हिंदी साहित्य में प्रेमचंद ( Premchand ) को उपन्यास सम्राट के नाम से जाना जाता है | गोदान ( Godan ) उनकी प्रौढ़ रचना मानी जाती है | यह उपन्यास सन 1936 में प्रकाशित हुआ | उनका यह उपन्यास सबसे अधिक आलोचना का विषय रहा |उनके कुछ उपन्यास ठेठ यथार्थवाद लिए हुए हैं लेकिन गोदान में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की झलक दिखाई देती है |
गोदान के विषय में आमतौर पर तीन धारणाएं प्रचलित हैं – 1. आदर्शवादी, 2. यथार्थवादी, 3. आदर्शोन्मुख यथार्थवादी
प्रेमचंद व उनके उपन्यासों के बारे में विभिन्न विद्वानों की धारणाएं भिन्न-भिन्न रहे हैं | कुछ प्रमुख विचारकों की धारणाएं निम्नलिखित हैं : –
डॉ सुरेश सिन्हा के अनुसार “प्रेमचंद के उपन्यासों का मूल स्वर आदर्शवादी है |”
आचार्य नंददुलारे वाजपेई के अनुसार “प्रेमचंद अपने विचार और लेखन में आदर्शवादी हैं |”
डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार “प्रेमचंद एक यथार्थवादी उपन्यासकार थे | वे जीवन की सच्चाई आंकना चाहते थे |”
डॉक्टर कृष्णदेव झारी के अनुसार “गोदान में प्रेमचंद आदर्शोन्मुख यथार्थवादी हैं |”
इस प्रकार गोदान के विषय में विद्वानों की भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं | गोदान के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए सर्वप्रथम यथार्थवाद, आदर्शवाद व आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद का अर्थ जानना आवश्यक है |
( क ) यथार्थवाद का अर्थ
यथार्थ का अर्थ है – वास्तविकता | अंग्रेजी के रियलिज्म ( Realism ) का हिंदी रूपांतरण ही यथार्थवाद है | यथार्थवाद का अर्थ है – जो जैसा है, वैसा ही कहना या लिखना या सत्य को उसी रूप में चित्रित करना | जिस प्रकार काव्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद समाज में व्याप्त दीनता व कुरीतियों का वर्णन करता है ठीक उसी प्रकार गद्य के क्षेत्र में यथार्थवाद समाज की कुरूपता को प्रस्तुत करता है | यथार्थ एक तथ्यात्मक लेख है जिसमें तथ्यात्मकता, वास्तविकता व ईमानदारी को प्रमुखता दी जाती है |
( ख ) आदर्शवाद का अर्थ
आदर्शवाद का अर्थ है – जो होना चाहिए जबकि यथार्थवाद का अर्थ है – जो हो रहा है | इस प्रकार आदर्शवाद और यथार्थवाद दो विपरीत धाराएं हैं | इसलिए कुछ आलोचक कहते हैं कि कोई साहित्यकार या तो आदर्शवादी हो सकता है या यथार्थवादी | इनका मिश्रण किसी एक रचना में संभव नहीं | इसमें कोई संदेह नहीं कि आदर्शवाद और यथार्थवाद एक नहीं हो सकते | लेकिन कोरा यथार्थ घृणित होता है और कोरा आदर्श अविश्वसनीय | प्रेमचंद इस तथ्य को जानते थे | इसलिए उन्होंने एक नई शैली का प्रयोग किया जिसे कुछ आलोचक आदर्शोंन्मुख-यथार्थवाद का नाम देते हैं |
( ग ) आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद
आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद का शाब्दिक अर्थ है – यथार्थवाद जो आदर्श की ओर उन्मुख हो अर्थात लेखन की ऐसी शैली जिसमें जीवन की कटु सच्चाइयाँ भी हों और उन कटु सच्चाइयों की निवृत्ति का प्रयास भी हो ; जिसमें समाज की बुराइयों का चित्रण भी हो और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन बुराइयों के विरुद्ध आवाज भी उठाई गई हो | जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि प्रेमचंद जी कोरे यथार्थ को घृणित मानते थे और कोरे आदर्श को अविश्वसनीय | अतः उन्होंने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद शैली का प्रयोग किया | इस शैली का मुख्य बिंदु होता है – आदर्श को ध्यान में रखते हुए यथार्थ का चित्रण | गोदान में आदर्शवाद है, यथार्थवाद हैै या आदर्शोन्मुखी-यथार्थवाद , यह जानने के लिए इन सभी पर पर क्रमशः विचार करना आवश्यक होगा |
1. गोदान में यथार्थवाद
गोदान ( Godan ) प्रेमचंद की प्रौढ़ कृति है | इस कृति में वे न तो गांधीवादी नजर आते हैं और ना ही सिद्धांतवादी | गोदान एक यथार्थवादी कथा है | इसमें दो कथाएं समानांतर रूप से चलती हैं – ग्रामीण कथा व शहरी कथा | ग्रामीण कथा प्रमुख है जहां जमींदारी प्रथा से गांव के सभी किसान दुखी हैं | उन्होंने इस उपन्यास में गांव का घृणित रूप प्रस्तुत किया है | गोदान का नायक होरी जीवन भर संघर्ष करता रहता है | होरी अपनी पत्नी धनिया के साथ ईमानदारी, सामाजिक मर्यादा व धर्म के साथ रहना चाहता है | वह दिन-रात परिश्रम करता है परंतु फिर भी ऋण से दबा रहता है | वह केवल एक सपना देखता है कि उसके घर भी गाय होगी परंतु उसकी यह अभिलाषा जीवन-पर्यंत पूरी नहीं होती | वह अपने पूरे परिवार के साथ खेतों में जी तोड़ मेहनत करता है | जमींदार राय साहब अमरपाल सिंह, साहूकार, दातादीन , झिंगुरी सिंह, गांव के पंच, पुलिस आदि उसका इतना शोषण करते हैं कि वह किसान से मजदूर बन जाता है | बैल बिक जाते हैं, जमीन चली जाती है | घर में खाने को कुछ नहीं रहता और इस दु:खद अवस्था में ही उसका अंत हो जाता है | उसकी मृत्यु के समय उसके पास केवल 20 आने की संपत्ति होती है जो उसकी मृत्यु पर गोदान के रूप में दे दी जाती है |
गोदान में नागरिक कथा भी यथार्थवादी के रूप में चित्रित है | जमींदार राय साहब, मिल मालिक मिस्टर खन्ना, महाजनों के कारिंदे व पुलिस सभी स्वार्थ में लिप्त हैं | सभी किसानों व मजदूरों के शोषण में लगे हैं | लगान के अलावा नजराना, शगुन आदि न जाने कितनी परंपराएं हैं जो किसानों के शोषण का साधन बने हुए हैं | खूब संपत्ति होते हुए भी विधुर राय साहब का जीवन सुखी नहीं है | उनका पुत्र अपनी इच्छा से प्रेम विवाह करता है, उनकी पुत्री विवाह के पश्चात दुखी है | मिस्टर खन्ना मिल मालिक हैं | निर्दयी व क्रूर हैं | मजदूरों का खूब शोषण करते हैं | विलासी जीवन जीते हैं गोविंदी जैसी पतिव्रता स्त्री के होने पर भी मिस मालती के पीछे घूमते हैं | विलासिता के चक्कर में न धन मिलता है और न ही मालती | मिल में आग लग जाती है और दूसरी और मालती प्रोफ़ेसर मेहता को चाहने लगती है | मिस मालती भी तितली की तरह चहकती रहती है परंतु अंदर से दुखी है | अपने अपाहिज पिता व दो बहनों का दायित्व उस पर है | वह प्रोफेसर मेहता से सच्चे मन से प्यार करती है परंतु वह उसे नहीं मिलते |
इस प्रकार शहरी कथा भी यथार्थवादी है | नागरिक समाज में अनैतिकता है | सभी शहरी पात्र खोखले नजर आते हैं और जो सच्चे पात्र हैं, समाज में दुख भोग रहे हैं | यही शहरी समाज का कटु यथार्थ है |
2. गोदान में आदर्शवाद
उपन्यासकार ने गोदान उपन्यास में आदर्शवादी भावना भी प्रस्तुत की है | उपन्यास के अंत में जब होरी की मृत्यु हो जाती है तो लेखक लिखता है – ” कौन कहता है कि वह जीवन संग्राम में हारा है | यह उल्लास, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं | इन्हीं हारों में विजय है |”
उपन्यासकार यहां आदर्शवादी है | वह समझता है कि यह होरी की हार नहीं उसकी विजय है | वह जीवन-पर्यंत सामाजिक मर्यादा, धर्म, परंपरा का निर्वाह करता रहा | परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करता रहा | जीवन की कोई भी बाधा उसे उसके दायित्व से विमुख न कर पायी | वह वास्तव में उदात्त नायक है |
जब होरी का भाई हीरा गाय को जहर देकर मार देता है और पुलिस जांच पड़ताल करने के लिए आती है तो होरी अपने परिवार की मर्यादा की रक्षा के लिए झूठी शपथ खाता है कि उसने हीरा को गाय के पास नहीं देखा | हीरा जेल जाने से बच जाता है | हीरा के चले जाने के बाद वह उसके परिवार की देखरेख करता है | उसके खेतों में काम करता है | जब गोबर भाग जाता है तो वह झुनिया को घर में आश्रय देता है | पंच उस पर ₹100 नकद व 20 मन अनाज का हर्जाना लगाते हैं तो वह अनेक कष्ट सहते हुए भी उस कष्ट को स्वीकार कर लेता है | इसी प्रकार जब भोला गरीबी के कारण अपनी गाय बेचना चाहता है तो होरी उसका लाभ नहीं उठाता | वह उसे भूसा दे देता है ताकि वह अपनी गाय को खिला सके |
मातादीन सिलिया को स्वीकार कर लेता है और कहता है – ” मैं ब्राह्मण नहीं चमार ही रहना चाहता हूँ | जो अपना धर्म माने वही ब्राह्मण, जो धर्म से मुंह मोड़े वही चमार |”
नागरिक पात्रों में प्रोफ़ेसर मेहता का पात्र अत्यंत आदर्शवादी है | अपनी आय को वह निर्धन छात्रों में बांट देता है नारी विषयक उसकी अवधारणा मानो प्रेमचंद की आंतरिक अनुभूति है | एक स्थान पर वह कहता है – ” मैं नहीं कहता, देवियों को शिक्षा की आवश्यकता नहीं है | है और पुरुषों से अधिक है | मैं नहीं कहता कि देवियों को शक्ति की आवश्यकता नहीं है | है और पुरुषों से अधिक है लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं जिससे पुरुषों ने संसार को हिंसा क्षेत्र बना डाला है |”
वह नारी को भारतीय संस्कृति के अनुसार स्वतंत्रता व अधिकार देना चाहते थे | प्रोफ़ेसर मेहता की आदर्शवादी विचारधारा के कारण ही मिस मालती कामुक प्रवृत्ति को छोड़कर सेवा और त्याग की मूर्ति बन जाती है | वह गोविंद को भी तब सही राह दिखाते हैं जब वह अपने पति मिस्टर खन्ना के विरुद्ध अदालत जाना चाहती है | इस प्रकार प्रेमचंद का आदर्शवादी स्वरूप इस उपन्यास में विद्यमान रहता है |
3. गोदान में आदर्शोन्मुखी-यथार्थवाद
गोदान में एक ओर तो यथार्थवादी पक्ष है और दूसरी ओर आदर्शवादी | इसलिए कुछ विद्वान इसे पूर्णत: यथार्थवादी उपन्यास कहते हैं तो कुछ पूर्णत: आदर्शवादी | लेकिन अधिकांश विद्वान मानते हैं कि इस उपन्यास-लेखन में उपन्यासकार की दृष्टि आदर्शोन्मुखी-यथार्थवादी दिखाई देती है |
प्रोफ़ेसर मेहता, मालती, होरी, गोविंदी आदि पात्र आदर्शोन्मुख तथा धनिया, गोबर, महाजन आदि यथार्थवादी हैं |
उपन्यास की मूल संवेदना भी आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद की ओर संकेत करती है | होरी और धनिया के संघर्षमय जीवन का परिणाम दु:खद निकलता है जो यह संदेश देता है कि समाज की वर्तमान व्यवस्था उपयुक्त नहीं है | इसे बदलना होगा | अत: यथार्थ में भी अप्रत्यक्षत: आदर्शवादी भावना निहित है |
◼️ वस्तुतः गोदान में आदर्शवादी भावना को भी खोजा जा सकता है और यथार्थवादी विचारधारा को भी | जिस विद्वान आलोचक ने जैसी दृष्टि अपनाई उसको यह उपन्यास वैसा ही नजर आया | यदि कुछ ने इसमें दोनों रूपों को देखा तो उन्होंने गोदान में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद घोषित किया |
अतः कहा जा सकता है कि गोदान ( Godan ) उपन्यास में यथार्थवाद भी है और आदर्शवाद भी | इस उपन्यास में प्रत्यक्ष रुप से सुधारवादी भावना दिखाई नहीं देती, समस्याओं का प्रत्यक्ष समाधान दिखाई नहीं देता परंतु अप्रत्यक्ष रूप से आदर्शों की छवि अवश्य दिखाई देती है | यदि कुछ आलोचक गोदान में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद मानते हैं तो इसे उचित कहा जा सकता है |
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