भक्ति आंदोलन : उद्भव एवं विकास
( Bhakti Andolan : Udbhav Evam Vikas )
ईश्वर के प्रति जो परम श्रद्धा, आस्था व प्रेम है – उसे भक्ति कहते हैं।
नारद भक्ति-सूत्र के अनुसार –
“परमात्मा के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं |”
भक्ति शब्द की निष्पति ‘भज’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है – ‘ सेवा करना |भक्ति में ईश्वर का भजन, पूजन, अर्पण आदि शामिल होता है।
हिंदी साहित्य के इतिहास का वर्गीकरण करने पर द्वितीय काल को भक्तिकाल ( Bhaktikal ) की संज्ञा दी गई है। इस काल में मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से आहत होकर हिन्दू जनता ने प्रभु की शरण में ही अपने आपको सुरक्षित अनुभव किया और भक्ति-मार्ग का अनुसरण किया | भक्ति आन्दोलन में नये विचारो का जन्म हुआ | इसने भारतीय संस्कृति एवं समाज को एक दिशा दी । इस आन्दोलन ने एक ओर माननीय भावनाओं को उभारा, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिवादी विचारधारा को सशक्त बनाया, जिसमें भक्ति के माध्यम से ईश्वर से सम्पर्क स्थापित करके सदाचार, मानवता, भक्ति और प्रेम के महत्त्व को प्रतिपादित किया |
◼️ भक्ति आंदोलन के उदय संबधी विविध धारणाएं :
भक्ति आंदोलन के उदय की व्याख्या सभी विद्वानों, साहित्यकारों तथा इतिहासकारों ने अपने – अपने ढंग से की है मगर भक्ति आंदोलन के सदंर्भ में यह माना है कि सबसे पहले भक्ति का उदय दक्षिण के आलवर ( Alvar ) संतो के यहाँ उत्पन्न हुई | इस सम्बन्ध में कहा गया है : –
‘ भक्ति द्राविड़ी ऊपजी लाए रामानन्द ’
रामानंद ( Ramanand ) मानते थे कि ईश्वर की भक्ति करने का अधिकार सभी वर्गो को समान रूप से होना चाहिये लेकिन ईश्वर की प्राप्ति तभी हो सकती है जब ईश्वर का सच्चे मन से ध्यान किया जाये।
भक्ति का जो स्त्रोत दक्षिण भारत से धीरे – धीरे उत्तर भारत की ओर आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। रामानन्द रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में हुए और उन्होंने रामानन्दी सम्प्रदाय खड़ा कर दिया तथा विष्णु के अवतार राम की उपासना पर बल दिया इन सभी का यह मूल उद्देश्य ज्ञान के साथ भक्ति का तादात्मय स्थापित करना था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी व रामचन्द्र शुक्ल भक्ति के उदय की व्याख्या अलग – अलग रूपों में करते हैं।
◼️ भक्ति अन्दोलन उदय सम्बन्धी विभिन्न मत :
( Bhakti Andolan Ka Uday : Vibhinn Mat )
1. आचार्य राम चंद्रशुक्ल के ( Ramchandra Shukla ) अनुसार –
(i) भारत मे मुस्लमानो का राज्य स्थापित होने के बाद हिन्दू जनता की हताश, निराश एवं पराजित मनोवृत्ति का ईश्वर की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक था I
(ii) हिन्दू जनता ने भक्ति भवना मे माध्यम से अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाकर पराजित मनोवृत्ति का शमन किया I
(iii) भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत मे था और 7वीं सदी मे आलवर भक्तो ने जो भक्ति भावना प्रारम्भ की उसे उत्तर भारत मे फैलने के लिये अनुकूल परिस्थितियां भी प्राप्त हुई ।
2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ( Hajari Prasad Dvivedi ) के अनुसार –
”भक्ति भावना पराजित मनोवृत्ति की उपज नहीं है …………………… हिन्दू सदा से आशावादी जाति रही है I उन्होंने तर्क दिया कि किसी भी भक्ति कवि के काव्य मे निराशा का कोई पुट नही है I उन्होंने भक्ति आन्दोलन को “भारतीय चिंताधारा का स्वाभाविक विकास” माना है I
वे आगे कहते हैं :- ‘‘ मुसलमानो के अत्याचार से यदि भक्ति की भावधारा का उमड़ना था तो पहले सिन्ध में और फिर उसे उतर भारत में प्रकट होना चाहिए था पर हुई दक्षिण में। ”
3. जार्ज ( George Grierson ) ग्रियर्सन के अनुसार –
सर जार्ज ग्रियर्सन भक्ति अन्दोलन का उदय के पीछे ईसाई धर्म के प्रभाव को मानते हैं , उनका यह तर्क बिल्कुल असंगत और हास्यास्पद है क्योंकि भारतवर्ष में भक्ति परम्परा का इतिहास कई हजार साल पुराना है I गिर्यसन भक्तिकाल को ‘हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग’ घोषित करने वाले प्रथम व्यक्ति व्यक्ति हैं ।
हिंदी साहित्य मे भक्ति अन्दोलन का प्रारम्भ दक्षिण भारत के आलवर भक्तो की परम्परा मे ही हुआ |उस समय देश में राजनीतिक अस्थिरता और अव्यवस्था का दौर था I धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियाँ भी ठीक नही थी I जैन और बौद्ध धर्म ने भक्ति मार्ग में अनेक विकृतियाँ और बाधाएँ भी उत्पन्न कर भी थी I भक्ति परम्परा प्राचीन भारतीय ज्ञान एवं दर्शन के एक अत्यंत शक्तिशाली एवं व्यापक अविछिन्न धारा के रूप में पहले से ही उपस्थित तो थी ही लेकिन दक्षिण भारत में भक्ति का जो स्रोत फूटा वह धीरे–धीरे पूरे में फ़ैल गया ।
◼️ वैष्णव धर्म के संस्थापन के प्रमुख आचार्य
रामानुजाचार्य ( Ramanujacharya )
भक्ति आन्दोलन के उत्थान और वैष्णव धर्म की पुन: प्रतिष्ठा एवं उसके नवीन स्वरूप को जनता तक पहुँचाने की परम्परा में रामानुजाचार्य का नाम सर्वप्रथम और प्रमुखता से लिया जाता है I वेदान्त दर्शन परम्परा में उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है I इनका जन्म 1017 ई. में मद्रास के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था I इन्होंने शंकराचार्य के ‘अद्वैत’ मत का खंडन करते हुए भक्ति को वैचारिक आधार प्रदान किया I आलवार भक्त परम्परा में ये यमुनाचार्य के शिष्य थे I आचार्य रामानुजाचार्य ने विष्णु अर्थात नारायण की उपासना पर जोर दिया I इनकी मुख्य रचनाएँ वेदान्त संग्रह, श्रीभाष्य, वेदान्त सार, वेदान्त द्वीप, गीता भाष्य आदि I इनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय को श्री सम्प्रदाय भी कहा जाता है
मध्वाचार्य ( Madhvacharya )
मध्वाचार्य द्वैतवाद के संस्थापक थे, जिन्हें आनंदतीर्थ भी कहते हैं । इनका जन्म कर्नाटक राज्य में स्थित बेलिग्राम में माना जाता है I इनके शिष्य वायु देवता का अवतार मानते थे, ये शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरोधी थे I इनके अनुसार जगत सत्य है, जीव ब्रह्म से ही उत्पन्न है, ब्रहम स्वतंत्र है और जीव परतंत्र है और वह ब्रह्म (विष्णु) के अधीन होकर कार्य करता है I इनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय को ब्रह्म सम्प्रदाय भी कहा जाता है I इस सम्प्रदाय के अनुसार अमला भक्ति के द्वारा ही मुक्ति रूपी वास्तविक सुख की प्राप्ति हो सकती है I
निम्बार्काचार्य ( Nimbarkacharya )
वैष्णवों धर्म के प्रमुख चार सम्प्रदायों में निम्बार्क सम्प्रदाय भी एक है। इसको ‘सनकादिक सम्प्रदाय’ या “हंस” सम्प्रदाय भी कहा जाता है। द्रविड़ (दक्षिण क्षेत्र) में जन्म लेने के कारण निम्बार्काचार्य को द्रविड़ाचार्य भी कहा जाता था। इनका दार्शनिक मत “द्वैताद्वैतवाद” या “भेदाभेदवाद” कहलाता है कुछ लोग इनको भगवान के सुदर्शन चक्र का भी अवतार मानते हैं । यह सम्प्रदाय “सनकादि” सम्प्रदाय के नाम से भी प्रसिद्ध है । इस सम्प्रदाय के अनुसार जीव ब्रह्म का अंश है तथा जीव ब्रह्म से भिन्न भी है और अभिन्न भी । भक्ति ही मुक्ति का साधन है । इस सम्प्रदाय में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है और राधा-कृष्ण की युगल उपासना का विधान है ।
स्वामी हरिदास ( Swami Haridas )
कालांतर में निम्बार्क सम्प्रदाय का विकास दो श्रेणियों में हुआ, एक विरक्त और दूसरी गृहस्थ । आचार्य निम्बार्क के दो प्रमुख शिष्य थे, केशव भट्ट और हरि व्यास। �केशव भट्ट के अनुयायी विरक्त होते हैं और हरि व्यास के अनुयायी गृहस्थ। सम्प्रदाय के रूप में निम्बार्क परम्परा को आगे बढ़ाने वाले परवर्ती आचार्यों में गोस्वामी श्री हित हरिवंश, श्री हरि व्यास और स्वामी हरिदास जी उल्लेखनीय हैं । स्वामी हरिदास जी का “सखी-सम्प्रदाय”
( Sakhi Sampraday ) इसी सम्प्रदाय की प्रमुख शाखा के रूप में माना जाता है।
विष्णु स्वामी ( Vishnu Swami )
वैष्णव भक्ति के संस्थापकों में विष्णु स्वामी का महत्वपूर्ण स्थान है । इन्होंने “रूद्र सम्प्रदाय”( Rudra Sampraday ) का प्रवर्तन किया जिसे “विष्णु स्वामी सम्प्रदाय” तथा “विष्णु श्याम” सम्प्रदाय भी कहा जाता है । इस सम्प्रदाय के आराध्य विष्णु भगवान हैं और नृसिंह विष्णु के ही प्रधान अवतार हैं । दार्शनिक दृष्टि से इनका दर्शन “शुद्धाद्वैत” कहलाता है । इन्होंने अद्वैतवाद ( Advaitvad ) को माया से रहित माना और शुद्ध ब्रह्म का प्रतिपादन किया । इनके अनुसार ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है और माया ईश्वर के अधीन है ।आचार्य वल्लभाचार्य जी इन्ही की शिष्य परम्परा में आते हैं । वल्लभाचार्य जी विष्णु स्वामी के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित थे । जिसके फलस्वरूप उन्होंने इस सम्प्रदाय की मान्यताओं और आदर्शों को ग्रहण भी किया और “पुष्टिमार्ग” ( Pushti Marg ) की स्थापना की । इनके अनुसार भगवान के अनुग्रह या कृपा से ही भक्ति प्राप्त होती है ।इनकी भक्ति “पुष्टि भक्ति” कहलाती है ।
�
विभिन्न आचार्यो द्वारा प्रतिपादित सम्प्रदाय
( Bhakti Ke Vibhinn Sampraday )
विशिष्टाव्दैतवाद (श्री सम्प्रदाय) – रामानुजाचार्य
अद्वैतवाद – शंकराचार्य
राधाबल्लभी सम्प्रदाय – स्वामी हित हरिवंश
शुद्धाद्वैतवाद – वल्लभाचार्य
रामावत सम्प्रदाय – रामानन्द
द्वैतवाद / ब्रह्म सम्प्रदाय – मध्वाचार्य
सनकादि सम्प्रदाय – निम्बार्काचार्य
सखी सम्प्रदाय – हरिदास
रुद्र सम्प्रदाय – विष्णु स्वामी
गौडीय सम्प्रदाय – चैतन्य महाप्रभु
भक्ति काल का वर्गीकरण
( Bhaktikal Ka Vargikaran )
भक्तिकालीन साहित्य की साधना पद्धतियों की विभिन्नताओं और विशेषताओं के आधार पर इसको निर्गुण काव्यधारा और सगुण काव्यधारा दो धाराओ में बाटा जा सकता है, जिसका विवरण निम्नलिखित है –
◼️ भक्तिकाल में ईश्वर के दो रूप माने गए हैं – सगुण एवं निर्गुण।
🔹 निर्गुण ( Nirgun ) – जब परमात्मा को निराकार , अजन्मा , अनादि , सर्वव्यापी , अगोचर, सूक्ष्म मानकर उसकी विवेचना की जाती है, तब उसे निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है ।
🔹 सगुण ( Sagun ) – जब ब्रह्म सगुण साकार रूप धारण करके शरीर ग्रहण कर नाना प्रकार के लीलाएं करता है, तब उसे सगुण परमात्मा के रूप में जाना जाता हैं।
सगुण तथा निर्गुण धाराएं सामानांतर चलती रही आगे चलकर सगुण और निर्गुण धाराएं भी दो अलग अलग शाखाओं में बंट गई |
1️⃣ सगुण भक्ति ( Sagun Bhakti ) सगुण काव्यधारा को दो भागों में बाँटा जा सकता है – रामकाव्यधारा और कृष्ण काव्यधारा |
(i) रामकाव्य परम्परा – रामकाव्य परम्परा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं।
(ii) कृष्णकाव्य परम्परा – कृष्णकाव्य परम्परा के प्रतिनिधि कवि सूरदास हैं।
2️⃣ निर्गुण भक्ति ( Nirgun Bhakti ) – निर्गुण भक्तिधारा को भी दो भागों में बांटा जा सकता है – सूफी काव्यधारा और संत काव्यधारा |
(i) सूफ़ीकाव्य परम्परा (प्रेमामार्गी शाखा)-
इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि जायसी हैं।
(ii) संतकाव्य परम्परा (ज्ञानमार्गी शाखा)
इस शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीर हैं।
◼️ निष्कर्ष
भक्ति -साहित्य में भले ही निर्गुण-सगुण का भेद चला हो लेकिन मध्ययुगीन कवियों ने इस भेद को उस तरह से बढ़ने नही दिया जिससे इनके अनुयायियों में वैमनस्य उत्पन्न हो |
इस विषय में तुलसीदास ( Tulsidas ) जी कहते हैं –
‘ अगुनहि सगुनहि नहीं कुछ भेदा ’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ( Ramchandra Shukl ) के अनुसार-
‘‘ सगुणोपासक भक्त भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप मानता है , पर भक्ति के लिए सगुण रूप ही स्वीकार करता है , निर्गुण रूप ज्ञानमार्गियों के लिए छोड़ देता हैं |”
इस प्रकार हम देखते हैं कि सगुण और निर्गुण उपासक दोनों में प्रेम और मानवता का धागा जुड़ा हुआ दिखाई देता है | भक्ति- आंदोलन के उद्भव ने हिन्दू समाज के विभिन्न घटकों को संगठित करने का कार्य किया | तत्कालीन परिस्थितियों में हिन्दू तथा मुसलमान निर्गुण तथा सगुण भक्तिधाराओं में विभक्त होते हुए भी पारस्परिक भेद भुलाकर मानवता के उदात्त मूल्यों की स्थापना में लगे हुए थे।
भक्ति आंदोलन के सभी संतो व कवियों ने उस समय समाज में फैली बुराइयों को रोकने का प्रयत्न किया और शैवों तथा वैष्णवों के बीच बढ़ते हुए द्वेष को खत्म किया और लोक-धर्म व भक्ति -साधना को सम्मिलत करके जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया | उस समय भक्ति का जो स्वरूप स्थापित किया गया वही आज तक जनता में प्रचलित है जो भक्तिकाल की श्रेष्ठता सत्यापित करने के लिये पर्याप्त है |
Other Related Posts
हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग : भक्तिकाल ( Hindi Sahitya Ka Swarn Yug :Bhaktikal )
संत काव्य : परंपरा एवं प्रवृत्तियां /विशेषताएं ( Sant Kavya : Parampara Evam Pravrittiyan )
कबीरदास का साहित्यिक परिचय ( Kabirdas Ka Sahityik Parichay )
सूफी काव्य : परंपरा एवं प्रवृत्तियां ( Sufi Kavya : Parampara Evam Pravrittiyan )
राम काव्य : परंपरा एवं प्रवृत्तियां /विशेषताएं ( Rama Kavya : Parampara Evam Pravrittiyan )
लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप ( Lakshman Murcha Aur Ram Ka Vilap ) : तुलसीदास
कवितावली ( Kavitavali ) : तुलसीदास
तुलसीदास की भक्ति-भावना ( Tulsidas Ki Bhakti Bhavna )
तुलसीदास का साहित्यिक परिचय ( Tulsidas Ka Sahityik Parichay )
सूरदास के पदों की व्याख्या ( बी ए हिंदी – प्रथम सेमेस्टर )
सूरदास का श्रृंगार वर्णन ( Surdas Ka Shringar Varnan )
सूरदास का वात्सल्य वर्णन ( Surdas Ka Vatsalya Varnan)
सूरदास का साहित्यिक परिचय ( Surdas Ka Sahityik Parichay )
मीराबाई का साहित्यिक परिचय ( Mirabai Ka Sahityik Parichay )
घनानंद का साहित्यिक परिचय ( Ghananand Ka Sahityik Parichay )