साधारणीकरण के सिद्धांत की चर्चा रस-निष्पत्ति के संदर्भ में ही की जाती है | आचार्य भरतमुनि के रस सूत्र – ‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगादरसनिष्पत्ति:’ – की व्याख्या करते हुए भट्टनायक ने इस सिद्धांत का प्रवर्त्तन किया | पाश्चात्य विचारकों टी एस इलियट आदि ने भी इस सिद्धांत के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है | विद्वान प्रायः यह प्रश्न उठाते हैं कि काव्य-नाटक के विभावादी के भावों से सहृदय के भावों का तादात्म्य किस प्रकार होता है? सभी सहृदय कैसे एक साथ रति आदि की अनुभूति से आनंद प्राप्त करते हैं और शोक आदि की अनुभूति से द्रवित हो जाते हैं? किस प्रकार से कवि की अनुभूति देशकाल आदि के व्यवधानों को पार करते हुए जनसामान्य की अनुभूति बन जाती है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर हमें साधारणीकरण के सिद्धांत से मिलता है |
साधारणीकरण का अर्थ एवं स्वरूप ( Sadharanikaran Ka Arth Evam Swaroop )
‘साधारणीकरण’ का शाब्दिक अर्थ है – व्यक्तित्व का विलयन, निर्वैयक्तिकरण, संबंध विशेष का त्याग या असाधारण का साधारणीकरण | साधारणीकरण वह सामान्यीकृत अनुभव है जिसमें वस्तुएं स्थान तथा काल की उपाधि से मुक्त होकर निर्वैयक्तिक दिखाई देती हैं | एक विद्वान के शब्दों में — “साधारणीकरण वह सामान्यीकृत अनुभव है जिसमें वस्तुएँ स्थान तथा काल की उपाधि से मुक्त होकर निर्वैयक्तिक रूप में दिखाई देती हैं एवं अनुभूत होने लगती हैं |”
साधारणीकरण का संबंध रस-निष्पत्ति की प्रक्रिया से है | यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सहृदय अपने सामान्य मानवीय हृदय द्वारा काव्य में वर्णित विभावादि को सामान्यीकृत अथवा मानवीय रूप में ग्रहण करता है | इस प्रक्रिया द्वारा काव्य या नाटक का मूल पात्र अपनी कालगत और स्थानगत उपाधियों को छोड़कर सामान्य रूप धारण कर लेता है | यह प्रक्रिया विशेष भावों की वैयक्तिक अनुभूति को रस में परिणत कर देती है | यह प्रक्रिया पाठक, श्रोता, दर्शक तथा कवि सबके हृदय में समान रूप से घटित होती है | इसी संदर्भ में डॉ नगेंद्र जी लिखते हैं — “साधारणीकरण का अर्थ है – काव्य के पठन द्वारा पाठक या श्रोता का भाव सामान्य भूमि पर पहुँच जाना |”
साधारणीकरण का महत्त्व ( Sadharanikaran Ka Mahatva )
रसवत्ता ही काव्य की जननी है और यह साधारणीकरण से ही आ सकती है | काव्य सृजन के लिए भी यह नितांत आवश्यक है | इसके द्वारा कवि दूसरों के भावों को जागृत करके रसानुभूति प्रदान कर सकता है | साधारणीकरण की प्रक्रिया के द्वारा ही कवि की अनुभूति प्रत्येक पाठक की अनुभूति बन जाती है | इस प्रक्रिया के कारण ही रस चिन्मय ( ज्ञानमय ) और लोकोत्तर बनता है | इस प्रक्रिया के द्वारा सहृदय अपनी पृथक तथा वैयक्तिक सत्ता से ऊपर उठकर लोक-सामान्य भाव-भूमि तक पहुँच जाता है |
अतः हम कह सकते हैं कि जब सहृदय अपनी पृथक सत्ता को भूलकर अपनी वैयक्तिक भावना का परित्याग करके समूची मानव जाति की सुख-दु:ख की अनुभूति में लीन हो जाता है तभी उसमें साधारणीकरण की स्थिति उत्पन्न होती है | सामान्य शब्दों में लोक-ह्रदय में लीन होना ही साधारणीकरण है |
संस्कृत विद्वानों के मत
साधारणीकरण के सम्बन्ध में संस्कृत विद्वानों के मत विशेष महत्त्वपूर्ण हैं |
(1) आचार्य भरत — आचार्य भरत ने यद्यपि ‘साधारणीकरण’ शब्द का प्रयोग तो नहीं किया लेकिन उन्होंने एक वाक्य में इस ओर संकेत अवश्य किया है – “एभ्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसा: निष्पद्यन्ते |” अर्थात् जब इन भावों को सामान्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो रस की निष्पत्ति होती है |
(2) भट्टनायक — भरत के रससूत्र ‘विभावानुभावव्यभिचारिसयोंगद्रसनिष्पत्ति:’ के बारे में चार विद्वानों ने विचार किया है – भट्टलोल्लट, भट्टनायक, शंकुक तथा अभिनवगुप्त | भट्टलोल्लट और शंकुक ने यह प्रश्न उठाया कि सहृदय कल्पित पात्रों के भावों से रसास्वादन कैसे करते हैं? भट्टनायक ने इसका समाधान करते हुए साधारणीकरण सिद्धांत की व्याख्या की | उनका कथन है कि सहृदय सर्वप्रथम अभिधा शक्ति द्वारा पात्रों के संवादों के अर्थ ग्रहण करता है | पुनः भावकत्व व्यापार द्वारा उस अर्थ का भावन करता है | भावकत्व द्वारा ही विभाव, अनुभाव और संचारी भावों का साधारणीकरण हो जाता है | परिणामस्वरूप सहृदय अपने वैयक्तिक भावों को त्याग कर सामान्य रूप धारण कर लेता है और तत्पश्चात वह भोजकत्व द्वारा रस का आस्वादन करता है |
(3) अभिनवगुप्त — साधारणीकरण के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाले तीसरे व्याख्याकार हैं – आचार्य अभिनवगुप्त | आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार काव्य या नाटक द्वारा प्रस्तुत वस्तु के संबंध में सहृदय या सामाजिक की व्यक्तिगत अनुभूति मित्र, शत्रु तथा उदासीन भाव से असंबद्ध अथवा मुक्त प्रतीत होती है | वस्तु की व्यक्तित्व से यह असंबद्धता ही वस्तु का साधारणीकरण है |
अभिनवगुप्त ने स्पष्ट किया है कि साधारणीकरण द्वारा कवि-निर्मित पात्र व्यक्ति विशेष न रहकर सामान्य पात्र बन जाते हैं |
नायक-नायिका के भाव सहृदय में साधारणीकृत हो जाते हैं | सहृदय ममत्व तथा परत्व की भावना से मुक्त हो जाता है | इस प्रकार अभिनव गुप्त ने स्थायी भाव का ही साधारणीकरण माना है |
(4) धनंजय — अभिनवगुप्त के पश्चात धनंजय ने साधारणीकरण के सिद्धांत की व्याख्या की है | उन्होंने सर्वप्रथम ‘कवि तत्त्व’ का उल्लेख किया है | इस संदर्भ में धनंजय का विचार था कि नाटक देखने या काव्य पढ़ने से सहृदय के समक्ष राम, कृष्ण आदि ऐतिहासिक पात्र भी ऐतिहासिक पात्र नहीं रह जाते अपितु कवि निर्मित पात्र बन जाते हैं | राम और कृष्ण आदि पात्रों के प्रति पाठक या दर्शक का पूज्य भाव समाप्त हो जाता है और कवि निर्मित पात्रों के माध्यम से रस अनुभूति प्राप्त करता है |
(5) आचार्य विश्वनाथ — आचार्य विश्वनाथ ने अपनी रचना ‘साहित्यदर्पण’ में साधारणीकरण पर प्रकाश डाला | उन्होंने साधारणीकरण में विभाव, अनुभाव और संचारी भाव तीनों का उल्लेख किया है | वे कहते हैं – ‘व्यापारोस्ति विभावादि नाम्ना साधारणी कृति: |’ अर्थात काव्य नाटक गत विभावादी तीनों का व्यापार साधारण रूप ग्रहण कर लेता है | सारा घटनाक्रम अपने विशिष्ट व्यक्तित्व से रहित हो जाता है | काव्य नाटक के पात्रों और पाठकों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है | यह स्थिति ही रसास्वादन की भूमिका बनती है |
(6) आचार्य जगन्नाथ — आचार्य जगन्नाथ ने स्पष्ट रूप से ‘साधारणीकरण’ शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन ‘दोष-दर्शन’ के आधार पर साधारणीकरण की व्याख्या करने की कोशिश अवश्य की | इस संदर्भ में वे कहते हैं कि भावना के दोष के कारण ही रामादि असाधारण पात्र सहृदय को सामान्य प्रतीत होने लगते हैं | जब तक यह भावना दोष बना रहता है तभी तक सहृदय को रसानुभूति होती है | जैसे ही यह भावना दोष नष्ट होता है वैसे ही रसानुभूति भी लुप्त हो जाती है |
हिंदी के विद्वानों के मत
रीतिकालीन हिंदी के आचार्य कवियों ने साधारणीकरण के विषय में कुछ विशेष चिंतन नहीं किया | उनके साधारणीकरण संबंधी विचार मात्र संस्कृत आचार्यों का अनुवाद मात्र प्रतीत होते हैं | हाँ, साधारणीकरण करने के संबंध में आधुनिक हिंदी विद्वानों के मत कुछ नवीन व मौलिक प्रतीत होते हैं |
(क ) आचार्य रामचंद्र शुक्ल — आचार्य शुक्ल ‘साधारणीकरण’ पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं – “जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलंबन हो सके तब तक उसमें रसोदबोधन की पूर्ण शक्ति नहीं आती | इसी रूप में लाया जाना हमारे यहाँ साधारणीकरण कहलाता है |”
शुक्ल जी के उपर्युक्त कथन से यह स्वत: स्पष्ट है कि वह आलंबन का साधारणीकरण मानते हैं | इसी को स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं – “आलंबन के रूप में प्रतिष्ठित व्यक्ति समान प्रभाव वाले कुछ धर्मों की प्रतिष्ठा के कारण सब के भावों का आलंबन बन जाता है |”
एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं – “पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष आती है, जैसे काव्य में वर्णित आश्रय के भाव का आलंबन होता है, वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलंबन हो जाता है |”
उपर्युक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट होता है कि शुक्ल जी आश्रय के आलंबन का ही साधारणीकरण मत मानते हैं |
इसके साथ-साथ शुक्ल जी आश्रय के साथ तादात्मय, आलंबन का साधारणीकरण और शील-वैचित्र्य की स्थिति में मध्यम कोटि की रसानुभूति को भी स्वीकार करते हैं |
(ख ) आचार्य केशव प्रसाद मिश्र आचार्य शुक्ल के मत का खंडन करते हुए साधारणीकरण का संबंध कवि या सहृदय की चित्तवृत्ति से स्वीकार करते हैं |
(ग ) डॉ श्यामसुंदर दास पाठक के साधारणीकरण को मानते हुए लिखते हैं – “कवि के समान सहृदय भी जब मधुमती भूमिका का स्पर्श करता है तब उसकी वृत्तियां उसी प्रकार एक लय में हो जाती हैं | कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों का एकतान, एकलय हो जाना ही साधारणीकरण है |”
यहाँ ‘मधुमती भूमिका’ क्या है ? ; इस विषय में जानना भी आवश्यक होगा | मधुमती भूमिका चित्त की वह विशेष अवस्था है जिसमें वितर्क की सत्ता नहीं रह जाती | मधुमती भूमिका साधनात्मक होती है | काव्य जैसी रागात्मकता, सरसता आदि उसमें नहीं होती | मधुमती भूमिका का आनन्द पारलौकिक होता है | क्योंकि विद्वान काव्य से प्राप्त रस को ब्रह्मस्वादसहोदर तो मानते हैं लेकिन लोकोत्तर नहीं, इसलिए अनेक परवर्ती आलोचक इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते |
(घ ) बाबू गुलाब राय ‘साधारणीकरण’ में तीन तत्वों का उल्लेख करते हैं – कवि, पाठक और भाव | इन तीनों का साधारणीकरण होता है | उनके विचारानुसार कवि अपने वैयक्तिक भावों से ऊपर उठकर भावाभिव्यक्ति करता है, यह उसका साधारणीकरण है | पाठक या श्रोता अपने वैयक्तिक भावों को त्याग कर सामान्य स्थिति में आ जाता है, यह उसका साधारणीकरण है | इसी प्रकार काव्य रूप में आने पर सभी भावों में अपने-पराए की भावना समाप्त हो जाती है, यह भावों का साधारणीकरण है |
(ङ ) आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने बाबू गुलाबराय के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि दर्शक या पाठक का कवि की भावना तक पहुँचना ही साधारणीकरण है |
(च ) डॉ नगेंद्र ने अपनी पुस्तक ‘रस सिद्धांत‘ में कहा है – “साधारणीकरण न तो आश्रय ( राम ) का होता है, न आलंबन ( सीता ) का अपितु यह कवि की अनुभूति का होता है |”
इस संबंध में वे माइकल मधुसूदन द्वारा रचित ‘मेघनाद वध’ का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इसमें मेघनाद के वध के पश्चात रावण के प्रति हमारे अंदर सहानुभूति जागृत होती है जबकि तुलसी के रावण के प्रति हमारे हृदय में घृणा-भाव है | इससे यह स्वत: स्पष्ट है कि हम लेखक की अनुभूति से ही तादात्म्य स्थापित करते हैं |
निष्कर्ष — इस प्रकार संस्कृत काव्यशास्त्रियों तथा आधुनिक हिंदी विद्वानों ने ‘साधारणीकरण’ के विषय में अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं | उपर्युक्त सभी मतों पर विचार करने के पश्चात यह स्पष्ट होता है कि साधारणीकरण के तीन प्रमुख तत्त्व हैं – कवि, सहृदय ( पाठक / श्रोता या दर्शक ) और कवि की भावाभिव्यक्ति | साधारणीकरण में यह तीनों तत्त्व समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं | यदि कवि प्रतिभा-संपन्न है और प्रभावशाली ढंग से भावाभिव्यक्ति करता है तो सहृदय उससे अवश्य प्रभावित होगा, उसका कवि के भाव के साथ तादात्म्य अवश्य स्थापित होगा | तादात्म्य स्थापित होने के पश्चात ही सहृदय साधारणीकरण की प्रक्रिया ( Sadharanikaran Ki Prakriya ) द्वारा रसानुभूति प्राप्त करेगा |
अतः साधारणीकरण रसानुभूति ( साध्य ) का साधन है | साधारणीकरण भारतीय काव्यशास्त्र की एक महत्वपूर्ण देन या उपलब्धि कही जा सकती है |
यह भी देखें
रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )
औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं
ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )
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