रीति’ शब्द का अर्थ एवं स्वरूप ( ‘Reeti’ Shabd Ka Arth Evam Swaroop )
‘रीति’ शब्द ‘रींङ’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय के जुड़ने से बना है | इसका अर्थ है-मार्ग | काव्यशास्त्र में इसे विधि, पद्धति आदि के अर्थ में प्रयोग किया जाता है | आज ‘रीति’ शब्द का अर्थ शैली के रूप में लिया जाता है | रीतिकाव्य के संदर्भ में ‘रीति’ का अर्थ है-विशिष्ट पद रचना |
डॉक्टर बलदेव उपाध्याय के अनुसार पदों की विशिष्ट रचना का नाम की रीति है| संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति का अर्थ काव्यांग विशेष के लिए रूढ हो गया है | हिंदी के रीतिकालीन कवियों ने रीति का अर्थ ‘काव्य-रचना पद्धति’ से लिया है |
रीतिकाल की सीमा निर्धारण ( Ritikal Ki Samay Seema )
हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में बांटा गया है-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल | मध्य काल के दो भाग किए गए हैं – पूर्व मध्यकाल व उत्तर मध्यकाल | आज पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल व उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम से जाना जाता है |
रीतिकाल की समय सीमा को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं | इसका कारण यह है कि भक्तिकाल के अनेक ग्रंथों में भी रीतिग्रंथों के लक्षण मिलते हैं | उदाहरण के लिए सूरदास जी की ‘साहित्य लहरी’ में नायिका-भेद वर्णन रीति-पद्धति पर आधारित है | परंतु संवत 1700 के आसपास रीतिग्रंथों की प्रचुरता दिखाई देती है | जहां तक की रीतिकाल की अंतिम सीमा का प्रश्न है उसे संवत 1900 स्वीकारा जा सकता है | अर्थात संवत 1700 से संवत 1900 के बीच के काल को रीतिकाल कहा जा सकता है |
रीतिकाल का नामकरण ( Ritikal Ka Naamkaran )
रीतिकाल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है | मिश्र बंधुओं ने अपने ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ में रीतिकाल को ‘अलंकृत काल’ कहा है | उन्होंने इसे दो भागों में बांटा है-पूर्व अलंकृत काल तथा उत्तर अलंकृत काल | आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल को ‘रीतिकाल‘ नाम दिया है | आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिकाल को ‘श्रृंगार काल’ नाम दिया है | डॉo रामकुमार वर्मा व डॉo रमाशंकर शुक्ल रसाल ने इस काल को ‘कला काल’ नाम दिया है | डॉo भागीरथ मिश्र ने इस काल की दो मुख्य प्रवृत्तियों रीति व श्रृंगार को ध्यान में रखते हुए इस काल को ‘रीति-श्रृंगार काल’ कहा है | अधिकांश विद्वान रीतिकाल के निम्नलिखित नाम स्वीकार करते हैं |
1. अलंकृत काल – मिश्र बंधु
2.श्रृंगार काल – आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
3. कला काल – डॉo रामकुमार वर्मा व डॉo रमाशंकर शुक्ल रसाल
4. रीति-श्रृंगार काल – डॉo भागीरथ मिश्र
5. रीतिकाल – आचार्य रामचंद्र शुक्ल
(1) अलंकृत काल: मिश्र बंधुओं ने अपने ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ ( Mishrabandhu Vinod ) में रीतिकाल को ‘अलंकृत काल’ का नाम दिया है | उन्होंने इस काल को दो वर्गों में बांटा है – पूर्व अलंकृत काल व उत्तर अलंकृत काल | अपने इस नामकरण का समर्थन करते हुए वे कहते हैं – ” इस काल में भाषा अलंकृत हुई, वीर रस और श्रृंगार की वृद्धि हुई, आचार्यत्व में परिपक्वता आई |”
उनका मानना था कि इस काल में कविता का अत्यधिक अलंकरण हुआ | वे मानते थे कि जिस प्रकार अग्नि उष्णता से रहित नहीं हो सकती ठीक उसी प्रकार कविता अलंकारों से रहित नहीं हो सकती |
संस्कृत काव्यशास्त्री भी यही कहते हैं | परंतु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस काल में रीति-ग्रंथों का का अत्यधिक प्रचार हुआ और आचार्यत्व की वृद्धि भी हुई | उधर आचार्य शुक्ल ने इस नाम पर आपत्ति तो नहीं की परंतु इसे स्वीकार भी नहीं की | उनका मानना था अलंकार प्रयोग रीति का ही एक अंश है | अंत में मिश्र बंधुओं ने स्वयं इसका विभाजन करके इसे और अधिक अस्पष्ट कर दिया | हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि रीतिकाल में केवल अलंकरण की ही प्रधानता नहीं थी | अतः रीतिकाल को अलंकृत काल कहना तर्कसंगत नहीं है |
(2) श्रृंगार काल : आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ( Aacharya Vishvnath Prasad Mishra ) ने रीतिकाल को श्रृंगार काल नाम दिया है | अपने मत की पुष्टि करते हुए विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी कहते हैं कि जिस प्रकार भक्तिकाल में भक्ति की प्रधानता थी ठीक उसी प्रकार रीतिकाल में श्रृंगार की प्रधानता है | रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्ति व वर्ण्य विषय श्रृंगार ही है | इस आधार पर वे मानते हैं कि इस काल को श्रृंगार काल कहना उचित होगा | आचार्य शुक्ल ने भी इस नाम का विरोध नहीं किया | वे लिखते हैं – ” वास्तव में श्रृंगार और वीर इन दो रसों की कविता इस काल में हुई | प्रधानता श्रृंगार रस की रही | इस आधार पर अगर इस काल को कोई श्रृंगार काल कहे तो कह सकता है |”
परंतु इस काल को श्रृंगार काल कहने में अनेक आपत्तियां हैं | पहली बात तो यह है कि इस काल में श्रृंगार की प्रधानता तो है परंतु वह स्वतंत्र नहीं है | वह सर्वत्र रीति पर आधारित है | दूसरा, श्रृंगार काल नाम रीतिकाल की केवल एक प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है | तीसरा, रीति काल में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं जिन्होंने अपने काव्यों में श्रृंगार को अधिक महत्व नहीं दिया | इस काल में भूषण, श्रीधर, सूदन जैसे वीर रस के कवि भी हुए हैं |
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि श्रृंगारिकता इस काल की एक प्रमुख प्रवृत्ति थी परंतु जितना भी श्रृंगार-काव्य रचा गया वह रीति पर आधारित था |
(3) कलाकाल : डॉo रामकुमार वर्मा, डॉo रमाशंकर शुक्ल रसाल ने रीतिकाल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है | सर्वप्रथम डॉo रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ( Dr Ramashankar Shukl ‘Rasal’ ) ने रीतिकाल को कलाकाल नाम दिया | बाद में डॉo रामकुमार वर्मा ने इसका समर्थन किया | डॉo रमाशंकर शुक्ल रसाल कहते हैं – ” इस काल में काव्य-कला का सर्वाधिक विकास हुआ | इस काल में कला के नियमों और कला-नियमों से संबंध रखने वाले रीति या लक्षण-ग्रंथों की रचना हुई |” परंतु इस काल को कलाकाल कहने में भी कुछ आपत्तियां है | पहली आपत्ति तो यह है कि यदि हम इस काल को कलाकाल नाम देते हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि इस काल के कवियों ने केवल कला पक्ष पर ध्यान दिया, भाव पक्ष पर नहीं | यह मानना उन कवियों के साथ अन्याय होगा |
सच तो यह है कि केशवदास,भिखारी दास, बिहारी, घनानंद, भूषण आदि रीतिकालीन कवियों के काव्य में कला-पक्ष और भाव-पक्ष दोनों ही पक्ष प्रभावशाली हैं |
अतः इस काल को ‘कला काल’ कहना नितांत अनुचित होगा |
(4) रीति-श्रृंगार काल : डॉo भागीरथ मिश्र ( Dr Bhagirath Mishra ) ने रीतिकाल को ‘रीति-श्रृंगार काल’ की संज्ञा दी है | डॉo भागीरथ मिश्र ने रीतिकाल का यह नामकरण करते हुए उसकी दो प्रमुख प्रवृत्तियों की ओर ध्यान दिया है : रीति और श्रृंगार | उनका मानना है कि इस काल में श्रृंगार की प्रधानता थी | दूसरा, इस युग में रीति का बोलबाला था | इस काल का काव्य शास्त्रीय- पद्धति या रीति के आधार पर रचा गया | इस आधार पर डॉo भागीरथ मिश्र ने इस काल को ‘रीति-श्रृंगार काल’ नाम देना उचित समझा |
लेकिन उनका यह मत भी स्वीकार्य नहीं है क्योंकि इस काल में रीतिमुक्त काव्य तथा नीतिपरक काव्य भी रचा गया | विशेषत: घनानंद, ठाकुर आदि रीतिमुक्त कवि रीति से जुड़े हुए नहीं थे परंतु उनका काव्य हिंदी साहित्य में विशेष स्थान रखता है | कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि दो प्रवृत्तियों के आधार पर किसी काल का नामकरण करना अटपटा सा लगता है | अतः रीतिकाल को रीति-श्रृंगार काल नाम देना भी उचित प्रतीत नहीं होता |
(5) रीतिकाल :आचार्य रामचंद्र शुक्ल ( Aachary Ramchandra Shukl ) ने मध्यकाल के उत्तरार्द्ध को रीतिकाल नाम दिया है | अधिकांश विद्वान उनका समर्थन करते हैं | डॉo नगेंद्र और डॉo हरीश चंद्र वर्मा ने रीतिकाल नाम उचित माना है |
आचार्य वामन ने रीति को ‘काव्य की आत्मा’ कहकर रीति को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया है | आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य में रीति को रस, अलंकार, गुण, ध्वनि आदि के पर्याय के रूप में लिया है | दूसरे शब्दों में शुक्ल ने रीति को भारतीय काव्यशास्त्र का पर्याय माना है |
मिश्र बंधुओं ने भी अपनी पुस्तक ‘मिश्रबंधु विनोद’ में ‘रीति’ शब्द की व्याख्या इसी अर्थ में की है | परंतु शुक्ल जी ने ‘रीति’ शब्द की पुन: व्याख्या की | वे कहते हैं कि जिसने लक्षण ग्रंथ लिखा हो वही रीति कवि नहीं है बल्कि जिसकी दृष्टि रीतिबद्ध हो, वह भी रीति कवि है | इसलिए इस काल को शुक्ल जी ने रीतिकाल नाम दिया |
रीतिकाल नाम श्रृंगार काल, अलंकृत काल तथा कलाकाल की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक व तर्कसंगत प्रतीत होता है | इसका प्रमुख कारण यह है कि रीतिकाल के कवियों ने अपनी रचनाओं में भले ही श्रृंगार तथा अलंकारों का अधिक प्रयोग किया हो लेकिन यह सभी कवि रीति का निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं | चाहे रीतिबद्ध कवि हो, रीतिसिद्ध या रीतिमुक्त ; सभी ने रीति की अनुपालना की है | श्रृंगार, अलंकार जैसी प्रवृत्तियां भी ‘रीति’ में अपने आप आ जाती हैं |
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि अलंकार और श्रृंगार, जो इस काल की प्रमुख प्रवृतियां है उनमें भी रीति का पोषण हुआ है |
सभी रीतिकालीन कवियों ने रस, छंद, अलंकार, नायक-नायिका भेद आदि का निरूपण किया है | अतः इस काल को रीतिकाल नाम देना अधिक तर्कसंगत होगा |
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