद्मावत सफल महाकाव्यों में सम्मिलित किया जा सकता है। सम्पूर्ण कथानक कृति नायक और नायिका रत्नसेन तथा पद्मावती से किसी-न-किसी प्रकार सुसम्बद्ध है। यद्यपि यत्र-तत्र नाम- परिगणात्मक शैली में वृक्षादि या खाद्य-पदार्थों का वर्णन करने के कारण कथानक में कहीं-कहीं शिथिलता आ गई है. तथापि अधिकांशतः वह जीवन्त प्रवाह से ओत-प्रोत है। मूल कथानक के साथ-साथ आध्यात्मिक अर्थ की भी प्रतीति कराते चलना निस्सन्देह एक कठिन कार्य था, किन्तु जायसी ने आध्यात्मिक तथ्यों की व्यंजना के चक्कर में फँसकर मूलकथानक की गति में अवरोध को बचाने का भरसक प्रयास किया है।

(4) महान अथवा उदात्त चरित्र

पद्मावत के नायक रत्नसेन को निष्ठा, साहस और धैर्य से ओतप्रोत दिखाया गया है। अन्य पात्रों में पद्मावती का चरित्र भी औदात्यपूर्ण है। सपत्नी के रूप में नागमती और पद्मावती के कलह को यदि छोड़ दिया जाए, तो दोनों ही स्त्री पात्र चारित्रिक औदात्य से ओत-प्रोत है। पद्मावती को फुसलाने देवपाल और अलाउद्दीन की दूतियाँ आती है किन्तु उसको सद्गृहिणी के मार्ग पर से च्युत नहीं कर पातीं। पति की मृत्यु पर सती होकर वह तत्कालीन नारियों के आदर्श का अनुकरण करती है। विरहिणी नागमती के निम्नांकित उद्गार चारित्रिक औदात्य, पति-निष्ठा और भारतीय नारियों के आदर्श चरित्र का उत्तम उदाहरण हैं —

“यहु तन जारौँ छारि कै, कहौँ कि पवन उड़ाय | मकु तेहि मारग उडि परै, कंत धरै जहँ पाव ||”

अपने नायक के औदात्य की रक्षा करने के हेतु ही जायसी ने कुछ नई उद्भावनायें की है, जैसे रत्नसेन को अलाउद्दीन के हाथों वीरगति पाते न दिखाकर देवपाल से युद्ध के फलस्वरूप मृत्यु का ग्रास बनते चित्रित करना आदि। पार्वती और लक्ष्मी द्वारा ली गई परीक्षाओं में रत्नसेन को सफल दिखाकर उसकी एक निष्ठा या पद्मावती-विषयक अनन्य निष्ठा को रेखांकित किया गया है।

( 5 ) गरिमामयी उदात्त शैली

पद्मावत में जायसी ने फारसी की मनसवी शैली और प्राकृत प्रेमाख्यानों की शैली का सुन्दर समन्वय किया है। जायसी की शैली की गरिमा का एक प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इसी शैली में गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी अमर कृति ‘रामचरितमानस’ की रचना की है। इश्के – माशूकी के साथ-साथ इश्के-हकीकी अर्थात् लौकिक प्रेम कथा के माध्यम से आलौकिक प्रेम की भी व्यंजना कराते जाना जायसी की गरिमामयी शैली के कारण ही संभव हो सका है। इस उद्देश्य की पूर्ति कवि की सूक्ष्म और संकेत वाहिनी शैली के माध्यम से ही हुई है।

डॉo मनमोहन गौतम के शब्दों में-

“पद्मावत की शैली में नाना भावों का वर्णन करने की क्षमता है तथा नाना रूपाप्रकृति और वैविध्यपूर्ण जगत् के कार्य-कलापों का अंकन करने की सामर्थ्य है। सामान्यतया शैली की यह भव्यता, उसकी यह गरिमा आद्योपांत बनी रहती है। किन्तु कुछ स्थानों पर जहाँ कवि ने नाम परिगणनात्मक शैली को ग्रहण किया है, जैसे सिंहलद्वीप वर्णन खण्ड के अंतर्गत पेड़ों और पक्षियों के वर्णन में तथा रत्नसेन – पद्मावती विवाह खंड और अलाउद्दीन भोज-खण्ड के अन्तर्गत व्यंजनों के वर्णन में शैली की यह गरिमा नष्ट हो गई है, ऐसे स्थलों पर वर्णन गद्यात्यमक से प्रतीत होते हैं। ऐसे स्थल अधिक नहीं है।”

अलंकारों का स्वाभाविक सौन्दर्य पद्मावत में प्रस्फुटित हुआ है। अलंकरण का सचेष्ट प्रयास जायसी में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। पद्मावत में अलंकारों का सौन्दर्य अंगभूत सौन्दर्य है, पृथक् सौन्दर्य नहीं।

(6) प्रभावान्विति और गम्भीर रस व्यंजना

डॉ० मनमोहन गौतम ने इस दृष्टि से पद्मावत को सफल महाकाव्य बताते हुए कहा है-

“पद्मावत के पूर्वार्द्ध में प्रेम कथा बढ़ती जाती है। विवाह के उपरांत सुख के विस्तृत संदर्भ हैं। किन्तु उत्तरार्द्ध में क्रमशः जीवन सुख में उतार आता जाता है। रत्नसेन का पकड़ा जाना, कालकोठरी – में बंद करके उसकी भयंकर यातनाएँ, युद्ध में गोरा की मृत्यु, देवपाल के हाथ रत्नसेन की मृत्यु क्रमशः निगति की ओर ले जाती है। अंत में पद्मावती और नागमती का सती होना और क्षत्राणियों का जौहर, बादल की मृत्यु और अलाउद्दीन का चित्तौड़ जीतने के उपरान्त निराश हों जाना आदि पाश्चातय ढंग के कार्यावस्था-अवसन (Catastrophy) का रूप लेते हैं। फिर भी पाश्चात्य काव्यों की अशांति और वेदना के दर्शन यहाँ नहीं होते। यहाँ शांतिपूर्ण गंभीरता और आध्यात्मिक आनन्द की झलक मिलती है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार पूर्वार्द्ध में गम्भीर प्रभावान्विति मिलती है उसी प्रकार अंत में भी |

रस व्यंजना की दृष्टि से पद्मावत् महत्वपूर्ण है। प्रेम कथा होते हुए भी ग्रन्थ में श्रृंगार अंगीरस के रूप में नहीं प्राप्त होता। नख-शिख एवं संयोजन के अनेक अवसर प्रस्तुत किए गए हैं फिर भी अंत में करुणा- प्लावित शांत रस की ही अभिव्यक्ति की गई है। अंतिम दृश्य में दोनों रानियाँ शांत भाव से ज्वालाओं का आलिंगन करती हैं। वे कहती हैं-

“जियत कंत तुम्ह हम कंठ लाई । मुए कंठ नहिं छोड़हिं सांई और जो गांठ कंत तुम जोरी। आदि अंत दिन्हि जाइ न छोरी । लागी कंठ आगि दें होरी। हारि भई, जरि अंग न मोरी।”

कवि की दृष्टि में जीवन का अन्त करुण – क्रन्दन नहीं, शांति है। इस प्रकार ग्रन्थ का अंगीरस शांत ही है। अंग रूप में श्रृंगार, करुण, वीर, भयानक, वीभत्स, आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना है। अतः ग्रन्थ में गांभीर्य की स्थिति अनिवार्य रूप से विद्यमान रहती है |

उपर्युक्त विवेचन के प्रकाश में कहा जा सकता है कि महत्प्रेरणा, महान् उद्देश्य, महत्कार्य और युग-जीवन के विविध चित्रों के चित्रण, गरिमामयी उदात्त शैली, सुसंगठित और जीवन्त कथानक, प्रभावान्विति और गंभीर रस योजना की दृष्टि से जो महाकाव्य के सार्वभौम लक्षण स्वीकार किये जाते हैं, उनकी कसौटी पर पद्मावत एक सफल महाकाव्य है।

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