मैथिलीशरण गुप्त यद्यपि राष्ट्रीय चेतना के लिए जाने जाते हैं लेकिन फिर भी उनके साहित्य में अन्य काव्यगत प्रवृतियां व विषय-वस्तु का वर्णन भी प्रभावी व व्यापक रूप में हुआ है | उन्होंने इतिहास की उन नारी पात्रों को उच्च शिखर पर बिठाया जिनके लिए हमारा इतिहास प्रायः मौन रहा है | उर्मिला, यशोधरा और विष्णुप्रिया जैसे नारी पात्रों को आधार बनाकर उन्होंने जिन काव्य-ग्रंथों की रचना की उससे इन नारी पात्रों के व्यक्तित्व के विषय में कुछ नई मान्यताएं स्थापित होती हैं और पाठकों के मन में इन नारी पात्रों के प्रति एक विशेष सम्मान की भावना का सृजन होता है | इतना ही नहीं गुप्त जी ने कैकेयी, कुब्जा आदि नारी पात्रों को घृणा एवं अपमान की संकीर्ण गलियों से निकालकर सम्मानीय पद पर सुशोभित किया | मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में नारी-चित्रण रीतिकालीन कवियों के समान अश्लील न होकर छायावादी कवियों की भाँति पवित्र है |
मैथिलीशरण गुप्त जी के अनुसार नारी का जीवन प्रायः दुखों और विवशताओं से भरा होता है | वह जीवन भर अपनी संतान का पालन-पोषण करती है, अपने परिवार के सदस्यों की देखरेख करती है ; लेकिन उसकी आँखों से सदैव आँसू छलकते रहते हैं |
नारी त्यागशीलता, ममता, कोमलता, श्रद्धा आदि गुणों के होने पर भी खुशियों से वंचित रहती है | इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए गुप्त जी कहते हैं —
” अबला जीवन, हाय! तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी |”
गुप्त जी के अनुसार किसी परिवार के विकास में नारी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है | पुत्र को संस्कार देने, उसे जीवन की विकट परिस्थितियों से जूझने के लिए तैयार करने और उसके उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करने में माँ की भूमिका अप्रतिम होती है | नारी पत्नी के रूप में अपने पति का संबल बनते हैं | नारी उसके आदर्शों की संवाहिका और उसकी प्रेरणा शक्ति होती है | मैथिलीशरण गुप्त जी ‘साकेत’ में सीता को राम की तथा ‘उर्मिला’ में उर्मिला को लक्ष्मण की प्रेरणा शक्ति मानते हैं | सीता और उर्मिला दोनों ही स्वयं दुख झेलते हुए अपने-अपने पतियों के आदर्शों की रक्षा करती हैं | ठीक यही स्थिति ‘यशोधरा’ में दिखाई देती है जहाँ यशोधरा सिद्धार्थ के घर छोड़कर चले जाने पर उसके निर्णय का सम्मान करती है और सिद्धार्थ को आत्मग्लानि से बचाकर उसे सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बनने और मानव सेवा के मार्ग पर चलने के कार्य को सरल बनाती है |
मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में नारी-चित्रण से उनके हृदय की विशालता एवं उदारता का परिचय मिलता है | गुप्त जी ने नारी के न्यायोचित अधिकार की मांग की है | शकुंतला, सैरंन्ध्री, सीता, उर्मिला, कैकेयी, मांडवी, राधा, कुब्जा, हिडिंबा आदि नारी पात्रों के माध्यम से उन्होंने नारी के त्यागमय, प्रेरक, उज्जवल पक्ष को उद्घाटित किया है | गुप्त जी की यह नारी भावना न तो रीतिकालीन वासना से युक्त है और न भक्तिकालीन रागवृत्ति से पूर्ण | नारी को प्रेम, पवित्रता और शक्ति का समन्वित रूप मानते हुए वे लिखते हैं —
“हैं प्रीति और पवित्रता की मूर्ति-सी वे नारियाँ,
हैं गेह में वे शक्तिरूपा, देह में सुकुमारियाँ |”
गुप्त जी की नारियों का स्वरूप प्रायः अबला के रूप में है | वे विभिन्न प्रकार के कष्टों को सहन करती हुई अपने कर्तव्य का पालन करती रहती हैं | कहीं-कहीं न्यायोचित अधिकारों की माँग तो करती हैं परंतु उनके लिए दृढ़ आग्रह करने का सामर्थ्य उनमें नहीं है | गुप्त जी ने अपने काव्य में वर्णित नारियों के इस अवगुण को भारतीय संस्कृति के आवरण से ढकने की कोशिश की | हाँ ; प्रेम, त्याग, समर्पण आदि गुणों के दृष्टिकोण से उनके नारी-पात्र हिंदी साहित्य में अद्वितीय बन पड़े हैं |
उर्मिला अपने पति लक्ष्मण के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देती है | उर्मिला के त्याग की पराकाष्ठा को गुप्त जी ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है —
“नव वय में ही विश्लेष हुआ, यौवन में ही यति वेश हुआ |”
गुप्त जी की नारियों का हृदय-पक्ष पुरुषों की अपेक्षा प्रबल है क्योंकि उनमें पुरुषों के समान केवल बौद्धिक प्रबलता ही नहीं है अपितु प्रेम, दया, करुणा, त्याग, सहानुभूति आदि मार्मिक गुणों का भी संयोग है | परंतु यह प्रबलता केवल सहन करने में है, प्रतिकार करने में नहीं | गुप्त जी की नारियाँ कहीं-कहीं गलत के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं लेकिन ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं | केवल ऐसे पात्रों के विरुद्ध नारी के कटु वचन दिखलाए गए हैं जिन्हें हम खल पात्र के रूप में जानते हैं लेकिन जब उनके अपने माता, पिता, पति या वे पात्र जिन्हें हम नायक या अवतार के रूप में जानते हैं, नारी के विरुद्ध कोई अन्यायपूर्ण निर्णय लेते हैं तो प्रताड़ित नारियाँ मूक हो जाती हैं | संभवतः गुप्त जी परम्परा से प्रचलित नारी शोषण के उदाहरणों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस नहीं कर पाए |
गुप्त जी की नारी तन से अबला व सुकुमारी है | केवल रावण जैसे खल पात्रों के विरुद्ध उसका सशक्त और सबल रूप सामने आता है | सीता रावण को करारी फटकार लगाते हुए नारी के सबल रूप की झलक दिखाती है —
“जीत न सका एक अबला का मन, तू विश्वजयी कैसा?
जिन्हें तुच्छा कहता है, उनसे भागा क्यों तस्कर ऐसा?”
मैथिलीशरण गुप्त जी ने नारी की कर्तव्यपरायणता का विशद वर्णन किया है | उनके अनुसार कर्तव्यपरायणता नारी का विशिष्ट गुण है | गुप्त जी की नारियां पति एवं पारिवारिक सदस्यों की उन्नति एवं सुख-सुविधा का ध्यान रखना अपना कर्तव्य मानती हैं | गुप्त जी की नारियाँ चाहे कितनी ही दुख में जी रही हों किंतु वे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होती | राम के साथ सीता और लक्ष्मण के वन जाने का निर्णय सुनकर उर्मिला लक्ष्मण के मार्ग में विघ्न नहीं बनती |
“कहा उर्मिला ने हे मन! तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन |”
गृहस्थ धर्म का पालन करना नारी का सर्वोपरि कर्तव्य माना जाता है | गुप्त जी की नारियां इस धर्म-पालन में कहीं भी नहीं चूकती | सीता वन में पौधों को पानी देना और खुरपी लेकर खेती करना अपना कर्तव्य मानती है | वह राम तथा लक्ष्मण के लिए रसोई बनाने में तृप्ति का अनुभव करती है |
“बनाती रसोई, सभी को खिलाती, इसी काम में आज मैं तृप्ति पाती |”
यशोधरा अपने पति सिद्धार्थ की अनुपस्थिति में पुत्र का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्य समझती है तो विष्णुप्रिया सास की सेवा एवं घर की सफाई को अपना धर्म मानती है |
“रात रहते ही उठ झाड़ घर,
भृत्य के रहते हुए भी स्वयं सेवा करती सास की |” ( विष्णुप्रिया )
गुप्त जी ने अपने काव्य में उपेक्षित समझे जाने वाली नारी पात्रों को स्थान देकर उनके प्रति सहानुभूति अभिव्यक्त की है | भले ही गुप्त जी ने आधुनिक कवियों की भांति नारी के पुरुषों के समान अधिकार की बात नहीं की परंतु नारी के त्याग, समर्पण और प्रेम के महत्व को प्रतिपादित अवश्य किया | भारतीय मिथक शास्त्रों में वर्णित छवि के आधार पर सीता को अवश्य माता कहकर सम्मान प्रदान किया जाता है परंतु अन्य सभी पात्र उपेक्षित ही रहते हैं | गुप्त जी अपने काव्य में सीता के साथ-साथ कैकेयी, उर्मिला, यशोधरा, कुब्जा, हिडिम्बा आदि नारी पात्रों को भी अपेक्षित स्थान व सम्मान प्रदान करते हैं | गुप्त जी ‘रामचरितमानस’ की लांछिता कैकेयी को ‘साकेत’ में आदरणीय माता के रूप में उपस्थित कर सबको आश्चर्यचकित कर देते हैं और अपनी मौलिक उदभावना का परिचय देते हैं |
माता चाहे पौराणिक ग्रंथों की हो, वर्तमान की हो या अतीत की ; प्रत्येक युग और प्रतीक देशकाल में माता अपनी संतान के लिए सभी दुखों को सहन करती है और उस पर अपने दखों की छाया भी नहीं आने देती | ‘यशोधरा’ में माता यशोधरा स्वयं सभी दुःखों को सहन करते हुए अपने बेटे राहुल को उनसे दूर रखना चाहती है |
“बेटा मैं तो हूँ रोने को, तेरे सारे मल धोने को, हँस तू…. |”
त्याग, दया और ममता की प्रतिमूर्ति नारी में स्वाभिमान की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई है | यशोधरा को अपने प्रेम और भक्ति पर पूर्ण विश्वास है | इसीलिए वह प्रभु गौतम के दर्शन के के लिए जाने से मना कर देती है और विश्वासपूर्वक कहती है —
“भक्त नहीं जाते कहीं, आते हैं भगवान |”
‘यशोधरा’ में गौतम बुद्ध यशोधरा के मान की रक्षा करते हैं | वस्तुतः यह गुप्त जी की नारी-विषयक भावना की काव्यमय अभिव्यक्ति है |
नारी पुरुष की अर्धांगिनी है | वह पति के प्रत्येक सुख-दुख की संगिनी है | इसी भाव के बल पर सीता वन-गमन की अनुमति लेने में सफल होती है, उर्मिला अपने पति को सहर्ष वन में भेज देती है और यशोधरा इसी अधिकार-भाव से गौतम की उपलब्धि में अपना अंश मानती है —
“उसमें मेरा भी कुछ होगा, जो कुछ तुम पाओगे |”
गुप्त जी ने अपने साहित्य में नारी को पुरुष का प्रेरणा स्रोत माना है |गुप्त जी के अनुसार नारी पुरुष को उन्नति की दिशा में ले जाती है |नारी कभी माँ के रूप में, कभी पत्नी के रूप में और कभी बहन के रूप में पुरुष को प्रेरित करते है | संकट के समय में वह अपने पुत्र, पति, भाई आदि की रक्षा करती है | नारी समस्त मानव जाति के प्रति कल्याणकारी भावनाएँ रखती है | ‘यशोधरा’ में गौतम बुद्ध स्वयं इस तथ्य को स्वीकार करते हैं —
“क्षीण हुआ वन में क्षुधा से मैं विशेष जब |
मुझ को बचाया मातृजाति ने ही खीर से |”
अपने कर्तव्य का भली प्रकार निर्वहन करने के उपरांत भी यदि नारी प्रताड़ित व लांछित हो तो उसका प्रतिकार करना स्वाभाविक है | पाँच पतियों वाली पांचाली कीचक से लांछित होकर कह उठती है —
“जिसके पति हों पाँच-पाँच ऐसे बलशाली |
सहूँ लांन्छना प्रिया उन्हीं की मैं पांचाली ||”
नारी को गृहलक्ष्मी कहा गया है | वह घर की स्वामिनी है | यह पद उसे कठोर साधना के पश्चात प्राप्त हुआ है | वह आंतरिक व्यवस्था की संचालिका है | ‘जय भारत’ में स्वावलंबन पर बल देते हुए नारी के इसी रूप को महत्व दिया गया है |
गुप्त जी ने नारी के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करके उसके उदात्त एवं आदर्श रूप को स्वीकार किया है | नारी क्षमा की देवी है | एक स्वर से सांसारिक भोगियों एवं आध्यात्मिक योगियों ने अपने अपराधों को स्वीकार करते हुए उससे क्षमा याचना करके ही महान पद की प्राप्ति की है —
“पैरों पर गिर पड़े प्रिया के भूपवर…..|” ( शकुंतला )
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि नारी के त्याग और समर्पण के आगे नतमस्तक हैं-
“”गिर पड़े दौड़ सौमित्र प्रियापद-तल में |” ( साकेत )
मैथिलीशरण गुप्त जी मुख्य रूप से उपेक्षित नारियों के उन्नायक माने जाते हैं परंतु इसके साथ-साथ सामान्य गृहस्थ नारियों के त्याग और समर्पण का वर्णन करके वे मानव सभ्यता के विकास में नारियों के अद्वितीय योगदान को प्रकाश में लाते हैं | वस्तुतः मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में नारी-चित्रण भारतीय परंपरा के अनुकूल मिलता है जो प्रेम, त्याग, समर्पण और सहनशीलता की मूर्ति है | यदि केवल इस परंपरागत दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए मूल्यांकन किया जाए तो गुप्त जी का नारी-वर्णन हिंदी साहित्य की एक मूल्यवान निधि है | भले ही गुप्त जी नारी शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाले किसी क्रांतिकारी नारी-पात्र का सृजन नहीं कर पाए परंतु फिर भी उनके काव्य में नारी के महान कार्यों व उसके त्याग के प्रति आदरांजलि तो मिलती ही है |
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