मैं नीर-भरी दुख की बदली
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक-से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली | (1)
मेरा पग-पग संगीत-भरा,
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली | (2)
में क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नवजीवन-अंकुर बन निकली ! (3)
पथ को न मलिन करना आना,
पदचिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन हो अंत खिली ! (4)
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही,
उमड़ी कल थी, मिट आज चली !
मैं नीर-भरी दुख की बदली | (5)
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