मानस-भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती –
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती |
हो भद्रभावोदभाविनी वह भारती हे भगवते !
सीतापते ! सीतापते !! गीतामते ! गीतामते || (1)
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘भारत भारती’ नामक कविता से अवतरित है | इस कविता के रचयिता राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी हैं | इन पंक्तियों में कवि ने भारत के उत्थानमय अतीत एवं पतनमय वर्तमान का वर्णन किया है |
व्याख्या – कवि का कथन है कि हे प्रभु ! श्रेष्ठ पुरूष अपने मन मंदिर में जिसकी वंदना करते हैं ; भारतवर्ष में उसी मां भारती का स्वर गूंजने लगे | हे प्रभु ! वह मां भारती सद्भाव से युक्त हो जिन्हें पढ़कर व सुनकर भारतवासी भी सद्भाव ग्रहण कर सकें | उनमें सद्बुद्धि का विकास हो | हे प्रभु राम, हे प्रभु कुछ ऐसा वरदान दे दीजिये |
विशेष – (1) भारतीय साहित्य परंपरा का वर्णन करते हुए कविता के आरंभ में किया गया है |
(2) संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
हां लेखिनी, हृत्पत्र पर, लिखनी तुझे है यह कथा,
दृक्कालिमा में डूबकर, तैयार होकर सर्वथा |
स्वच्छंदता से कर तुझे करने पड़े प्रस्ताव जो,
जग जायें तेरी नोंक से सोए हुए हों भाव जो ||
संसार में किसका समय, है एक सा रहता सदा,
है निशि-दिवा-सी घूमती सर्वत्र विपदा-संपदा |
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही ;
जो आज उत्सव मग्न हैं, कल शोक से रोता वही || (2)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – कवि अपनी लेखनी को संबोधित करते हुए कहता है कि हे मेरी लेखनी ! तुझे भारतवर्ष के वर्तमान की कथा हृदय रूपी पत्र पर लिखनी होगी | तुम्हें पूरी तरह से दृक्कालिमा ( आँखों की कालिमा /काजल / स्याही ) में डूब कर और पूरी तरह से तैयार होकर यह कार्य करना होगा | तुम्हें स्वच्छंदतापूर्वक कुछ ऐसे प्रस्ताव करने पड़ेंगे अर्थात ऐसे विषयों का उल्लेख करना पड़ेगा जिन्हें सुनकर भारतीय जनता में सोए हुए भाव जागृत हो जायें | कवि कहता है कि इस संसार में किसी का भी समय एक समान नहीं रहता | सम्पदा और विपदा तो रात और दिन की भांति घूमते रहते हैं | आज जो व्यक्ति अनाथ है कल वही दूसरों का स्वामी बन सकता है ; आज जो प्रसन्नता पूर्वक उत्सव मनाने में लीन हैं कल वही शोक-ग्रस्त हो विलाप कर सकते हैं |
विशेष – (1) कवि ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि इस संसार में परिस्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहती |
(2) तत्सम शब्दावली का प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
वह सद्गुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी |
इस दुर्दशा का स्वप्न में भी, क्या हमें कुछ ध्यान था?
क्या इस पतन ही को हमारा यह अतुल उत्थान था?
उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी |
हंसते प्रथम जो पद्म हैं तम-पंक में फंसते वही,
मुरझे पड़े रहते कुमुद जो, अंत में हंसते वही || (3)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भारतवर्ष के गौरवमयी अतीत का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि एक समय था जब चारों ओर भारतवर्ष की चर्चा थी | उसके सद्गुणों की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी | परन्तु वर्तमान में भारत की ऐसी दुर्दशा होगी इसका स्वप्न में भी कभी किसी को ध्यान नहीं था | क्या भारतवर्ष का अतुलित उत्थान पतन के लिए ही हुआ था? यह प्रकृति का नियम है कि जो आज अवनत है अर्थात पतन को प्राप्त हो रहा है वह काफी उन्नत रहा होगा इसके विपरीत जो आज उन्नति कर रहा है वह भी कभी ना कभी अवनत रहा होगा | उन्नति और अवनति प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, स्थिति व अवस्था सी सम्बद्ध है | जो कमल सबसे पहले खिलते हैं वही सबसे पहले मुरझाकर कीचड़ में मिल जाते हैं | और जो कुमुद मुरझाए हुए पड़े रहते हैं, वे अंत में खिल जाते हैं | कहने का भाव यह है कि उन्नति-अवनति, संपदा-विपदा प्रकृति का अटल नियम है |
विशेष – (1) उत्थान-पतन, सुख-दुख, संपदा-विपदा प्रकृति का अटल नियम है |
(2) भारतवर्ष के उन्नत अतीत तथा अवनत वर्तमान का वर्णन किया गया है |
(3) अनुप्रास और रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग है |
(4) भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है |
उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखंड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम में, गिरता वही मार्तंड है |
अतएव अवनति ही हमारी, कह रही उन्नति-कला,
उत्थान ही जिसका नहीं, उसका पतन ही क्या भला?
होता समुन्नती के अनंतर सोच अवनति का नहीं,
हां, सोच तो है जो किसी की, फिर न हो उन्नति कहीं |
चिंता नहीं जो भी व्योम-विस्तृत चंद्रिका का ह्रास हो,
चिंता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो ||
है ठीक ऐसी ही दशा, हतभाग्य भारतवर्ष की,
कब से इतिश्री हो चुकी, इसके अखिल उत्कर्ष की |
पर सोच है केवल यही, यह नित्य गिरता ही गया,
जब से फिरा है दैव इससे, नित्य फिरता ही गया || (4)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – कवि का कथन है कि उन्नति-अवनति प्रकृति का अटल नियम है | जो सूर्य आकाश में सर्वप्रथम उदित होता है वही पतन को भी प्राप्त होता है | कवि भारतवर्ष के संदर्भ में कहता है कि हमारी अवनति ही हमारी उन्नति की कला कह रही है | जिसका कभी उत्थान ही नहीं हुआ उसका पतन क्या होगा | उन्नति के समय अवनति की चिंता नहीं होती | चिंता का विषय है तो तब है यदि अवनति होने के पश्चात पुन: उन्नति न हो पाये | जब इस विशाल आकाश में चंद्रमा का पतन होता है तो इसकी चिंता नहीं क्योंकि कुछ दिनों के पश्चात चंद्रमा का पुन: विकास हो जाएगा और चंद्रमा की रोशनी में आकाश और पृथ्वी फिर से जगमगा उठेंगे ; चिंता तो तब होती है जब चंद्रमा का नवीन विकास न हो | भारतवर्ष के दुर्भाग्य की एक ऐसी ही दशा है | इसका चरम उत्कर्ष कभी का समाप्त हो चुका है और चिंता इस बात की है कि वह प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है अर्थात भारत का निरंतर पतन हो रहा है | जबसे ईश्वर इस से विमुख हुआ है तब से निरंतर विमुख ही बना हुआ है |
विशेष – (1) उन्नति और अवनति प्रकृति का अटल नियम है |
(2) कवि ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि अवनति के पश्चात भारत का पुनरुत्थान न हो पाना चिंतनीय है |
(3) अनुप्रास, अन्त्यानुप्रास और दृष्टांत अलंकार है |
(4) तत्सम प्रधान शब्दावली है |
(5) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
यह नियम है, उद्यान में, पककर गिरे पत्ते जहां,
प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहां |
पर हाय ! इस उद्यान का, कुछ दूसरा ही हाल है,
पतझड़ कहें या सुखना, कायापलट या काल है?
अनुकूल शोभा-मूल सुरभीत, फुल वे कुम्हला गये,
फलते कहां हैं अब यहां, वे फल रसाल नये-नये ?
बस इस विशालोद्यान में, अब झाड़ या झंखाड़ हैं,
तनु सूखकर कांटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ हैं || (5)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – कवि कहता है कि प्रकृति का यह नियम है कि उद्यान में जहां पुराने पत्ते झड़ कर गिर पड़ते हैं उनके स्थान पर नए-नए कोमल पत्ते लहलहाने लगते हैं अर्थात पुराने पत्तों का स्थान नए पत्ते ले लेते हैं परंतु अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि इस भारतवर्ष रूपी उद्यान की दशा इससे भिन्न है | इसकी वर्तमान दशा को पतझड़ कहें या फिर इसका सूख जाना? काया पलट जाना कहें या फिर इसकी मृत्यु होना कहें? अब इस भारतवर्ष रूपी उद्यान के शोभा युक्त सुगंधित फूल कुम्हला गये हैं अर्थात भारतवर्ष को शोभा प्रदान करने वाले तत्व अब नहीं रहे | इस उद्यान में रस से युक्त फल उत्पन्न नहीं होते अर्थात अब भारतवर्ष रूपी उद्यान में आनंददायक संकल्पनाओं, भावों या विचारों का जन्म नहीं होता | अब इस उद्यान में केवल झाड़ और झंखाड़ है अर्थात भारतवर्ष में अब केवल बुरे विचार, बुरी संकल्पनायें और बुरे रीति-रिवाज ही पनप रहे हैं | ऐसा लगता है कि जैसे अब इस भारतवर्ष रूपी उद्यान का शरीर पूरी तरह से सूख चुका है और हार्ड मात्र ही शेष रह गया है |
विशेष – (1) निरंतर पतन की ओर अग्रसर भारतवर्ष की दशा पर चिंता व्यक्त की गई |
(2) तत्सम शब्दावली की प्रधानता है |
(3) अनुप्रास, अन्त्यानुप्रास, रूपक और संदेह अलंकार है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
दृढ दु:ख दावानल इसे, सब और घेर जला रहा,
तिस पर अदृष्टाकाश उलटा, विपद-वज्र चला रहा |
यद्यपि बुझा सकता हमारा नेत्र-जल इस आग को,
पर धिक् ! हमारे स्वार्थमय, सूखे हुए अनुराग को |
सहृदय जनों के चित निर्मल कुड़क जाकर कांच से –
होते दया के वश द्रवित हैं तप्त को इस आंच से |
चिंता कभी भावी दशा की, वर्तमान व्यथा कभी,
करती तथा चंचल उन्हें, है भूतकाल कथा कभी ||
जो इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहां,
क्या कुछ सजग होंगे सखे ! उसको सुनेंगे जो जहां?
कवि के कठिनतर कर्म की, करते नहीं हम धृष्टता,
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता? (6)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भारतवर्ष की तत्कालीन दश पर चिंता व्यक्त करते हुए कवि कहता है कि कठोर दुख जंगल की आग की भांति इसे निरंतर जला रहा है | इतना ही नहीं ईश्वर ( अदृष्टाकाश ) भी दुःखों की बिजली गिरा रहा है | कवि कहता है कि यद्यपि इस आग को हमारी आंखों का अश्रुजल बुझा सकता है परंतु भारतवर्ष के लोगों के मन में स्वार्थमय सूखा अनुराग है अर्थात भारतवासी सच्चे मन से देश के लिए आंसू भी नहीं बहा रहे हैं और देश के प्रति उनकी चिंता केवल दिखावा है | भारत के सहृदय लोगों के निर्मल हृदय दुख रूपी आग के कारण दया के वश द्रवित अवश्य होते हैं | ऐसे लोगों को कभी भारत के भविष्य को लेकर और कभी वर्तमान-पीड़ा को लेकर चिंता अवश्य होती है | इस विषय पर चिंता अवश्य करते हैं कि प्राचीन काल में भारत कितना उन्नत था और वर्तमान समय में कितना अधिक पतन को प्राप्त है | अंत में कवि कहता है कि कवि की वाणी को सुनकर क्या कुछ लोग सजग होंगे | कवि कहता है कि इस विषय पर आज हम जो कुछ कह रहे हैं क्या उसे वहां सुनकर लोग सचेत होंगे अर्थात भारतवासी भारत की शोचनीय दशा को सुधारने के लिए प्रयासरत होंगे | कवि कहता है कि कवि का जो कठिन से कठिन कर्म है, मैं उसकी अवहेलना नहीं करता | अर्थात एक सच्चा कवि होने के नाते जो मेरा कर्तव्य है मैं उसे पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ | परंतु कवि कहता है कि क्या उत्कृष्ट विषय से पाठकों के विचार भी उत्कृष्ट होंगे अर्थात क्या महान और प्रेरणादायक विचारों से पाठकों भी प्रेरणा लेकर अपनी जीवन शैली में कुछ परिवर्तन लाएंगे? कहने का भाव यह है कि कवि चाहता है कि उसकी रचना को पढ़कर भारतवासी पुन: भारत का उत्थान करने के लिए कृत संकल्प हो जाएं |
विशेष – (1) कवि ने तत्कालीन भारत की दशा का यथार्थ चित्रण किया है |
(2) कवि अपने रचना कर्म के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्र-हित के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित करना चाहता है |
(3) तत्सम प्रधान शब्दावली का प्रयोग है |
(4) अनुप्रास, अन्त्यानुप्रास और रूपक अलंकारों का सुंदर प्रयोग है |
(5) भाषा सरल, सहज व प्रवाहमयी है |
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