दुख की बदली ( Dukh Ki Badli ) : महादेवी वर्मा

मैं नीर-भरी दुख की बदली

स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,

क्रंदन में आहत विश्व हंसा,

नयनों में दीपक-से जलते,

पलकों में निर्झरिणी मचली | (1)

मेरा पग-पग संगीत-भरा,

श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,

नभ के नव रंग बुनते दुकूल,

छाया में मलय-बयार पली | (2)

में क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल,

चिंता का भार बनी अविरल,

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नवजीवन-अंकुर बन निकली ! (3)

पथ को न मलिन करना आना,

पदचिह्न न दे जाता जाना,

सुधि मेरे आगम की जग में,

सुख की सिहरन हो अंत खिली ! (4)

विस्तृत नभ का कोई कोना,

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना, इतिहास यही,

उमड़ी कल थी, मिट आज चली !

मैं नीर-भरी दुख की बदली | (5)

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