जयद्रथ वध : सार / कथ्य / प्रतिपाद्य

‘जयद्रथ वध’ नामक कविता मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कविता है। इसमें कवि ने जयद्रथ के वध तथा उसके पश्चात पांडव सेना में विजयोल्लास का चित्रण किया है। जब अभिमन्यु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में अकेला प्रवेश कर गया तब कौरव सेना के साथ योद्धाओं ने अभिमन्यु को चारों तरफ से घेर लिया | जयद्रथ ने अभिमन्यु का वध किया |

अभिमन्यु की मृत्यु से आहत अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि कल सूर्यास्त से पूर्व जयद्रथ का वध कर देगा अन्यथा अग्नि में जलकर मर जाएगा। इसके बाद कौरव सेना ने जयद्रथ को कहीं दूर छिपा दिया किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी लीला से सूर्य को बादलों में छिपा दिया। इसे देखकर कौरव दल अर्जुन को अग्नि में जलते हुए देखने के लिए जयद्रथ के साथ वहाँ पहुँच गए। तब प्रभु श्री कृष्ण की लीला से बादल ओझल हो गए और सूर्य के दर्शन हुए। अर्जुन ने गांडीव से जयद्रथ का वध कर दिया।

प्रस्तुत कविता में जयद्रथ के वध के पश्चात के दृश्य का वर्णन है | जयद्रथ का वध करने के पश्चात पांडव पक्ष विजयोल्लास से आनंदित होकर राजा युधिष्ठिर के पास पहुँचा। युधिष्ठिर ने उनके वहाँ पहुँचने पर अपनी विजय का आभास हो गया। तब अर्जुन ने उनको प्रणाम किया। युधिष्ठिर ने उनके सिर पर हाथ रख सुख दिया। उस समय सभी लोग बहुत उत्सुक थे। श्री कृष्ण ने विजय का श्रेय महाराज युधिष्ठिर को दिया। उन्होंने कहा कि युद्ध क्षेत्र में जयद्रथ का वध हुआ तथा अर्जुन प्रतिज्ञा मुक्त हो गए। उन्होंने अर्जुन को धरोहर रूप में युधिष्ठिर को सौंप दिया। श्रीकृष्ण के मधुर वचनों को सुनकर समस्त पांडव पक्ष आनंद विभोर हो उठा। राजा युधिष्ठिर भी अत्यंत आनंदित हो उठे और अचानक मुख से कुछ भी न कह सके। मानो भक्तिभाव से उनकी वाणी थक गई हो। उन्होंने श्री कृष्ण को कहा कि वे तो स्वयं जगतस्वामी हैं। तत्पश्चात कविता में श्री कृष्ण की वंदना करने लगते हैं और कहते हैं कि जब वे स्वयं इच्छा रखते हैं तो फिर अवश्य ही जयद्रथ का वध होगा। हे माधव। तुम्हें जो इष्ट होता है वही सदैव घटित होता है। संसार के समस्त ज्ञानी, विवेकी, सभी आपको जानते हैं। इसीलिए यह सब केवल तुम्हारी ही लीला है। भविष्य में भी यहाँ सब कुछ आपकी कृपा से होगा। इस जगत में मनुष्य तो कारण मात्र है कर्ता सबके आपकी ही हैं। यहाँ केवल निर्गुण निराकार निर्विकार प्रभु की प्राप्ति करने पर सब इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। उनके बिना मानव भटकता रहता है। उनके चरण कमलों के अमृत को जानने वाले लोग मुक्ति को भी अनदेखा कर देते हैं। वही नित्य, सर्वशक्तिमान, अनुपम, अगोचर, अव्यक्त हैं। वे ही ध्येय, गेय, अज्ञेय, भववि-मोचक हैं। वे ही कर्ता, भर्त्ता और हर्त्ता हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और फल उनकी दृष्टि के फल हैं। प्रभु के उपकार के लिए हम कुछ भी देने में असमर्थ हैं। वही संपूर्ण है। वे निराकार, निर्विकार, भक्त वत्सल हैं। वे ही अद्भुत सृष्टि के रचनाकार हैं। वे ही निर्गुण, निराकार परन्तु साकार सिद्ध हैं। वे ही सर्वेश्वर हैं। सृष्टि में संत-मुनि सब निसदिन प्रभु का ही स्मरण करते हैं। वे ही वेदों में प्रसिद्ध हैं। वे ही सबके आराध्य देव हैं। इस जगत में उनसे बड़ा कोई भी नहीं है। सबके वे ही निर्माता हैं और सभी प्राणी उनके ऋणी हैं | इस प्रकार प्रभु बार-बार उनकी वंदना करते हुए उनके चरणों में झुक पड़ते हैं | यह एक भक्त का भगवान से मिलन था अत्यंत अद्भुत और विचित्र था | भक्त और प्रभु के मिलन का ऐसा चित्र अन्यत्र दुर्लभ है वास्तव में भारत एक अनूठा देश है जिसकी कहीं कोई समता नहीं मिलती |

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