ऑस्टिन का प्रभुसत्ता-सिद्धांत ( Austin’s Sovereignty Theory )

प्रभुसत्ता के कानूनी सिद्धांत की सबसे स्पष्ट व्याख्या इंग्लैंड के जॉन ऑस्टिन ( John Austin ) ने की है | उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Lectures on Jurisprudence’ में इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की है |

ऑस्टिन का प्रभुसत्तासिद्धांत

ऑस्टिन ने प्रभुसत्ता की जो परिभाषा दी है वह उनके कानून संबंधी दृष्टिकोण पर आधारित है | ऑस्टिन ने कानून की परिभाषा देते हुए कहा है – “कानून उच्चतर द्वारा निम्नतर को दिया गया आदेश है |” इसी धारणा के आधार पर उन्होंने प्रभुसत्ता का सिद्धांत विकसित किया |

ऑस्टिन कहता है – “किसी निश्चित समाज में एक मानव-श्रेष्ठ हो जो अन्य की आज्ञा पालन करने को बाध्य न हो परंतु उस समाज का अधिकांश भाग उस मानव-श्रेष्ठ की आज्ञा का पालन करता हो तो वह समाज एक राजनीतिक और स्वतंत्र समाज होता है |”

ऑस्टिन आगे लिखता है – “उस मानव-श्रेष्ठ के लिए समाज के अन्य लोग उसकी प्रजा हैं तथा उस पर निर्भर हैं | उन दोनों में राजा-प्रजा या प्रभुता और अधीनता का संबंध कहा जा सकता है |”

ऑस्टिन के संप्रभुत्ता सिद्धांत का विश्लेषण

ऑस्टिन के प्रभुसत्ता के सिद्धांत का विश्लेषण करने पर निम्नलिखित विशेषताएं उभर कर सामने आती हैं :-

1. राज्य में कोई निश्चित व्यक्ति प्रभु होता है

प्रत्येक राज्य में कोई मानव-श्रेष्ठ होता है जिसे प्रभु कहा जा सकता है | जनता स्वाभाविक रूप से उसकी आज्ञा का पालन करती है | उस पर आश्रित होती है | उसे अधिकारों का स्रोत स्वीकार करती है | प्रभुसत्ता में प्रभु कोई मानव होना चाहिए | प्रभुसत्ता किसी देवता या ईश्वर में निवास नहीं करती और ना ही इस पर कोई ईश्वरीय नियम लागू होता है |

2. प्रभुसत्ता निरंकुश और असीमित है

प्रभुसत्ता किसी मानव-श्रेष्ठ को प्राप्त शक्ति है जो निरंकुश और असीमित होती है | प्रभु पर किसी का कोई अंकुश नहीं होता | वह किसी के अधीन नहीं होता |

3. प्रभुसत्ता अविभाज्य है

प्रभुसत्ता एक संपूर्ण इकाई है | इसके टुकड़े नहीं किए जा सकते | विभाजित करने से प्रभुसत्ता नष्ट हो जाती है |

4. अधिकांश जनता आज्ञा पालन करती है

अधिकांश जनता प्रभु की आज्ञा का पालन करती है | इसका अर्थ यह है कि थोड़े से लोगों के विरोध करने पर प्रभुसत्ता नष्ट नहीं होती |

5. प्रभु की आज्ञा ही कानून है

राज्य में प्रभु की आज्ञा या आदेश ही कानून है | प्रभु के आदेश को न मानना दंडनीय अपराध है |

इस प्रकार ऑस्टिन के प्रभुसत्ता-सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक राज्य में एक सर्वोच्च शक्ति होनी चाहिए जो निरंकुश, असीमित व अविभाज्य है | प्रभु को कोई आदेश नहीं दे सकता | वह किसी के अधीन नहीं होता |

ऑस्टिन के प्रभुसत्ता-सिद्धांत की आलोचना

अनेक विद्वानों ने ऑस्टिन के प्रभुसत्ता सिद्धांत ( Austin’s Sovereignty Theory ) की आलोचना की है | आलोचना के कुछ आधार इस प्रकार हैं : –

(1) यह सिद्धांत केवल कानूनी प्रभुसत्ता का सिद्धांत है | यह राजनीतिक प्रभुसत्ता की उपेक्षा करता है |

(2) ऑस्टिन का सिद्धांत लोकतंत्र की मान्यता के विपरीत है क्योंकि ऑस्टिन के सिद्धांत के अनुसार एक मानव-श्रेष्ठ के पास सारी शक्तियां होती हैं परंतु लोकतंत्र के अनुसार सारी शक्तियां जनता में निहित हैं |

(3) ऑस्टिन के सिद्धांत के अनुसार प्रभु का होना निश्चित बताया गया है परंतु प्रभुसत्ता सदैव निश्चित नहीं होती |

(4) ऑस्टिन ने कानून की जो अवधारणा प्रस्तुत की है, वह गलत है | ऑस्टिन के अनुसार कानून प्रभु का आदेश है | आदेश में अनिवार्यता होती है परंतु कानून में अनिवार्यता नहीं होती | उदाहरण के लिए मतदान के अधिकार का कानून मतदान का अधिकार तो देता है परंतु यह अनिवार्य नहीं है कि मतदाता मत का प्रयोग अवश्य करें |

(5) ऑस्टिन के अनुसार कानून का आधार बल प्रयोग है | लोग दंड के भय से कानून का पालन करते हैं परंतु यह धारणा गलत है | लोग वास्तव में इसलिए कानून का पालन करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कानून का पालन करना जीवन, राज्य व समाज की खुशहाली के लिए आवश्यक है |

(6) ऑस्टिन के सिद्धांत के अनुसार प्रभुसत्ता अविभाज्य है परंतु यह कथन सत्य नहीं है | इंग्लैंड के संविधान का उदाहरण देते हुए प्रोo लॉर्ड कहता है कि ब्रिटेन में प्रभुसत्ता विभाज्य है | ब्रिटेन में एक कानून बनाने वाला प्रभु ( विधानपालिका ), दूसरा कार्यपालिका प्रभु तथा तीसरा न्याय करने वाला प्रभु ( न्यायपालिका ) है | अतः प्रभुसत्ता को विभाजित किया जा सकता है |

(7) बहुसमुदायवादी ऑस्टिन के इस सिद्धांत की आलोचना करते हैं | लॉस्की ( Laski ) और मैकाइवर इनमें प्रमुख हैं | वे मानते हैं कि प्रभुसत्ता राज्य और समुदायों में बंटी हुई है |

(8) ऑस्टिन के प्रभुसत्ता के सिद्धांत के अनुसार प्रभु निरंकुश है | उसकी शक्तियां असीमित हैं परंतु अनेक विद्वान प्रभुसत्ता को सर्वशक्तिमान तथा निरंकुश नहीं मानते | उनका मानना है कि राज्य अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों में बंधा हुआ है | आंतरिक क्षेत्र में भी राज्य नागरिकों के व्यक्तिगत मामलों, रीति-रिवाजों और परंपराओं में हस्तक्षेप नहीं करता |

उपर्युक्त विवेचन के आलोक में हम कह सकते हैं कि ऑस्टिन का संप्रभुता-सिद्धांत ( Austin’s Sovereignty Theory ) पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है परंतु यह बात भी सही है कि कानूनी प्रभुसत्ता की इससे अच्छी परिभाषा अभी तक कोई नहीं दे पाया | यह सही है कि इस सिद्धांत में कुछ त्रुटियां हैं परंतु फिर भी इस सिद्धांत के अधिकांश पहलू स्वीकार करने योग्य हैं |

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