चोल साम्राज्य
( Chola Empire )
( 3री सदी से 13वीं सदी )
चोल वंश का उत्कर्ष 9वीं सदी में हुआ परंतु इनका आरम्भिक इतिहास संगम युग ( Sangama Period ) से है ।
संगम काल में चोलों में राजा कारिकाल ( Raja Karikal ) महंत शासक था । चोल साम्राज्य पेन्नार और कावेरी नदियों के बीच स्थित था ।

वास्तव में
चोल वंश ( Chola Dynasty ) की स्थापना 9वीं शताब्दी में पल्लवों के ध्वंस अवशेषों पर हुई । इस वंश की स्थापना
विजयालय ( 850-887 ) ने की । उसकी राजधानी
तंजौर ( Tanjavar / Tanjaur ) थी । तंजौर ( तमिलनाडु ) का प्रसिद्ध वास्तुकार
पेरूथच्चन ( Peruthachchan ) था ।

विजयालय प्रारम्भ में पल्लवों के अधीन सामंत था । इसने तंजौर पर अधिकार करके ‘
नर केसरी’ की उपाधि धारण की । उसने ‘
निशुम्भसूदिनी देवी’ का मंदिर बनवाया ।
आदित्य प्रथम ( 887- 907 ई० ) ने चोलों को पूर्णत: स्वतंत्र घोषित किया । उसने पल्लवों को पराजित कर ‘
कोदंडराम‘ की उपाधि धारण की ।

चोलों के अन्य प्रमुख राजा थे : परांतक प्रथम ( 907-953) , राजराज प्रथम( 985-1012) , राजेंद्र प्रथम ( 1012-1044 ) , राजेंद्र द्वितीय ( 1052-1064) , कुलोतुंग ( 1070-1120 ) ।
परांतक प्रथम ( 907-953) ने मदुरै के पाण्डय राजा को पराजित कर ‘
मदुरैकोंड’ ( Maduraikond ) की उपाधि धारण की ।
राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने परांतक प्रथम को पराजित कर रामेश्वर तक अपने राज्य का विस्तार किया ।

985 ई० में
राजराज प्रथम (985-1012) के गद्दी पर बैठते ही चोल वंश की महानता का युग आरम्भ हुआ । उसने चेरों की नौ-सेना को
कंडलूर में पराजित किया । उसने ‘
कंडलूरशालैकलमरुत‘ की उपाधि धारण की । उसने श्री लंका के राजा
महेंद्र पंचम को पराजित किया । श्री लंका के विजित क्षेत्रों को उसने चोल साम्राज्य का नया प्रांत बनाया । उसने इसका नाम ‘
मुंडीचोलमंडलम‘ रखा तथा ‘
पोलन्नरुवा‘ को इसकी राजधानी बनाया ।

राजराज प्रथम शैव धर्म का अनुयायी था । उसने तंजौर के
बृहदेश्वर मंदिर ( Brihdeshvar Temple ) का निर्माण करवाया । इसे ‘
राजराजेश्वर मन्दिर’ भी कहा जाता है ।
राजेंद्र प्रथम ( Rajendra Chola ) ने 1012-1044 ई० तक शासन किया । महमूद गजनवी के समय राजराज प्रथम तथा राजेंद्र प्रथम का शासन था । चोल वंश का सर्वाधिक विस्तार राजेंद्र प्रथम के शासन काल में हुआ । राजेंद्र प्रथम ने बंगाल के पाल शासक महीपाल को पराजित कर
‘गंगैकोंडचोल’ ( Gangaikondchol ) की उपाधि धारण की । उसने नवीन राजधानी ‘
गंगैकोंडचोलपुरम‘
( Gangaikondcholpuram ) के निकट ‘
चोलगंगम‘ नामक तालाब का निर्माण करवाया ।

राजेंद्र प्रथम की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय
कडारम के श्री विजय साम्राज्य की थी । यह साम्राज्य मलाया , सुमात्रा, जावा द्वीपों तक फैला हुआ था ।
राजेंद्र द्वितीय ने 1052 से 1064 ई० तक शासन किया । उसने ‘प्रकेसरी’ की उपाधि धारण की । उसने
‘कोप्पम के युद्ध’ में कल्याणी के चालुक्यों को पराजित कर युद्ध भूमि में ही अपना राज्याभिषेक किया ।
राजेंद्र तृतीय चोल वंश का अंतिम शासक था । उसने 1246 से 1279 ई० तक शासन किया ।

चोल प्रशासन में भाग लेने वाले उच्च अधिकारियों को ‘
पेरूंदरम‘ तथा निम्न श्रेणियों के अधिकारियों को ‘
शेरूंदरम‘ कहा जाता था । सरकारी पद वंशानुगत होते थे ।

सम्पूर्ण चोल प्रशासन छह प्रांतों में बँटा था । प्रांत को ‘
मंडलम‘ कहा जाता था । मंडल
वलनाडु में , वलनाडु
नाडु में तथा नाडु
कुर्रम में विभक्त थे ।

नाडु की स्थानीय सभा को ‘
नातूर ( नहार ) तथा नगर की स्थानीय सभा को ‘
नगरतार‘ कहा जाता था ।
स्थानीय स्वशासन चोल प्रशासन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी । ‘उर’ सर्वसाधारण लोगों की भाषा थी । ‘सभा या महासभा’ अग्रहारों और ब्राह्मणों की सभा थी । व्यापारियों की सभा को ‘नगरम‘ कहते थे ।
राजा के मंत्रियों को ‘उडनकुट्टम‘ कहा जाता था । राजा के व्यक्तिगत अंगरक्षकों को ‘वेडेक्कार‘ कहा जाता था ।
अधिकारियों को वेतन के स्थान पर ज़मीन प्राप्त होती थी ।
राज्य की आय का। प्रमुख साधन भूमि कर था जिसे ग्राम सभाएँ वसूल करती थी । यह उपज का 1/3 भाग था । भूमि माप की इकाई ‘वेलि’थी ।
चोल साम्राज्य ( Chola Dynasty ) में विवाह समारोह पर भी कर लगता था ।
चोल काल में सोने के सिक्के को ‘कलजू या काशू’ कहा जाता था ।
चोलक़ालीन काँसे की नटराज प्रतिमा कला का उत्कृष्ट नमूना मानी जाती है ।
चोलक़ालीन सबसे महत्त्वपूर्ण बंदरगाह कावेरिपट्टनम था ।
चोलकाल में पाँच प्रकार भूमि का उल्लेख मिलता है : वेल्लनवगाई , ब्रह्मदेय, शालाभोग , देवदान व पल्लीचंदम ।
वेल्लनवगाई ग़ैर ब्राह्मण किसान के स्वामित्व की भूमि थी । ब्रह्मदेय ब्राह्मणों को उपहार में दी गयी भूमि थी । शालाभोग किसी विद्यालय को दी गयी भूमि थी । देवदान मंदिर को उपहार में दी गयी भूमि थी । पल्लीचंदम जैन संस्थाओं को दान दी गयी भूमि थी ।
’वेल्लाल‘ शूद्र कृषक थे ।
चोलों की राजधानी कालक्रमानुसार थी : उरयूर ,तंजौर , गंगैकोंडचोलपुरम , काँची
चोल समाज में क्षत्रिय व वैश्य वर्ग नहीं थे । कुछ वर्गों को अछूत माना जाता था उन्हें ‘परैया’ कहा जाता था ।
चोलकाल में द्रविड़ शैली ( Dravid Shaili ) अपनी पराकाष्ठा पर थी । द्रविड़ शैली की विशेषता विमान थी ।
पण्ड्या द्रविड़ शैली की विशेषता ‘गोपुरम‘ थी ।
पल्लव द्रविड़ शैली की विशेषता ‘मंडप‘ थी ।
पंप , पोन्न , रत्न कन्नड़ साहित्य के त्रिरत्न थे । पंप ने आदिपुराण , पोन्न ने शांतिपुराण तथा रत्न ने अजितपुराण की रचना की ।
तमिल साहित्य के त्रिरत्न कम्बन ( kamban ) , ओट्टकुट्टन तथा पुगलेनिद थे ।
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