आवश्यकता एक और सामाजिक आंदोलन की

जनता का,जनता के लिए,जनता के द्वारा शासन ही लोकतंत्र है -अब्राहिम लिंकन की यह उक्ति लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप के संदर्भ में सर्वथा असंगत प्रतीत होती है क्योंकि आज लोकतंत्र एक विशिष्ट धनी वर्ग के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया है । शासक और शासित के बीच की खाई स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। आम जनता की शासन में भागीदारी मात्र मतदान तक सीमित रह गयी है। शासक आज भी स्वेच्छाचारी व निरंकुश हैं ।

एक बार सरकार चुन लेने के बाद उस पर जनता का कोई अंकुश नहीं रहता। एसे में लोकतंत्र को मर्यादित रूप प्रदान करने के लिए दो ही रास्ते हैं : एक , समाज में समानता लाई जाए परंतु लोकतंत्र के अभाव में समानता की कल्पना भी नहीं की जा सकती । दूसरे ,समाज में नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की जाए । नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना से मेरा अभिप्राय यह नहीं की सभी व्यक्ति दुर्गुणों से रहित हो जाएँगे और अत्याचारी ,संवेदनहीन शासक अचानक उदार , संवेदनशील प्रजाहितकारी बन जाएँगे । हाँ , इतना अवश्य होगा कि अनैतिक गतिविधियों में संलिप्त रहे व अमानवीय आचरण करने वाले लोगों के विरुद्ध  एक जुट हो बहुसंख्यक वर्ग उन्हें सत्ताच्युत कर सके । दुष्ट लोगों को निर्भीक होकर नकार सकें भले ही वे कोई धनकुबेर ,किसी बड़े राजनीतिक दल से समर्थन प्राप्त नेता या किसी धर्म के प्रसिद्ध धर्मगुरु ही क्यों न हों ।

 इस कल्पना को साकार करने के लिए एक ऐसे सामाजिक -धार्मिक आंदोलन की आवश्यकता है जिसकी झलक हम मध्यकाल व पुनर्जागरण काल में देख चुके हैं । परंतु वर्तमान समय में ऐसे कबीर , नानक व रैदास मिलने असम्भव से लगते हैं जो शास्त्रों में वर्णित अनुचित व वर्तमान समय में अप्रासंगिक परम्पराओं को निर्भीक होकर ठुकरा सकें ।         देश की तमाम समस्याओं को भूल कर जिस तरह से घरों में कुत्ते पालने वाले लोग गौ रक्षा के नाम पर सदियों पुराने धर्मग्रंथो का हवाला देकर अपने सभी पापों को ढकने की सफल कोशिश कर रहे हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि अभी इस समाज को अनेक कबीरदासों की आवश्यकता है ।

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