एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ |
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ |
वह दो खंभों के बीच है |
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ |
वह एक खंभे से दूसरे खंबे तक का नाच है |
दो खंभों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ |
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है,
जिसमें लोग मेरा नाच देखते हैं |
न मुझे देखते हैं जो नाचता है,
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ |
न खंभों को जिस पर रस्सी तनी है,
न रोशनी को जिसमें नाच दीखता है :
लोग सिर्फ नाच देखते हैं | 1️⃣
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित अज्ञेय द्वारा रचित ‘नाच’ कविता से अवतरित है | प्रस्तुत कविता में कवि ने रस्सी पर नाचने वाले नट के माध्यम से जन्म और मृत्यु के दो खंभों पर बंधी जीवन रूपी रस्सी पर चलने वाले मनुष्य का चित्रण करके उसकी मन:स्थिति और उसके प्रति समाज के दृष्टिकोण को अभिव्यक्त किया है |
व्याख्या — कवि कहता है कि वह एक तनी हुई रस्सी पर नाच रहा है | वह तनी हुई रस्सी दो खंभों के बीच में बंधी है | कवि उस रस्सी पर एक खंभे से दूसरे खंभे तक नाचता है | उस नाचने वाले व्यक्ति अर्थात कवि पर तीव्र प्रकाश पड़ता है | जब वह व्यक्ति अर्थात कवि रस्सी पर नाचता है तो लोग न तो नाचने वाले को देखते हैं और न ही उस रस्सी को देखते हैं जिस पर वह नाच रहा है और न ही उन खंभों को देखते हैं जिन पर रस्सी बंधी हुई है ; वह उस रोशनी को भी नहीं देखते जिसके कारण वह नाच दिखाई दे रहा है | लोगों का ध्यान इन बातों पर नहीं होता, वह केवल नाच देखते हैं |
इस प्रकार इस रूपक के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है की जन्म और मृत्यु रूपी दो खंभों के बीच में तनी हुई जीवन रूपी रस्सी पर मनुष्य जीवन भर नाचता रहता है | लोग उस व्यक्ति की सभी बातों को अनदेखा करते हुए केवल उसके जीवन के कार्यकलापों और उसकी उपलब्धियों को देखते हैं |
विशेष — (1) कवि के अनुसार समाज के लिए व्यक्ति के साधन एवं कार्य गौण हैं, केवल उसकी उपलब्धियां मायने रखती हैं |
(2) मुक्त छंद है |
(3) प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग है |
(4) भाषा सरल, सहज व भावानुकूल है |
पर मैं जो नाचता हूँ
जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
जो जिन खंभों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खंभों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ |
मैं केवल उस खंभे से इस खंभे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खंभे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाए –
पर तनाव ढीलता नहीं –
और मैं इस खंभे से उस खंभे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है |
और वह मेरा नाच जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं – नाच ! 2️⃣
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — कवि का कथन है कि वह जिस रस्सी पर नाचता है वह दो खंभों के बीच बंधी हुई है | यह रस्सी ही नाचने वाले को आधार प्रदान करती है | उस रस्सी पर रोशनी डाली जाती है जिससे कि लोग नाचने वाले को साफ देख सकें | नाच देखने वाले लोग न तो उस नाचने वाले व्यक्ति को देखते हैं, न खंभों को देखते हैं और न रस्सी को ; वह तो केवल नाच देखते हैं |
नाचने वाला व्यक्ति भी नाचता नहीं है, वह केवल एक खंभे से दूसरे खंबे तक दौड़ता है | नाचने वाला चाहता है कि या तो किसी खम्भे की रस्सी खोल दी जाए ताकि रस्सी पर दौड़ने का उसका तनाव समाप्त हो जाए या इस ढील के कारण वह नाचने से मुक्त हो जाए | परंतु तनाव बना रहता है और वह तनी हुई रस्सी पर भागने के लिए मजबूर है |
कवि के अनुसार देखने वाले लोग भी न तो तनाव देखते हैं न रस्सी देखते हैं, न प्रकाश देखते हैं ; वे केवल मउसका नाच देखते हैं |
इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने जीवन और मृत्यु रूपी दो खंभों के बीच बंधी जीवन रूपी रस्सी पर नाच रहे मनुष्य का चित्रण किया है | कवि के अनुसार मनुष्य जीवन रूपी रस्सी के तनाव के कारण जीवन भर नाचता रहता है लेकिन समाज के लोग सभी चीजों को अनदेखा करते हुए केवल व्यक्ति के कार्य-कलापों और उसकी उपलब्धियों को देखते हैं |
विशेष — पूर्ववत |
‘नाच’ कविता का प्रतिपाद्य या कथ्य ( ‘Naach’ Kavita Ka Pratipadya Ya Kathya )
‘नाच’ अज्ञेय जी की एक प्रसिद्ध कविता है | इस कविता में कवि ने एक रूपक का वर्णन किया है | नट अपनी आजीविका के लिए रस्सी पर चढ़कर चलता है परंतु दर्शकों के लिए यह मात्र मनोरंजन का खेल है | कवि कहता है कि जब नाचने वाला एक तनी हुई रस्सी पर नाचता है तो वह रस्सी दो खंभों के बीच विद्यमान होती है | जिस समय नाचने वाला तनी हुई रस्सी पर नाच रहा होता है उस समय उस पर तेज रोशनी डाली जाती है ताकि लोग उसके नाच को देख सकें | नाच देखने वाले लोग न तो नाचने वाले को देखते हैं, न उस रस्सी को देखते हैं जिस पर वह नाच रहा है, न उस रोशनी को देखते हैं जिसमें वह नाच रहा है ; वह केवल नाच को देखते हैं | कहने का तात्पर्य यह है कि नाच देखने वालों की रूचि केवल नाच में है ; दोनों खंभों के बीच तनी हुई रस्सी, रस्सी पर नाच रहे व्यक्ति और उस पर पड़ रहे प्रकाश पर नहीं |
इसीलिए कवि कहता है –
न मुझे देखते हैं जो नाचता है,
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ |
न खंभों को जिस पर रस्सी तनी है,
न रोशनी को जिसमें नाच दीखता है,
लोग सिर्फ नाच देखते हैं |
इसके विपरीत नाचने वाले की मनोदशा कुछ अलग प्रकार की होती है | वास्तव में वह व्यक्ति रस्सी पर नाचता नहीं है, वह केवल एक खंभे से दूसरे खंभे पर दौड़ लगा रहा है | वह चाहता है कि दोनों खंभों में से किसी एक सिरे से रस्सी खोल दी जाए, रस्सी का तनाव ढीला हो जाए और उसका नाचने का काम समाप्त हो जाए | वह अपने काम से मुक्त होना चाहता है |
लगभग यही स्थिति आज मानव की है | वह जन्म एवं मृत्यु रूपी दो खंभों के बीच में तनी हुई जीवन रूपी रस्सी पर नाच रहा है | लोग उसके कामों को नहीं देखते, उसके जीवन को नहीं देखते और न ही जीवन-मृत्यु के बारे में सोचते हैं ; वे केवल उसकी उपलब्धियों एवं परिणामों की ओर आकर्षित हैं |
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