भक्तिपरक रचनाओं में प्रायः अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है । सगुण व निर्गुण भक्ति काव्य दोनों में ही विभिन्न रूपकों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की महत्ता प्रतिपादित की गई है । सगुण काव्य में जहाँ राधा-कृष्ण या गोपियों के प्रसंगों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है वहीं निर्गुण काव्य में आत्मा को ही परमात्मा रूपी प्रिय को पाने के लिए विरह संतप्त नायिका या प्रेमिका के रूप में दर्शाया गया है । सूफ़ी काव्य भी लोक प्रचलित प्रेम कथाओं को ही अलौकिक प्रेम के रूप में प्रस्तुत करता है ।
परंतु मेरे मतानुसार लौकिक प्रेम की असफलता ही अलौकिक प्रेम की जननी है । लौकिक प्रेम में असफल व्यक्ति ही अलौकिक प्रेम की ओर अग्रसर होता है ।क्योंकि वहाँ द्विपक्षीय होते हुए भी प्रेम एकपक्षीय ही होता है । साधक स्वयं ही विभिन्न स्थितियाँ गढ़ता है। विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में अपने प्रिय को दोषी न मान ख़ुद को ही दोषी या उन परिस्थितियों के योग्य मानता है ।ख़ुद ही रूठता है ख़ुद ही मनाता है । ख़ुद ही हँसता है ख़ुद ही हँसाता है। भले ही विरह संतप्त गोपियाँ श्री कृष्ण के मथुरा जाने पर व्यथित हो जाती हैं ,उन्हें उलाहना देती हैं परंतु कहीं भी उनको भूलने की बात नहीं करती बल्कि उनकी स्मृतियों को ही अपने जीने का आधार मानती हैं । यह लौकिक प्रेम की पराकाष्ठा है जिसे अलौकिक प्रेम के नाम से अभिहित किया जाता है। अलौकिक प्रेम विशद प्रेम का सैद्धांतिक रूप है जो व्यावहारिकरूप में समाज में नगण्य है । सगुण रूप में ईश्वर भक्ति करने करने वाले साधक या तो समाज से विरक्त होते हैं या विरक्ति का स्वाँग रचते हैं । वस्तुतः समाज से विरक्त व्यक्ति जब अलौकिक प्रेम की ओर अग्रसर होता है और उसमें ब्रहमानंद प्राप्त करने लगता है तो उस अवस्था में वह वहाँ भी उसी लौकिक प्रेम की रसानुभूति करता है जिससे विरक्त होने का वह स्वाँग रचता है । भक्ति साहित्य में इस प्रकार के साहित्य की भरमार है और निश्चय ही वह साहित्य हमारे तन मन को आनंदित व आह्लादित करता है परंतु यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि पाठक भी साहित्य में वर्णित कथा व प्रसंगों से रसानुभूति तभी कर पाते हैं जब वे उनके जीवन में घटित हुए हों या उनके घटित होने की सम्भावना हो या जिन प्रसंगों को वे अपने जीवन में घटित होते देखना चाहते हों। कृष्ण साहित्य की लोकप्रियता का यही सर्वप्रमुख कारण है कि इसमें आजीविका के लिए संघर्षरत व्यक्ति व साधन सम्पन्न व्यक्ति ;दोनों अपनी-अपनी अतृप्त कामनाओं को संतुष्ट करने की चेष्टा करते हैं । मगर यह सब मृगतृष्णा सिद्ध होता है । हाँ ;भक्ति साहित्य में वर्णित अलौकिक साहित्य का का इतना महत्त्व अवश्य है कि यह मनुष्य को जीवन में प्रेम के महत्त्व से परिचित कराता है और अन्तत: यही जीवन का परम सत्य है । अलौकिक प्रेम महज़ एक छलावा है ,लौकिक प्रेम ही वास्तविक प्रेम है और हर मनुष्य का अभीष्ट है ।
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