भारतीय काव्यशास्त्र में ध्वनि-सिद्धांत का अभ्युदय 9वीं सदी में हुआ | इससे पूर्व रस सिद्धांत, अलंकार सिद्धांत तथा रीति सिद्धांत को पर्याप्त लोकप्रियता मिल चुकी थी | ध्वनि-सिद्धांत के संस्थापक आनंदवर्धन ने ध्वनि की मौलिक उदभावना करके काव्य के अंतर्तत्त्वों की विशद व्याख्या की | उन्होंने काव्यात्मा के संदर्भ में प्रचलित भ्रांतियों पर व्यापक प्रकाश डाला |
आचार्य आनंदवर्धन ने अपनी पुस्तक ‘ध्वन्यालोक‘ में ध्वनि-सिद्धांत के संबंध में विस्तृत चर्चा की और ध्वनि के महत्व को प्रतिपादित किया |
(क ) आचार्य आनंदवर्धन ने परंपरागत काव्य सिद्धांतों रस, अलंकार तथा रीति आदि का सम्यक अध्ययन किया |
(ख ) उन्होंने काव्यशास्त्र में परंपरागत सिद्धांतों का स्थान निर्धारित किया |
(ग ) परंपरागत सिद्धांतों के गुण-दोषों का निष्पक्ष विवेचन करते हुए काव्य में ध्वनि की महत्ता पर प्रकाश डाला और ध्वनि को स्वतंत्र सिद्धांत के रूप में स्थापित किया |
(घ ) उन्होंने ध्वनि के साथ अन्य सिद्धांतों की तुलना की और उनके उपयोग पर समुचित प्रकाश डाला |
(ङ ) आचार्य आनंदवर्धन ने ध्वनि विरोधी आचार्यों जैसे प्रतिहारेन्दु राज, कुंतक, भट्ट नायक, महिम भट्ट और धनंजय जैसे आचार्यों के मतों का तर्कपूर्ण खंडन किया और ध्वनि को सुदृढ़ आधार प्रदान किया |
ध्वनि : अर्थ एवं स्वरूप
आचार्य आनंदवर्धन ने अपने ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक‘ में ध्वनि को काव्यात्मक घोषित किया | वे स्पष्ट कहते हैं —
“काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्य: समाम्नातपूर्व: |
तस्याभावं जगदुरपरे यावतामाहुस्तमन्ये ||
अर्थात मुझसे बहुत पहले पूर्ववर्ती आचार्यों ने ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार किया |
लेकिन ध्वनि है क्या? इस संदर्भ में प्रकाश डालते हुए हुए वे पुनः कहते हैं —
“ध्वनित: स: व्यंजक: शब्द: ध्वनि, ध्वनति ध्वनयति वा य: स: व्यंजकोsर्थो ध्वनि: |”
अर्थात जो ध्वनित होता है या ध्वनित करता है ; वह व्यंजक शब्द और अर्थ ही ध्वनि है |
एक सामान्य वक्ता और कवि दोनों ही शब्दों और अर्थों के माध्यम से अपनी बात अभिव्यक्त करते हैं लेकिन कवि की कही गई बात में रमणीयता व रसिकता होती है | कवि के कहे गए शब्दों के पीछे एक अन्य अर्थ भी छुपा होता है | वही अर्थ अपनी रमणीयता और रसिकता के कारण पाठक को रस का आस्वादन कराता है |
संक्षेप में ध्वनि को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है —
“अर्थ जहां अपने स्वरूप को और शब्द अपने वाच्यार्थ को गौण बनाकर एक नवीन अर्थ की व्यंजना करते हैं उसे ध्वनि की संज्ञा से अभिहित किया जाता है |”
ध्वनि का व्युत्पत्तिपरक अर्थ
‘ध्वनि’ शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जा सकती है —
(1) ‘ध्वन्यते इति ध्वनि:’ अर्थात जिससे ध्वनन होता है, उसे ध्वनि कहते हैं |
(2) ‘ध्वन्यते अनेन इति ध्वनि:’ अर्थात जिसके द्वारा ध्वनित किया जाता है वह ध्वनि है |
(3) ‘ध्वननं ध्वनि:’ अर्थात जिससे धवनन हो, वह ध्वनि है |
(4) ‘ध्वन्यतेsस्मिन्निति’ अर्थात जिससे वस्तु, रस,अलंकार आदि ध्वनित हों, उसे ध्वनि कहते हैं |
‘ध्वनि‘ शब्द की विभिन्न व्युत्पत्तियों के आधार पर ध्वनि शब्द से पांच अर्थ प्रकट होते हैं — (1) व्यंजक काव्य, (2) व्यंजक अर्थ, (3) व्यंग्य अर्थ, (4) व्यंजना व्यापार, (5) व्यंग्य काव्य |
ध्वनि सिद्धांत की स्थापना
ध्वनि के महत्व को स्वीकार करते हुए आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ साहित्य दर्पण में कहा है —
“वाच्यातिशायी व्यंग्य ही ध्वनि है और इस ध्वनि से युक्त काव्य ही उत्तम काव्य है |”
(1) आनंदवर्धन — आचार्य आनंदवर्धन ध्वनि संप्रदाय के प्रतिपादक माने जाते हैं | उन्होंने ‘ध्वनि‘ की व्याख्या इस प्रकार से की है —
“यत्रार्थ: शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृत स्वार्थौ |
व्यंग्यत: काव्यविशेष: स: ध्वनिरिति सूरिभि: कथित:”
अर्थात जहां अर्थ अपने स्वरूप को अथवा अभिधेयार्थ को गौण बनाकर प्रतीयमान अर्थ को व्यक्त करते हैं, उस काव्य विशेष को विद्वान ध्वनि कहते हैं ; जहां ‘तमर्थम’ अर्थात ‘उस अर्थ’ से ध्वनिकार का अभिप्राय ‘प्रतीयमान अर्थ’ है |
आचार्य आनंदवर्धन का कहना है कि प्रतीयमान अर्थ कुछ और ही वस्तु है जिस प्रकार रमणीयों के प्रसिद्ध अवयवों (मुख, नेत्र, नाक आदि से ) भिन्न उनके लावण्यों के समान महाकवियों की वाणी में ध्वनि भासित होती है | अर्थ यह है कि जैसे सुंदरियों का सौंदर्य उनके अंग प्रत्यंग से भासित होने पर भी भिन्न है उसी प्रकार प्रतीयमान अर्थ भी काव्य में उसके अंगों से पृथक अपना अस्तित्व रखता है | एक अन्य श्लोक में आचार्य आनंदवर्धन जी कहते हैं कि जिस प्रकार दीपशिखा और उससे उत्पन्न पदार्थ अलग-अलग हैं उसी प्रकार वाच्यार्थ और उसकी व्यंजना शक्ति द्वारा अभिव्यक्त ध्वन्यार्थ भी अलग-अलग तत्त्व हैं |
आनंदवर्धन की रचना ध्वन्यालोक चार उद्योतों में विभक्त है | इसमें कुल 121 कारिकाएं हैं |
प्रथम उद्योत में ध्वनि विरोधी मतों का खंडन करने के बाद ध्वनि का निरूपण, ध्वनि सिद्धांत की पृष्ठभूमि, रस, आदि ध्वनि, वाच्यार्थ, व्यंग्यार्थ, ध्वनि काव्य, लक्षण आदि पर प्रकाश डाला गया है |
द्वितीय उद्योत में ध्वनि के भेदों पर प्रकाश डाला गया है |
तृतीय उद्योत में व्यंग्य का रस संघटना के अन्य काव्यांगों से संबंध, रस विरोधी तत्त्व, व्यंग्य आदि पर प्रकाश डाला गया है |
चतुर्थ उद्योत में ध्वनि के महत्व और उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है |
(2) अभिनवगुप्त — आचार्य अभिनवगुप्त ने आनंदवर्धन की रचना ‘ध्वन्यालोक‘ पर ‘ध्वन्यालोक लोचन’ नामक महत्वपूर्ण टीका लिखी है | इस टीका ग्रंथ में उन्होंने ध्वनि सिद्धांत का प्रभावशाली तथा स्पष्ट विवेचन किया | उन्होंने न केवल आनंदवर्धन के सिद्धांतों और व्याख्याओं की विशद व्याख्या की बल्कि ध्वनि का रस उत्कर्ष में महत्वपूर्ण स्थान भी निर्धारित किया | उन्होंने ध्वनि और रस की एकात्मकता पर बल दिया |
अभिनवगुप्त ने कहा कि ध्वनिवादियों की व्यंजना शक्ति ही अभिव्यक्ति के रहस्य को स्पष्ट रूप से समझा सकती है | उनके अनुसार रस-भाव आदि का बोध व्यंग्य रूप में ही हुआ करता है |
आचार्य आनंदवर्धन ने ‘ध्वन्यालोक‘ में ध्वनि के तीन रूपों की स्थापना की थी — (क ) वस्तु ध्वनि, (ख ) अलंकार ध्वनि और ( ग ) रस ध्वनि |
अभिनवगुप्त ने स्वीकार किया कि काव्य की आत्मा ध्वनि है | फिर भी केवल ध्वनि को ही काव्य की आत्मा का सर्वस्व नहीं माना जा सकता | उसमें शब्दार्थ, गुणालंकारयुक्त रसात्मकतायुक्त चारुता का होना भी जरूरी है |
ध्वनि सिद्धांत के संबंध में अभिनवगुप्त की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने — (क ) रस को ध्वनि से व्यंजित माना है |
(ख ) अभिव्यंजना के कारण ही ध्वनि और रस में अटूट संबंध है |
(ग ) रसात्मक सौंदर्य को ध्वनि की संज्ञा दी जाती है |
अभिनवगुप्त के बाद राजशेखर, भोजराज, मम्मट, जयदेव, विद्याधर आदि विद्वानों ने भी ध्वनि सिद्धांत का समर्थन किया |
(3) आचार्य मम्मट — ध्वनि सिद्धांत के समर्थकों में आचार्य मम्मट का भी विशेष स्थान है | उन्होंने अपनी रचना ‘काव्य प्रकाश’ के चतुर्थ उल्लास में ध्वनि के भेदों का विस्तृत वर्णन किया | साथ ही पांचवें उल्लास में ध्वनि विरोधी मतों का खंडन भी किया | इनकी सबसे बड़ी देन यह है कि इन्होंने व्यंजना की स्वतंत्र वृत्ति के रूप में प्रतिष्ठा स्थापित की |
(4) रुय्यक और हेमचन्द्र — रुय्यक 12वीं सदी के आचार्य थे | इन्होंने अपनी रचना ‘अलंकार सर्वस्व’ में पूर्ववर्ती आचार्यों के ध्वनि संबंधी मतों का विवेचन करते हुए ध्वनि सिद्धांत की महत्ता का प्रतिपादन किया | आचार्य हेमचंद्र ने भी अपनी रचना ‘शब्दानुशासन‘ में अभिनवगुप्त के मत का समर्थन किया |
ध्वनि विरोधी आचार्यों के मत
ध्वनि सिद्धांत का खंडन आनंदवर्धन के द्वारा ध्वनि सिद्धांत देने से पूर्व ही हो रहा था | यही कारण है कि आनंदवर्धन ने ध्वनि विरोधी मतों का खंडन करके ध्वनि संप्रदाय की प्रतिष्ठा स्थापित की थी | परंतु उनके पश्चात भी ध्वनि विरोधी स्थापनाओं की समाप्ति नहीं हुई | ध्वनि सिद्धांत के विरोध में तर्क देने वाले कुछ प्रसिद्ध आचार्य निम्नलिखित हैं —
(क ) मुकुल भट्ट — यह आनंदवर्धन के समकालीन आचार्य थे | इन्होंने अपनी रचना ‘अभिधावृत्तिमात्रिका‘ में ध्वनि का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना और इसे लक्षणा के अंतर्गत समाहित कर दिया |
(ख ) प्रतिहारेंन्दु राज — यह मुकुल भट्ट के शिष्य थे | अलंकारवादी आचार्य होने के कारण उन्होंने ध्वनि को अलंकार के रूप में देखा |
(ग ) भट्टनायक — यह ध्वनि सिद्धांत के प्रबल विरोधी थे | इन्होंने अपने ग्रंथ ‘ह्रदयदर्पण‘ ( अप्राप्य ) में ध्वनि सिद्धांत का कड़ा विरोध किया | ध्वनि विरोधी तर्कों के कारण ही इस ग्रंथ को ध्वनि विध्वंसक ग्रंथ भी कहा जाता है |
(घ ) कुंतक — आचार्य कुंतक ने अपनी रचना ‘वक्रोक्ति जीवितम’ में ध्वनि के मतों का उल्लेख किया तथा उनका खंडन किया | उन्होंने काव्याभिव्यक्ति व्यंजना के स्थान पर अभिधा के महत्व को स्वीकार किया | यही नहीं उन्होंने अभिधा में ही व्यंजना और लक्षणा का समावेश कर लिया | साथ ही ध्वनि को वक्रोक्ति का एक रूप मान लिया |
(ङ ) धनंजय — धनंजय भी ध्वनि विरोधी आचार्य थे उन्होंने रसाभिव्यक्ति में व्यंजना को महत्व न देकर तात्पर्य शक्ति को स्वीकार किया |
(च ) महिमभट्ट — महिम भट्ट अंतिम ध्वनि विरोधी आचार्य थे | इन्होंने ‘व्यक्ति विवेक’ की रचना ध्वनि को अनुमान के अंतर्गत सिद्ध करने के लिए कि | उनके विचार काफी तर्कसंगत एवं मौलिक हैं |
रीतिकालीन आचार्यों के मत
रीतिकालीन आचार्यों ने भी ध्वनि सिद्धांत के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं लेकिन इनके विचारों में मौलिकता का अभाव है | इन्होंने प्रायः संस्कृत के आचार्यों का ही अनुकरण किया है |
(क ) चिंतामणि — रीतिकाल के प्रसिद्ध आचार्य चिंतामणि ने ध्वनि की विस्तृत व्याख्या की और ध्वनि काव्य को सभी काव्यों से उत्तम माना | साथ ही उन्होंने ध्वनि के विभिन्न भेदों पर भी प्रकाश डाला | ध्वनि के भेदों के बारे में वे लिखते हैं —
“प्रतिशब्दाकृत लब्धक्रम व्यंग्य सु त्रिविध बखानि |
शब्द, अर्थ जुग सक्ति भव इति ध्वनि भेद सुजानि ||”
(ख ) कुलपति मिश्र — इन्होंने अपनी रचना ‘रस रहस्य’ में मम्मट द्वारा रचित ‘काव्य प्रकाश’ को आधार बनाकर ध्वनि का विवेचन किया | इन्होंने काव्य के 3 भेदों का भी उल्लेख किया | वे ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते हैं और उसकी महत्ता स्वीकार करते हुए अलंकार आदि को ध्वनि की सिद्धि का साधन मानते हैं |
(ग ) भिखारी दास — रीतिकालीन प्रसिद्ध आचार्य भिखारी दास ने अपनी रचना ‘काव्य निर्णय’ में ध्वनि का सांगोपांग विवेचन किया | उन्होंने आचार्य मम्मट द्वारा दिए गए ध्वनि भेदों को आधार बनाकर अपने भेद गिनवाए | ध्वनि की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं —
“वाच्य अरथ ते व्यंग में चमत्कार अधिकार |
धुनि ताहि को कहत है, उत्तम काव्य विचार |”
(घ ) प्रतापसाहि — प्रतापसाहि की रचना ‘काव्य विलास’ है | इस रचना के 118 छंदों में इन्होंने ध्वनि का विस्तृत विवेचन किया है | इन्होंने भी ध्वनि के भेद गिनवाए हैं | ध्वनि की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं —
“वाच्य अपेक्षा अरथ को व्यंग चमत्कृत होइ |
शब्द अर्थ में प्रकट जो धुनि कहियत है सोइ |”
निष्कर्ष — ध्वनिवादी आचार्यों का यह मत है कि रस, अलंकार, रीति, गुण, औचित्य आदि सभी ध्वनि के साधन और उसके अंग हैं | काव्य में उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है | ध्वनि सिद्धांत के दो मुख्य उद्देश्य थे | एक तो ध्वनि की स्थापना और अन्य सिद्धांतों के रूप और महत्व का निर्धारण करना | दूसरा, इन आचार्यों ने काव्य में अन्य काव्य सिद्धांतों के मुकाबले में ध्वनि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया | यद्यपि आचार्य मम्मट ने ध्वनि का जोरदार समर्थन किया लेकिन आगे चलकर आचार्य विश्वनाथ और पंडित जगन्नाथ आदि विद्वानों ने रस को ही काव्यात्मक घोषित किया |
यह भी देखें
सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )
औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं
वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )
रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )
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