( ‘बात सीधी थी पर’ कुंवर नारायण द्वारा रचित कविता है जिसमें भाषा के सरल, सहज व स्वाभाविक प्रयोग का संदेश दिया गया है | कवि के मतानुसार कभी-कभी आकर्षक शब्दों के चयन से भाषा अपने उद्देश्य से भटक जाती है और भावाभिव्यक्तति नहीं हो पाती | )
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फंस गई!
उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए –
लेकिन इससे भाषा के साथ-साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई | (1)
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2‘ में संकलित कविता ‘बात सीधी थी पर’ से अवतरित है | इसके कवि श्री कुंवर नारायण जी हैं | यह कविता उन के प्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘कोई दूसरा नहीं’ में संकलित है | इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि हमें सरल, सहज और बोधगम्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए | जानबूझकर कठिन शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए |
व्याख्या — कवि कहता है कि मैं एक सीधी सी बात पाठकों तक लाना चाहता था लेकिन भाषा के चक्कर में फंस कर वह बात टेढ़ी बन गयी अर्थात भाषा के कारण वह पाठकों के लिये कठिन बन गयी | स्वयं कवि को जब इस बात का एहसास हुआ तो उसने अपनी भाषा में अनेक परिवर्तन किये ताकि वह बात पाठकों के लिये बोधगम्य बन सके परन्तु इससे वह बात और अधिक पेचीदा हो गयी | कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि कई बार जब हम सीधी सी बात को सीधे ढंग से न कहकर उसे जानबूझकर कठिन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं तो इससे बात उलझ जाती है | अत: हमें सरल, सहज व स्वाभाविक ढंग से अपनी बात कहनी चाहिये |
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने की बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्योंकि इस करतब पर मुझे
साफ सुनाई दे रही थी
तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह!
आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
जोर जबरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ! (2)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — कवि कहता है कि मैं एक सीधी सी बात पाठकों तक लाना चाहता था परंतु भाषा के चक्कर में वह टेढ़ी फंस गयी | बात को समझाने के लिए मैंने भाषा में अनेक परिवर्तन किए परंतु इससे बात और अधिक पेचीदा होती चली गई | एक पेंच का उदाहरण देते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार एक पेंच को खोलने के लिए अगर उसे गलत दिशा में घुमाते चले जाएं तो वह और अधिक कसता चला जाता है, ठीक उसी प्रकार से गलत भाषा का प्रयोग करने से बात और अधिक उलझती चली गई | परंतु इसके पश्चात भी कवि भाषा में परिवर्तन करने से नहीं रुका क्योंकि अलंकृत शब्दों का प्रयोग करने पर उसे तमाशबीनों की वाह-वाह और शाबाशी सुनाई दे रही थी | और जिस प्रकार गलत दिशा में पेंच घुमाने से अंततः पेंच की चूड़ी मर जाती है और वह व्यर्थ में घूमता रहता है, ठीक उसी प्रकार से उसकी बात की चूड़ी मर गई अर्थात बात अर्थहीन होकर शब्दों में व्यर्थ घूमने लगी | यहां पर कवि ने उन लोगों या कवियों पर व्यंग्य किया है जो सीधी-सादी बात को सीधे-सादे ढंग से अभिव्यक्त न करके जानबूझ कर उसे अलंकृत करने का प्रयास करते हैं |
हारकर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया |
ऊपर से ठीक-ठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत!
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछते देखकर पूछा –
“क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा? (3)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — एक पेंच का उदाहरण देते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार गलत दिशा में घुमाने पर पेंच खुलने की बजाय और अधिक कसता चला जाता है और अंततः पेंच की चूड़ी मर जाती है | तब वह पेंच निरर्थक घूमता रहता है | अंततः कारीगर उस पेंच को वहीं ठोक देता है | ऊपर से देखने पर सब कुछ ठीक-ठाक नजर आता है परंतु अंदर से उसमें कोई कसावट नहीं होती | ठीक उसी प्रकार से कवि ने भी उस उलझी हुई स्थिति में ही अपनी बात की अभिव्यक्ति कर दी | सुंदर शब्दों के ऊपरी आवरण से वह बात सुंदर अवश्य लग रही थी परंतु वह अपना अर्थ खो चुकी थी | देखने में वह सुंदर अवश्य लग रही थी परंतु भाव से रहित थी और बात का भाव से रहित हो जाना अर्थात अपनी आंतरिक सुंदरता खो देना |
अंत में कवि को ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक शरारती बच्चे की तरह उससे खेल रही बात उससे कह रही हो कि क्या तुमने आज तक भाषा को सहूलियत से बरतना नहीं सीखा? कहने का भाव यह है कि हमें सरल, सहज और स्वाभाविक ढंग से अपनी बात कहने का प्रयास करना चाहिए | जानबूझकर कठिन शब्दों का प्रयोग करने से कई बार बात उलझ जाती है और पाठकों या श्रोताओं के लिये बोधगम्य नहीं रहती |
अभ्यास के प्रश्न ( बात सीधी थी पर : कुंवर नारायण )
(1) भाषा को सहूलियत से बरतने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर — भाषा को सहूलियत से बरतने से अभिप्राय है — सरल, सहज, तथा बोधगम्य भाषा का प्रयोग करना ताकि पाठकों या श्रोताओं को आसानी से बात समझ आ जाए | हमें जानबूझकर अलंकृत शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से कई बार बात पेचीदा हो जाती है और श्रोता को समझ नहीं आती |
(2) बात और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं किंतु कभी-कभी भाषा के चक्कर में सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती है, कैसे?
उत्तर — बात और भाषा का परस्पर गहरा संबंध होता है | मानव अपने मन के भावों ( बात ) को शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त करता है | इस प्रकार यदि बात या भाव है तो उसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों ( भाषा ) की आवश्यकता पड़ती है | यदि भाषा न हो तो भाव अव्यक्त रह जाता है | ठीक इसी प्रकार यदि भाव ही न हो तो भाषा की कोई आवश्यकता ही नहीं |
यदि हम अपनी बात को सीधे-सादे शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं तो अभिव्यक्ति में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती | परंतु जब हम अपनी बात को सजाने-संवारने के लिए जानबूझकर अलंकृत शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं तो इससे भाव की अभिव्यक्ति में बाधा पड़ती है | हिंदी साहित्य में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जब कवियों ने कला पक्ष पर अधिक जोर देने के कारण अपने भाव पक्ष को अस्पष्ट बना दिया |
यह भी देखें
दिन जल्दी जल्दी ढलता है ( Din jaldi jaldi Dhalta Hai ) : हरिवंश राय बच्चन
आत्मपरिचय ( Aatm Parichay ) : हरिवंश राय बच्चन
कविता के बहाने ( Kavita Ke Bahane ) : कुंवर नारायण ( व्याख्या व अभ्यास के प्रश्न )
कैमरे में बंद अपाहिज ( Camere Mein Band Apahij ) : रघुवीर सहाय
सहर्ष स्वीकारा है ( Saharsh swikara Hai ) : गजानन माधव मुक्तिबोध
उषा ( Usha ) शमशेर बहादुर सिंह
बादल राग : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ( Badal Raag : Suryakant Tripathi Nirala )
बादल राग ( Badal Raag ) ( सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ): व्याख्या व प्रतिपाद्य
कवितावली ( Kavitavali ) : तुलसीदास
लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप ( Lakshman Murcha Aur Ram Ka Vilap ) : तुलसीदास
गज़ल ( Gajal ) : फिराक गोरखपुरी
रुबाइयाँ ( Rubaiyan ) : फिराक गोरखपुरी
बगुलों के पंख ( Bagulon Ke Pankh ) : उमाशंकर जोशी
छोटा मेरा खेत ( Chhota Mera Khet ) : उमाशंकर जोशी
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