हिंदी साहित्य के मध्यकाल के परवर्ती काल को रीतिकाल के नाम से जाना जाता है | अतः स्पष्ट है कि संवत 1700 से संवत 1900 तक का काल रीतिकाल कहलाता है | रीतिकाल में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है-रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध तथा रीतिमुक्त |
रीतिबद्ध काव्य परंपरा
( Reeetibaddh Kavya Parampara )
रीतिबद्ध कवि वे कवि हैं जिन्होंने संस्कृत-काव्यशास्त्रों के आधार पर लक्षण ग्रंथ लिखे| इन कवियों ने काव्य अंगों के लक्षण प्रस्तुत करते हुए उनके सुंदर उदाहरण जुटाए |
रीतिबद्ध कवियों को ‘शास्त्र-कवि’, ‘कवि-शिक्षक’ या ‘आचार्य-कवि’ भी कहा जाता है |
डॉ नगेंद्र ने इन कवियों को रीतिकार या आचार्य-कवि कहा है |
इन कवियों में प्रमुख हैं-केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम, पद्माकर, श्रीपति आदि |
केशवदास की प्रमुख रचनाएं हैं- कवि प्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, जहांगीर जस चंद्रिका आदि |
चिंतामणि की प्रमुख रचनाएं ‘कवि कुल कलपतरु’ व ‘पिंगल’ हैं |
देव की प्रमुख रचनाएं ‘भाव-विलास’, ‘भवानी-विलास’, ‘कुशल-विलास’, ‘जाति-विलास’, ‘शब्द-रसायन’ आदि हैं |
‘ललित-ललाम’ मतिराम की प्रमुख रचना है |
पद्माकर की प्रमुख रचनाएं हैं-जगत विनोद व पदमाभरण |
‘कवि-कल्पद्रुम’ व ‘अनुप्रास-विनोद’ श्रीपति की प्रमुख रचनाएं हैं | इन कवियों के अतिरिक्त भूषण और भिखारी दास भी इसी कोटि के कवि हैं |
रीतिबद्ध काव्य की प्रवृत्तियां या विशेषताएं
( Ritibadh Kavya Ki Pravrittiyan )
(1) रीति ग्रंथों का निर्माण- संस्कृत साहित्य के लक्षण ग्रंथ कारों का अनुसरण करते हुए सभी रीतिबद्ध कवियों ने लक्ष्मीकांत लिखे | इन कवियों ने रस, अलंकार, नायिका-भेद आदि के उदाहरण देते हुए काव्य रचनाएं लिखी | चिंतामणि, भूषण, देव, भिखारीदास आदि ने रीति ग्रंथों की रचना की | इन कवियों ने संस्कृत के भामह, दंडी, मम्मट, राजशेखर आदि का अनुसरण किया लेकिन इन कवियों को संस्कृत के आचार्यों के समान सफलता नहीं मिली | इन कवियों की काव्य-विधि में मौलिकता का अभाव है | आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचन-शक्ति की आवश्यकता होती है, वह भी इन कवियों में नहीं है | इसका कारण यह था कि इन कवियों को कवि और आचार्य-कर्म एक साथ निभाना बड़ा |
(2) श्रृंगार निरूपण- श्रृंगार वर्णन रीति-काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति है | इस काल में भक्तिकाल के राधा-कृष्ण भी विलासी नायक-नायिका मात्र बन कर रह गए | इस काल में सर्वाधिक प्रमुख रस श्रृंगार-रस था | इन कवियों ने श्रृंगार के संयोग-पक्ष का वर्णन अधिक किया है | वियोग वर्णन में मार्मिकता का अभाव है | संयोग-वर्णन में सुरत, विपरीत-रति, हास-परिहास का वर्णन मिलता है | विभिन्न तीज त्योहारों पावस आदि का सुंदर वर्णन मिलता है | श्रृंगारी भावना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण इन कवियों का दरबारी कवि होना था | अपने स्वामी को खुश करना ही इनका प्रमुख ध्येय था | अतः इन कवियों ने श्रृंगार-वर्णन को सर्वाधिक महत्व दिया |
(3) अलंकार प्रयोग व चमत्कार वर्णन- रीतिकालीन कवियों ने अपनी आश्रय-दाता राजाओं व सामंतों को प्रसन्न करने के लिए चमत्कार का सहारा लिया | इन कवियों ने विलासी राजाओं को खुश करने के लिए कल्पना की उड़ान, वाकपटुता, चमत्कार- वर्णन आदि का सहारा लिया | इन कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं को अलंकृत करने के लिए अनेक ढंग अपनाये | इसलिए डॉo रामकुमार ने इस काल को कलाकाल व मित्र-बंधुओं ने अलंकृत काल की संज्ञा दी है | इन कवियों के लिए अलंकार साधन नहीं बल्कि साध्य बन गए थे |
(4) प्रकृति वर्णन- रीति काल में प्रकृति का चित्रण आलंबन और उद्दीपन दोनों रूपों में मिलता है |. यह प्रकृति-चित्रण नायक-नायिका की मनोदशा के अनुरूप हुआ है | संयोग दशा में प्रकृति का मनोहारी चित्रण है तथा वियोग दशा में त्रास उत्पन्न करने वाला रूप है | रीतिकाल में स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन दुर्लभ है | प्रकृति के विभिन्न अवयवों का वर्णन इन्होंने नायक व नायिका के रूप-सौंदर्य का वर्णन करने के लिए भी किया है | नायक-नायिका की सुंदरता के लिए अनेक उपमाएं प्रकृति से ली गई हैं | इन कवियों ने प्रकृति चित्रण में अनेक नए उपमान भी प्रयोग किए हैं | इनका प्रकृति-चित्रण उद्दीपन रूप में कहीं अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है |
(5) नारी वर्णन- रीतिकाल के कवियों ने नारी का कामुक वर्णन किया है | इनके लिए नारी केवल भोग विलास की वस्तु है | इन्होंने नारी को प्राय: नायिका के रूप में चित्रित किया है जो नायक के प्रेम में बंधी है अर्थात इन्होंने नारी को अधिकार क्षेत्र में प्रेमिका के रूप में चित्रित किया है | यह कवि नारी के शारीरिक-सौंदर्य का वर्णन ही करते रहे | इसका प्रमुख कारण यह था कि अधिकांश रीतिकालीन कवि दरबारी कवि थे | इनका प्रमुख उद्देश्य अपने आश्रय दाता राजा को प्रसन्न करना था जो प्रायः भोग विलास में डूबे रहते थे | अतः इन्होंने नारी को भोग-विलास के साधन के रूप में प्रस्तुत किया | मानो वासना ही इन कवियों के लिए सब कुछ थी |
(6) काव्य-रूप- रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने मुक्तक काव्य की रचना की है |आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुक्तक काव्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखा है लेकिन रीतिकाल की मांग ही मुक्तक-काव्य थी | राजाओं तथा नवाबों के पास इतना समय नहीं था कि वे प्रबंध-काव्य सुन सकें और दरबारी कवियों का एकमात्र उद्देश्य अपने आश्रयदाता राजाओं को प्रसन्न करना था | उन्होंने मुक्तक काव्य की रचना की |
(7) कला- इन कवियों ने अपने काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए छंदों, अलंकारों, बिंबों आदि का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है |
छंदों की दृष्टि से इन कवियों ने प्राय: दोहा, कवित्त, सवैया का प्रयोग किया है | इसके अतिरिक्त छप्पय, बरवै, सोरठा आदि का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिलता है | फिर भी इन कवियों ने दोहा, कवित्त, सवैया का अधिक प्रयोग किया है क्योंकि ये छंद ब्रज-भाषा की प्रकृति के अनुकूल थे |
चमत्कार उत्पन्न करने के लिए इन कवियों ने विभिन्न प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है | इन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार ; दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग बखूबी किया है | इन कवियों ने अपने काव्य में अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्ति, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग बखूबी किया है | इन कवियों के लिए अलंकार साधन नहीं बल्कि साध्य बन गए थे |
(8) ब्रजभाषा की प्रधानता- रीति काल में अधिकांश काव्य ब्रजभाषा में रचा गया | ब्रज भाषा ही इस युग की प्रधान साहित्यिक भाषा थी | इसका प्रमुख कारण यह था कि ब्रजभाषा श्रृंगार-रस व कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त भाषा थी | रीतिकाल के अधिकांश कवि केवल अपने स्वामी अर्थात अपने आश्रयदाता राजा को प्रसन्न करने के लिए काव्य-रचना कर रहे थे | अतः उन्होंने ब्रजभाषा जैसी मधुर भाषा को चुना |
डॉ नगेंद्र इस विषय में लिखते हैं- ” भाषा के प्रयोग में इन कवियों ने एक खास नाजुक मिजाजी बरती है | इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की गुंजाइश नहीं जिसमें माधुर्य न हो |”
वस्तुतः ब्रजभाषा का जितना उत्कर्ष किस काल में हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ | फिर भी हम इनकी भाषा को पूर्ण तरह निर्दोष नहीं मान सकते | रीतिकालीन कवियों की भाषा में कई स्थान पर कारक-चिन्हों की त्रुटि है | कहीं-कहीं लिंग-संबंधी दोष हैं परंतु उनकी भाषा में सर्वत्र मधुरता व मादकता के दर्शन होते हैं |
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि रीतिकालीन काव्य श्रृंगार व मधुरता का काव्य है | इसमें सर्वत्र श्रृंगार व कलात्मकता के दर्शन होते हैं | जितना अधिक कला का विकास इस काल में हुआ वह इससे पहले कभी नहीं हुआ | शायद इसलिए ही डॉo रामकुमार वर्मा व रमाशंकर शुक्ल रसाल ने इस काल को ‘कलाकाल’ व विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘श्रृंगार-काल’ नाम दिया है |
अनेक त्रुटियां होने के बावजूद यह काल अपनी मधुरता, कलाप्रियता व अलंकार-प्रियता के लिए जाना जाएगा |
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