अंतहीन दौड़

जैनेंद्र कुमार के व्यंग्यात्मक निबंध ‘बाज़ार दर्शन ‘ और श्यामा प्रसाद के व्यंग्यात्मक निबंध’ उपभोक्तावाद की संस्कृति ‘ में भौतिक साधनों की आकर्षक जकड़ से दिन पर दिन दम तोड़ती जीवन की स्वाभाविक ख़ुशी का शोचनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है । बाज़ार वास्तव में हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतों की पूर्ति का साधन है । परंतु बड़े अचरज की बात है कि आज बाज़ार में उन चीज़ों की बहुतायत है जिनकी रोज़मर्रा के जीवन में कोई ख़ास ज़रूरत नहीं । आज बाजार में उन लोगों की भीड़ नज़र आती है जिनकी सभी ज़रूरतें पहले से पूरी होती हैं । लोग एक बड़ी गाड़ी में बैठ कर गाड़ी ख़रीदने आते हैं ,एक बड़े व महँगे फ़ोन को कानों से सटा कर महँगाई का रोना रोते हुए नया फ़ोन ख़रीदने आते हैं और वे लोग जो वास्तव में ही इन सुविधाओं से वंचित होते हैं इनके शोरूम के बाहर खड़े होकर अच्छी तरह से इन्हें निहारने का भी साहस  नहीं जुटा पाते ।
वास्तविकता ये है कि आज बाज़ार अपना वास्तविक स्वरूप व उद्देश्य भूल चुका है । अगर बाज़ार की कुछ आत्मा शेष बची है तो वो बड़े शोरूमस में नहीं बल्कि फूटपाथ पर सजी छोटी- छोटी स्टालनुमा दुकानों या ठेलों  में है ।
ये वो  बाज़ार है जहाँ व्यक्ति अपनी ज़रूरत को देख कर सामान ख़रीदता है अपने झूठे अभिमान की पुष्टि के लिए नहीं ।
कभी पैसे की गरमी हमें अनावश्यक चीज़ों की ख़रीदारी के लिए प्रोत्साहित करती है तो कभी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने की मजबूरी । पड़ोसी के घर यदि दस लाख की गाड़ी है तो हमें अपनी चार लाख की गाड़ी खटारा लगती है । जैसे किसी समारोह में धनाढ़्य इंसान के सामने हम साधन- संपन्न होते हुए भी स्वयं को तुच्छ या हीन समझने लगते हैं वैसे ही भौतिक साधनों के वैभव से युक्त किसी साधारण-बुद्धि  इंसान के सामने बड़े-बड़े विद्वान शर्म से मुँह छुपाते नज़र आते हैं और उस व्यक्ति द्वारा पहचाने जाने के लिए उत्सुक नज़र आते हैं । जैनेंद्र जी कहते हैं –  “पैसे में वह शक्ति है जो पल में हमें अपनों के प्रति कृतघ्न बना देती है ।”  जाने कितनी बार हम अपने माता-पिता के जीवन भर के प्यार और बलिदान को भूल  किसी अमीर घर में जन्म लेने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं । दुःख भरी आह भर हम कई बार कह उठते हैं कि हाय ! यही माँ-बाप मिले थे जिनके घर हमें जन्म मिला , क्यों नहीं किसी अमीर घर में हमने जन्म लिया ।  केवल माँ-बाप ही नहीं पैसे की शक्ति या भौतिक साधनों के प्रति हमारी आसक्ति के कारण हम अपने जीवन-मूल्य ,अपने सदगुण यहाँ तक कि अपने स्वाभिमान को भी किसी भी हद तक गिरा लेते हैं । किसी बड़ी महँगी गाड़ी में से जीभ निकाल कर हमें चिढ़ा रहे कुत्ते को देख कर हम अक्सर अपने मनुष्य होने पर ग्लानि अनुभव करने लगते हैं और कुत्ते के रूप में ही जन्म लेने की इच्छा हमारे मन में बलवती हो जाती है और मन ही मन प्रार्थना के स्वर में गुनगुना उठते हैं – “अगले जन्म मौहे कुत्ता ही कीजो”।
यद्यपि ये बातें हम मज़ाक के रूप में करते हैं लेकिन कहीं ना कहीं हमारे मन में उस कुत्ते के हमसे बेहतर हालात में होने की खीझ अवश्य होती है |
अब विज्ञापन हमें हमारी जरूरतों का अहसास दिलाते हैं |
विज्ञापन की माया से किसी भी वस्तु को हमारे लिए अपरिहार्य बना दिया जाता है भले ही वही वस्तु घर में पहले से मौजूद क्यों न हो |
मसलन  विज्ञापन हमें बताते  हैं  कि जिस पानी को हम वर्षों से पी रहे हैं वह तो ज़हरीला है । हमारे ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं  और हम water purifier के लिए दौड़ पड़ते हैं । विज्ञापन हमें बताते हैं कि जिन वस्तुओं को हम प्रयोग में ला रहे हैं वे तो समय के अनुसार अनुपयुक्त हो गयी हैं, ये तो ओल्ड वर्जन है और अचानक वे वस्तुएँ हमें निरर्थक लगने लगती हैं ।
सब कुछ होते हूए भी कुछ ना होने का अहसास हमें पागल बना रहा है | इसी पागलपन के कारण बड़े-बड़े धन कुबेर दिवालिया घोषित हो रहे हैं । नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे धनाढ्य देश छोड़ कर भागने को मजबूर हैं। हर रोज अख़बारों में धनी लोगों की आत्महत्याओं की ख़बरें आ रही हैं । जिन लोगों को निर्धन लोग अपना आदर्श मान सुखी जीवन के सपने बुन रहे हैं वही लोग अपने जीवन में तनाव व निराशा में बिखरते जा रहे हैं । उनके रिश्तेदार उनसे ख़ुश नहीं हैं ,उनके बच्चे  उन से ख़ुश नहीं हैं । उनके दाम्पत्य जीवन आम लोगों से कहीं अधिक जटिल समस्याओं से ग्रस्त हैं लेकिन ये जटिलताएं उन्होंने खुद चुनी हैं या उस भौतिकवादी संस्कृति ने उनके मन में आरोपित की हैं जिसका अनुसरण आज प्रत्येक व्यक्ति कर रहा है | 

एक समय मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती होने पर अधिकांश समस्याओं का अन्त हो जाता था | लेकिन आज की भौतिकवादी संस्कृति ने उन लोगों का जीवन और भी बदतर बना दिया है जिनकी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं क्योंकि मूलभूत आवश्यकताओं की एक सीमित सूची है लेकिन इसके बाद जो चाह जगती है, वह अंतहीन है | उसको पाने की चाह जहाज के पंछी का भटकाव है जिसमें या तो फिर से उसी जहाज पर वापिस आना होता है या उससे भी हाथ धोने की आशंका बनी रहती है |

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