धूप ( Dhoop ) : रघुवीर सहाय

देख रहा हूँ

लंबी खिड़की पर रखे पौधे

धूप की ओर बाहर झुके जा रहे हैं

हर साल की तरह गौरैया

अबकी भी कार्निंस पर ला ला कर धरने लगी है तिनके

हालांकि यह वह गोरैया नहीं

यह वह मकान भी नहीं

ये वे गमले भी नहीं, यह वह खिड़की भी नहीं

कितनी सही है मेरी पहचान इस धूप की | 1️⃣

कितने सही हैं ये गुलाब

कुछेक झरे से हुए और कुछ झरने-झरने को

और हल्की-सी हवा में और भी, जोखिम से

निखर गया है उनका रूप जो झरने को है |

और वे पौधे बाहर को झुके जा रहे हैं

जैसे उधर से धूप इन्हें खींचे लिये ले रही है

और बरामदे में धूप होना मालूम होता है

जैसे ये पौधे बरामदे में धूप-सा कुछ ले आये हों | 2️⃣

और तिनका लेने फुर्र से उड़ जाती है चिड़िया

हवा का एक डोलना है : जिसमें अचानक

कसे हुए गुलाब की गमक है और गर्मियां आ रही हैं –

हालांकि अभी बहुत दूर है –

कितनी सही है मेरी पहचान इस धूप की | 3️⃣

और इस गौरैया के घोंसले की कई कहानियां हैं

पिछले साल की अलग और उसके पिछले साल की अलग

एक सुगंध है

बल्कि सुगंध नहीं एक धूप है

बल्कि धूप नहीं एक स्मृति है

बल्कि ऊष्मा नहीं सिर्फ एक पहचान है

हल्की-सी हवा है और एक बहुत बड़ा आसमान है

और वह नीला है और उसमें धुआं नहीं है

न किसी तरह का बादल है

और एक हल्की-सी हवा है और रोशनी है

और यह धूप है, जिसे मैंने पहचान लिया है

और इस धूप से भरा हुआ बाहर एक बहुत बड़ा नीला आसमान है

और इस बरामदे में धूप और हल्की सी हवा और एक बसंत | 4️⃣

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