पवनदूती / पवन दूतिका ( Pavandooti ) – प्रिय प्रवास – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ -षष्ठ सर्ग ( मंदाक्रांता छंद )

नाना चिंता सहित दिन को राधिका थी बिताती |

आंखों को थी सजल रखती उन्मना थी बिताती |

शोभा वाले जलद वपु की, हो रही चातकी थी |

उत्कंठा थी परम प्रबला, वेदना वर्द्धिता थी || (1)

बैठी खिन्ना यक दिवस वे, गेह में थी अकेली |

आके आंसू युगल दृग में, थे धरा को भिगोते |

आई धीरे इस सदन में, पुष्प-सद्गंध की ले |

प्रातः वाली सुपवन है इसी काल वातायनों से || (2)

आके पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया |

चाहा सारा कलुष तन का राधिका के मिटाया |

जो बूंदे सजल दृग के, पक्ष्म में विद्यमाना |

धीरे-धीरे क्षिति पर उन्हें सौम्यता से गिराया || (3)

श्री राधा को यह पवन की प्यार वाली क्रियाएं |

थोड़ी सी भी न सुखद हुई, हो गई वैरिणी सी |

भीनी-भीनी महक सिगरी, शांति उन्मूलती थी |

पीड़ा देती परम चित को वायु की स्निग्धता थी || (4)

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक में संकलित पवन धोती नामक रचना से अवतरित है | यह काव्यांश अयोध्या सिंह उपाध्याय द्वारा रचित प्रिय प्रवास का अवतरण है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने राधा की विरह वेदना का वर्णन किया है |

व्याख्या – श्री कृष्ण की विरह वेदना से दग्ध राधा की मनोदशा का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि राधा अनेक चिंताओं से दग्ध होकर अपने दिन बिता रही थी | उसकी आंखें सदा जल से आपूरित रहती थी अर्थात उसकी आंखों में सदैव आंसू रहते थे | वह खिन्न अवस्था में दिन बिता रही थी | उसका जीवन उस चातकी के समान हो गया था जो शोभायुक्त बादलों को निहारती रहती है अर्थात राधा रुपी चातकी के लिए श्री कृष्ण रुपी घनश्याम ही जीवन का आधार थे और वह उनके आने का मार्ग देख रही थी | उसकी उत्सुकता तथा विरह-वेदना निरंतर बढ़ती जा रही थी |

एक दिन राधा खिन्न अवस्था में अपने घर में बैठी हुई थी | उसकी दोनों आंखों से आंसू बह रहे थे और धरती को भिगो रहे थे | उसी पल पुष्पों की सुगंध से आपूरित प्रातः कालीन पवित्र पवन ने वातायनों से घर में प्रवेश किया |

प्रातः कालीन सुगंधित पवन ने घर में प्रवेश करके सारे घर को अपनी सुगंध से महका दिया | उस सुगंधित शीतल पवन ने राधिका के तन की सारी कलुषिता अर्थात वेदना को अपनी स्पर्श से मिटाना चाहा | राधा की आंखों के कोनों में जो आंसू की बूंदे विद्यमान थी उस शीतल पवन ने बड़े ही प्यार से कोमलता के साथ उन्हें धरती पर गिरा दिया |

परंतु राधा को पवन की यह प्यार वाली क्रियाएं बिल्कुल भी सुखद नहीं लगी बल्कि पवन की यह क्रियाएं उसे शत्रु सी लगी | पवन की भीनी-भीनी सुगंध उसकी शांति का उन्मूलन कर रही थी अर्थात उसे दु:ख पहुंचा रही थी और पवन की कोमलता राधा के दु:खी मन को और भी पीड़ा पहुंचा रही थी | कहने का भाव यह है कि पवन के व्यवहार ने राधा की विरह वेदना को और अधिक उद्दीप्त कर दिया था |

विशेष – (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन किया गया है |

(2) अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, उपमा और रूपक अलंकारों का सुंदर प्रयोग है |

(3) तत्सम-तद्भव शब्दावली का सुंदर समन्वय है |

(4) भाषा सरल सहज एवं प्रवाहमयी है |

संतापों को विपुल बढ़ता देख के दुःखिता हो |

धीरे बोली सदुख उससे, श्रीमती राधिका यों |

प्यारी प्रातः पवन, इतना क्यों मुझे है सताती |

क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से || (5)

कालिंदी के वर पुलिन पै, घूमती सिक्त होती |

प्यारे-प्यारे कुसुम-चय को चूमती गंध लेती |

तू आती है वहन करती वारि के सीकरों को |

हा पापिष्ठे, फिर किस लिए ताप देती मुझे है || (6)

क्यों होती है निठुर इतना, क्यों बढ़ाती व्यथा है |

तू है मेरी चिर परिचिता, तू मेरी प्रिया है |

मेरी बातें सुन मत सता, छोड़ दे वामता अपनी को |

पीड़ा खो के प्रणातजन की, है बड़ा पुण्य होता ||(7)

मेरे प्यारे नव जलद से, कंज से नेत्र वाले |

जकि आए न मधुबन से, औ न भेजा संदेशा |

मैं रो-रो के प्रिय विरह से, बावली हो रही हूं |

जाके मेरी सब दुख कथा, श्याम को तू सुना दे || ( 8)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – अपने दुखों को निरंतर बढ़ता हुआ देखकर श्रीमती राधिका दुख सहित पवन से कहने लगी कि हे प्यारी प्रातः कालीन पवन ! तू मुझे इतना क्यों सता रही है? क्या तू भी बुरे समय की क्रूरता से मेरी तरह कलुषित हो गई है?

राधिका पवन से कहते हैं कि तू यमुना के सुंदर तट पर रेतीले कणों को साथ लेकर घूमती है | तू प्यारे-प्यारे फूलों के गुच्छे को चूमती हुई और उनकी गंध लेकर आती है | तू पानी की बूंदों को वहन करती हुई आती है | इस प्रकार तू सभी को शीतल करती है | फिर हे पापी पवन ! तू मुझे ही क्यों दुख देती है?

हे पवन ! तू इतनी निर्दयी क्यों हो रही है? क्यों तू मेरी पीड़ा बढ़ा रही है? तू तो मेरी पुरानी परिचित है और मेरी प्यारी है | इसलिए हे मेरी प्यारी पवन ! मेरी बात सुन और मुझे मत सता | मेरे प्रति अपने इस विरोधी भाव को छोड़ दे | तुम तो जानती हो कि किसी दुखी जन की पीड़ा को हरना कितना पुण्य का काम होता है | अर्थात हे पवन ! तू मेरे कष्टों को सुनकर उन्हें दूर करने का प्रयास कर, इस प्रकार से मुझे व्यथित ना कर |

राधा पवन को संबोधित करते हुए कहती हैं कि हे पवन ! मेरे प्रियतम श्री कृष्ण नवीन मेघ के समान शोभा वाले और कमल के समान नेत्रों वाले हैं | वे मथुरा से वापस लौट कर नहीं आए और ना ही उन्होंने मेरे लिए कोई संदेश भेजा | मैं अपने प्रिय के विरह में रो-रो कर पागल हो रही हूँ | हे पवन ! तू मेरी सारी दुख की कथा श्याम सुंदर श्री कृष्ण को जाकर सुना देना |

विशेष – (1) राधा की विरहावस्था का मार्मिक चित्रण हुआ है |

(2) अनुप्रास, पुनरुक्ति, उपमा और रूपक अलंकारों का सुंदर प्रयोग है |

(3) तत्सम-तद्भव शब्दावली का सुंदर समन्वय है |

(4) भाषा सरल सहज और प्रवाहमयी है |

जो ऐसा तू नहीं कर सके, तो क्रिया चातुरी से |

जाके रोने विकल बनने, आदि ही को दिखा दे |

चाहे ला दे प्रिय निकट से, वस्तु कोई अनूठी |

हा हा, मैं हूं मृतक बनती, प्राण मेरा बचा दे || (9)

तू जाती है सकल थल ही, वेगवाली बड़ी है |

तू है सीधी तरल हृदया, ताप उन्मूलती है |

मैं हूं जी में बहुत रखती, वायु तेरा भरोसा |

जैसे हो ऐ भगिनी, बिगड़ी बात मेरी बना दे || (10)

कालिंदी के तट पर घने, रम्य उद्यान वाला |

ऊँचे-ऊँचे धवल गृह की, पंक्तियों से प्रशोभी |

जो है न्यारा नगर मथुरा, प्राण प्यारा वहीं है |

मेरा सूना सदन तज के, तू वहां शीघ्र ही जा || (11)

ज्यों ही मेरा भवन तज तू, अल्प आगे बढ़ेगी |

शोभा वाली अमित कितनी, कुंज-पुंजें मिलेंगी |

प्यारी छाया मृदुल स्वर से, मोह लेंगी तुझे वे |

तो भी मेरा दुख लख वहाँ, जा न विश्राम लेना || (12)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – राधा पवन को संबोधित करते हुए कहते है कि हे पवन ! यदि तुझसे मेरी व्यथा का वर्णन न हो पाए तो तू चतुराई से कृष्ण को मेरी व्याकुलता रोकर और व्याकुलता प्रकट करके ही दिखा देना | यदि तुझसे यह भी संभव न हो तो मेरे प्रियतम की किसी अनोखी वस्तु को मेरे पास ला दे | मैं मृतक के समान बनती जा रही हूँ, मेरे प्राणों की रक्षा कर | कहने का भाव यह है कि राधा श्री कृष्ण की विरह वेदना में मृतक सामान बन गई है | श्री कृष्ण की प्रिय वस्तु उसके लिए संजीवनी बूटी का कार्य करेगी |

राधा भवन से आग्रह करती हुई कहते है कि हे पवन ! तू संपूर्ण धरा पर तीव्र गति से विचरण करती है | तू विनम्र हृदय वाली है | दूसरों के दुख को द्रवित होने वाली और उनके दुखों को दूर करने वाली है | ऐ बहन ! मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है | इसलिए किसी भी प्रकार से मेरी बिगड़ी बात बना दे और मेरी विरह वेदना का एहसास किसी प्रकार से मेरे प्रियतम प्यारे श्रीकृष्ण को करा दे |

हे पवन ! यमुना के किनारे पर जहां सुंदर और घने बाग हैं, जहां ऊंचे-ऊंचे सफेद रंग के महलों की पंक्तियां सुशोभित हो रही हैं, वहां पर जो अद्वितीय मथुरा नगरी है वहीं पर मेरे प्राणों से प्रिय श्री कृष्ण निवास करते हैं | हे पवन ! मेरा तुझ से विनम्र आग्रह है कि तू मेरे सूने घर को छोड़कर अब शीघ्र ही वहां जाकर मेरी विरह-व्यथा से मेरे प्रियतम को अवगत करा दे |

हे पवन ! मथुरा की ओर जाते हुए जैसे ही तू मेरा घर छोड़कर थोड़ा सा आगे बढ़ेगी, तुझे असीम शोभा-युक्त अनेक वृक्ष-समूह तथा झाड़ियां मिलेंगी | उनकी प्यारी छाया और मधुर स्वर तुम्हें मोह लेंगे परन्तु तुम मेरे दुःख को ध्यान में रख कर वहाँ रुक मत जाना |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

थोड़ा आगे सरस रव का, धाम सत्पुष्पवाला |

लोने-लोने बहु द्रुम लतावान सौंदर्यशाली |

प्यारा वृंदा विपिन मन को, मुग्धकारी मिलेगा |

आना-जाना इस विपिन से, मुह्यमाना न होगा || (13)

जाते-जाते अगर पथ में, क्लांत कोई दिखावे |

तो तू जाके निकट, उसकी क्लान्तियों को मिटाना |

धीरे-धीरे परस करके, गात उत्ताप खोना |

सद्गंधों से श्रमित जनों को, हर्षितों सा बनाना || (14)

संलग्ना हो सुखद जल के श्रांतिहारी कणों से |

लेके नाना कुसुम कुल का गंध आमोदकारी |

निर्धूली हो गमन करना, उद्धता भी न होना |

आते-जाते पथिक जिससे, पथ में शांति पावें || (15)

लज्जाशीला युवती पथ में, जा कहीं दृष्टि आवे |

होने देना विकृत वासना, तो न तू सुंदरी को |

जो थोड़ी भी श्रमित वह हो, गोद ले श्रांति खोना |

होठों की औ कमल-मुख की, म्लानताएँ मिटाना || (16)

जो पुष्पों के मधुर रस को, साथ सानंद बैठे |

पीते होंवें भ्रमर-भ्रमरी, सौम्यता तो दिखाना |

थोड़ा सा भी न कुसुम हिले, औ न उद्विग्न होवें |

क्रीड़ा होवे नहीं कलुषिता, केलि में हो न बाधा || ( 17)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! थोड़ा आगे चलने पर सरस ध्वनि उत्पन्न करता सुन्दर पुष्पों से युक्त स्थल मिलेगा | मन को मोहित करने वाला वृन्दावन धाम मिलेगा | जिसमें सुंदर लताओं से युक्त सुन्दर-सुन्दर वृक्ष मिलेंगे | हे पवन ! इस सुंदर कानन से गुजरना इतना सरल नहीं होगा अर्थात हो सकता है कि तुम इस कानन की शोभा से मुग्ध हो यहीं पर रुक जाओ |

हे पवन ! अगर मथुरा जाते समय रास्ते में तुम्हें कोई दुःखी और थका व्यक्ति दिखाई दे तो तू उसके पास जाकर उसकी थकावट को दूर करना | धीरे-धीरे स्पर्श करके उसके शारीरिक कष्टों को दूर करना | अपनी सुगंध से थके हारे व्यक्ति को प्रसन्नता प्रदान करना |

हे पवन ! तुम शीतल जल-कणों तथा विभिन्न प्रकार में पुष्पों की मनमोहक सुगंध से युक्त हो बहना | तुम धूल रहित होकर, किसी प्रकार की उग्रता को न दिखाते हुए अर्थात शांत भाव से बहना ताकि आते-जाते पथिक पथ में शांति प्राप्त कर सकें |

हे पवन ! मथुरा जाते समय पथ में यदि कोई लज्जाशील युवती दिखाई दे जाये तो तू उस सुन्दर युवती को वासना-उन्मत्त न होने देना | यदि वह युवती थोड़ी भी थकी हो तो हे पवन ! तू उसे अपनी गोद में लेकर उसकी थकावट को दूर करना, उसके होठों और कमल-मुख की मुरझाहट दूर करना |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

कालिंदी के पुलिन पर हो, जो कहीं भी कढ़े तू |

छू के नीला सलिल उसका, अंग उत्ताप खोना |

जी चाहे तो कुछ समय लौं, खेलना पंकजों से |

छोटी-छोटी सु लहर उठा, क्रीड़ितों को नचाना || (18)

प्यारे प्यारे तरु किसलयों को, कभी जो हिलाना |

तो तू ऐसी मृदुल बनना, टूटने वे न पावें |

शाखापत्रों सहित जब तू, केलि में लग्न होना |

तो थोड़ा भी न दुख पहुंचे, पक्षि के शावकों को || (19)

तेरे जैसी मृदु पवन से, सर्वथा शांति-कामी |

कोई रोगी पथिक पथ में, जो कहीं भी पड़ा हो |

तो तू मेरे सकल दुख को, भूल के धीरे होके |

खोना सारा कलुष उसका, शांत सर्वांग होना || (20)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! मथुरा जाते हुए पथ में यदि कहीं आंनदपूर्वक बैठे भंवरा-भंवरी पुष्पों के मधुर रस का पान कर रहे हों तो तू उनके प्रति सौम्यता प्रकट करना | तू इतने शांत भाव से वहाँ से गुजरना कि पुष्प तनिक भी ना हिलें और उन्हें कोई बेचैनी ना हो और भंवरा-भंवरी की क्रीड़ा में कोई व्यवधान ना पड़े |

हे पवन ! मथुरा जाते समय यदि यमुना नदी के किनारे तू कहीं रुके तो उसके नीले जल को छू कर अपने अंगों की थकावट दूर करना | अगर तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ समय के लिये वहाँ रुककर कमलों से खेलना | जल में छोटी-छोटी लहरें उत्पन्न करते हुए खेलते हुए कमलों को नचाना |

हे पवन ! मार्ग में यदि किसी वृक्ष की नई पत्तियों को तू हिलाये तो इतनी तो इतनी कोमल बन जाना कि वे टूटने ना पाएं | यदि वृक्षों के पत्तों से तू क्रीड़ा में रत्त हो तो तो ध्यान रखना कि वृक्ष पर बने घोंसलों में बैठे पक्षी के शावकों को कोई कष्ट ना पहुंचे |

हे पवन ! मथुरा जाते हुए रास्ते में यदि कोई रोगी या पथिक कहीं पड़ा हो और शान्ति की चाह रखता हो तो तू मेरे सारे दुख भूल कर, धैर्यवान बनकर उसके सारे दुःख हरना और उसे पूर्ण शान्ति प्रदान करना |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

कोई क्लान्ता कृषक ललना, खेत में जो दिखावे |

धीरे-धीरे परस उसको, क्लांति सर्वांग खोना |

जाता कोई जलद यदि हो, व्योम में तो उसे ला |

छाया सीरी सुखद करना, शीश तप्तांगना के || ( 21)

उद्यानों में, सु-उपवन वाटिका में, सरों में |

फूलों वाले नवल तरु में, पत्र-शोभी द्रुमों में |

आते-जाते न रम रहना, औ न आसक्त होना |

कुंजों में औ कमल-कुल में, वीथिका में वनों में || (22)

जाते-जाते पहुंच मथुरा, धाम में उत्सुका हो |

न्यारी शोभा वर नगर की, देखना मुग्ध होना |

तू होवेगी चकित लख, के मेरु से मंदिरों को |

आभा वाले कलश जिनके, दूसरे अर्क से हैं || ( 23)

जी चाहे तो शिखर पर जा क्रीड़ना मंदिरों के |

ऊंची-ऊंची अनुपम ध्वजा, अंक में ले उड़ाना |

प्रासादों में अटन करना, घूमना प्रांगणों में |

उद्युक्ता हो सकल सुर से, सद्म को देख जाना || (24)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – राधा पवन को संबोधित करते हुए कहती है कि हे पवन ! मथुरा जाते हुए रास्ते में यदि कोई थकी हुई कृषक वाला तुम्हें किसी खेत में दिखाई पड़ जाए तो तुम उसके शरीर को धीरे-धीरे स्पर्श करके उसकी सारी शारीरिक थकावट को दूर कर देना तथा उसे सुख पहुंचाना | यदि उस समय आकाश में कोई बादल जा रहा हो तो उससे उसके शरीर पर छाया करके उसे सुख प्रदान करना |

हे पवन ! मथुरा जाते हुए रास्ते में उद्यान, सुंदर उपवन, सरोवर, नव पुष्पों से आच्छादित वृक्षों, पत्तों से सुशोभित वृक्षों में आसक्त मत हो जाना | हे पवन ! तू मथुरा जाते समय या आते समय इन सब में तल्लीन मत हो जाना इनके प्रति आकृष्ट मत होना | रास्ते में अनेक सुंदर वृक्ष तथा झाड़ियां मिलेंगी, कमल के समूह तथा सुन्दर वन से गुजरने वाले मार्ग मिलेंगे, तुम उन में रम कर वहीं पर विश्राम मत करने लग जाना | भाव यह है कि राधिका पवन को उसके कर्तव्य का बोध कराते हुए कहती है कि हे पवन ! रास्ते में कितने ही मोहित करने वाले दृश्य क्यों न आएं तुम अपने कर्तव्य को याद रखना और मेरा संदेश मेरे प्रियतम श्री कृष्ण तक जल्दी से जल्दी पहुंचाने का प्रयत्न करना |

हे भवन जब तू उत्सुक होकर मथुरा पहुंचेगी तो वहां के भवनों और उद्यानों की अनूठी शोभा देखकर मुग्ध मत हो जाना | तू वहां के सुमेरु पर्वत के समान ऊंचे और विशाल मंदिरों को देखेगी तो बहुत आश्चर्यचकित हो जाएगी | उन मंदिरों की चोटियों पर सुशोभित कलश दूसरे सूर्य के समान हैं |

हे पवन ! जब तुम मथुरा नगरी पहुंचो तो यदि तुम्हारा मन करे तो तुम वहां के सुंदर मंदिरों के शिखरों पर क्रीड़ा करना | उन मंदिरों के शिखरों पर झूल रहे सुंदर ध्वजों को अपनी गोद में लेकर उड़ाना | तुम वहां के राजप्रासादों और प्रांगणों में घूमना | उत्सुक होकर देवताओं के घर के समान घर को भी देख आना |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

कुंजों बागों विपिन यमुना कूल या आलयों में |

सद्गंधों से सनित मुख को, वास-संबंध से आ |

कोई भौंरा विकल करता, जो किसी बाल को हो |

तो सद्भावों सहित उसको ताड़ना दे भगाना || (25)

तू पावेगी कुसुम गहने, कांतता साथ पैन्हे |

उद्यानों में वर नगर के सुंदरी मालिनों को |

वे कार्यों में स्वर प्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी |

जो श्रान्ता हों, सरस गति से, तो उन्हें मोह लेना | | (26)

जो इच्छा हो सुरभि सुखदा ले तनाभूषणों से |

आते-जाते सरूची उनके प्रीतमों को रिझाना |

ऐ मर्मज्ञे रहित उससे, सर्वथा किंतु होना |

जैसे जाना निकट प्रिय के, व्योम-चुंबी गृहों के || (27)

तू पूजा के समय मथुरा मंदिरों मध्य जाना |

नाना वाद्यों मधुर स्वर की मुग्धता को बढ़ाना |

किंवा ले के कियत तरु के शब्दकारी फलों का |

धीरे-धीरे रुचिर रव से मुग्ध हो हो बजाना || ( 28)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! यदि वृक्षों के समूहों, बाग-बगीचों, जंगल, यमुना के किनारे या घरों में सुगंध से सने हुए मुख को उसकी सुगंध के प्रभाव में आकर अर्थात उसे सुगंधित फूल समझकर कोई भंवरा किसी बालक को तंग करता हो तो तू उसे अपनी सद्भावपूर्वक प्रताड़ित करके वहां से भगा देना | कहने का भाव यह है कि उसे इस प्रकार से समझाना कि उसे बुरा ना लगे |

हे पवन ! जब तू मथुरा नगरी में प्रवेश करोगी तो वहां फूलों से बने हुए सुंदर गहने पहने हुए श्रेष्ठ नगर मथुरा के बागों में काम करने वाली मालिनों को पाओगी | वे मालिनें अपने प्रियतम के समान अपने कार्य में तल्लीन होंगी | यदि वे मालिनें काम करते-करते थक जाएं तो उन्हें अपनी सरस गति से मोहित कर सुख प्रदान करना |

हे पवन ! मथुरा पहुंच कर यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मालिनों के तन पर पहने हुए पुष्पों के आभूषणों से सुगंधी ग्रहण करके रुचिपूर्वक उनके प्रियतमों को रिझाना | यह दूसरों के हृदय के मर्म को समझने वाली पवन ! तुम सहज भाव से आकाश को चूमने वाले घर में निवास करने वाले प्रिय अर्थात श्री कृष्ण के समीप जाना |

हे पवन ! मथुरा में पहुंचने पर तुम मथुरा के मंदिरों के मध्य अवश्य जाना और वहां पर बजने वाले विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों तथा उनसे निकलने वाले मधुर स्वर की मुग्धता में वृद्धि करना | कहीं से किसी वृक्ष से उत्पन्न होने वाली ध्वनि रूपी फलों को धीरे-धीरे मनभावने संगीत के साथ मुग्ध होकर बजाना |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

नीचे पुष्पों लसित तरु के, जो खड़े भक्त होवें |

किंवा कोई उपल-गठिता-मूर्ति हो देवता की |

तो डालों को परम मृदुता, मंजुता से हिलाना |

औ यों वर्षा कुसुम करना, शीश देवालयों के || (29)

तू पावेगी वर नगर में, एक भूखंड नयारा |

शोभा देते अमित जिसमें, राजप्रासाद होंगे |

उद्यानों में परम सुषमा, है जहां संचिता सी |

छीने लेते सरवर जहां, वज्र की स्वच्छता है || (30)

तू देखेगी जलद-तन को, जो वहीं तद्गता हो |

होंगे लोने नयन उनके, ज्योति उत्कीर्णकारी |

मुद्रा होगी वर वदन की, मूर्ति सी सौम्यता की |

सीधे-सीधे वचन उनके सिक्त पियूष होंगे || (31)

नीले कंजों सदृश्य, उनके गात की श्यामलता है |

पीला प्यारा वसन कटि में, पैन्हते हैं फबीला |

छोटी काली अलक मुख की, कांति को है बढ़ाती |

सद्वस्त्रों में नवल तन की फूटती सी प्रभा है || (32)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! मथुरा में जब तुम मंदिरों में पहुँचोगी तो यदि वहाँ पुष्पों से सुसज्जित वृक्षों के नीचे भक्तगण खड़े हों या कहीं कोई सुगठित शरीर वाली किसी देवता की मूर्ती हो तो वृक्षों की शाखाओं को कोमलता और सुंदरता से हिलाना और मंदिरों के शिखरों पर पुष्प- वर्षा करना |

हे पवन ! जब तुम मथुरा नगरी में पहुंचेगी तो तू उस श्रेष्ठ नगर में एक अलग भूखंड देखेगी | उस भूखंड पर असीम शोभा प्रदान करने वाले राजमहल होंगे | वहाँ के उद्यानों में परम शोभा सिंचित है | वहाँ के सरोवर इतने स्वच्छ हैं मानो उन्होंने बिजली की स्वच्छता को छिन लिया हो |

हे पवन ! जब तू मथुरा पहुंचेगी तो वहाँ मेघ के समान वर्ण वाले मेरे प्रिय श्री कृष्ण को देखेगी | उनके नेत्र अत्यंत सुंदर हैं और प्रकाश फैलाने वाले हैं | उनके सुंदर मुख की मुद्रा कुछ इस प्रकार की होगी मानो वह सौम्यता की साक्षात मूर्ती हों | उनकी सीधी-सादी वाणी अमृत सिंचित होगी अर्थात उनकी वाणी अत्यंत मधुर होगी |

राधिका पवन को संबोधित करते हुए कहती है हे पवन ! कि जब तू मथुरा पहुंचोगी तो वहाँ देखोगी कि नीले कमल दल के समान उनके तन की श्यामल आभा है | वे कमर में पीले वस्त्र धारण करते हैं जो बहुत ही सुंदर लगते हैं | उनकी काली लट माथे पर छुट्टी हुई होती है तो उनके मुख की सुंदरता को बढ़ाती है | उनके सुंदर वस्त्रों के मध्य से उनके सुंदर शरीर की प्रभा फूटती सी नजर आती है | अर्थात पीले वस्त्रों को धारण किए श्री कृष्णअत्यंत सुंदर लगते हैं |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

सांचे ढाला सकल वपु है, दिव्य सौंदर्य वाला |

सत्पुष्पों से सुरभि उसकी, प्राण संपोषिका है |

दोनों कंधे वृषभ वर से, हैं बड़े ही सजीले |

लंबी बांहें कलभ कर-सी, शक्ति की पेटिका हैं || ( 33)

राजाओं-सा मुकुट उनके, राजता शीश होगा |

कानों होगी सुललित छटा, स्वर्ण के कुण्डलों की |

नाना रत्नों वलित भुज में, मंजू केयर होंगे |

मोती माला कलित लसती, कंबु से कंठ होगी || (34)

प्यारे ऐसे अपर जन भी, जो वहां दृष्टि आवें |

देवों के से प्रथित गुण से, तो उन्हें चिन्ह लेना |

वे हैं थोड़े यदपि वय में, तेजशाली बड़े हैं |

तारों में है न छिप सकता, कंत राका निशा का || (35)

बैठे होंगे जिस थल वहां, भव्यता भूरी होगी |

सारे प्राणी वदन लखते, प्यार के साथ होंगे |

पाते होंगे परम निधि औ, लूटते रत्न होंगे |

होती होंगी हृदय-तल की क्यारियां पुष्पिता सी || (36)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! मेरे प्रियतम श्री कृष्ण का शरीर इतना सुंदर है मानो सांचे में ढला हुआ हो | उनका शरीर दिव्य सौंदर्य युक्त है | सुंदर पुष्पों के समान उनके शरीर की सुगंधि प्राणों का पोषण करने वाली है | उनके कंधे श्रेष्ठ वृषभ के समान सुंदर और सजीले हैं | हाथी की सूंड के समान उनकी लंबी व शक्तिशाली भुजाएं हैं जो शक्ति की पेटिका के समान हैं |

राधा श्री कृष्ण का परिचय देते हुए पवन से कहती है कि हे पवन ! राजमहल में पहुंचकर तुम देखना कि श्रीकृष्ण ने अपने सिर पर राजाओं जैसा पवित्र एवं सुंदर मुकुट पहना होगा | उन्होंने अपने कानों में सोने के कुंडल पहने होंगे जिनकी अत्यंत सुंदर छटा होगी | विभिन्न प्रकार के रत्नों से जड़े हुए उनके सुंदर बाजूबंद होंगे जो उन्होंने अपनी भुजाओं में बांधे होंगे | उनके शंख के समान सुंदर कंठ में मोतियों की माला सुशोभित होगी |

हे पवन ! यदि राजमहल में श्री कृष्ण के समान अन्य लोग भी तुम्हें दिखायी दें तो तुम देवताओं के समान गुणों वाले श्री कृष्ण को उनमें से पहचान लेना | यद्यपि आयु में वे अर्थात श्री कृष्ण अभी बहुत छोटे हैं किंतु वह अत्यंत तेजस्वी हैं | जिस प्रकार से पूर्णिमा की रात्रि का स्वामी चंद्रमा तारों में नहीं छोड़ सकता ठीक उसी प्रकार से श्रीकृष्ण भी अन्य पुरुषों में छिप नहीं सकते |

हे पवन ! जिस स्थान पर श्री कृष्ण जी बैठे होंगे वह स्थान अत्यंत पवित्र एवं सुंदर होगा | वहां पर बैठे हुए सभी लोग उनके मुख को प्यार से देख रहे होंगे | वहां उपस्थित लोग उनके दर्शन करके विभिन्न प्रकार की निधियां और सद्गुणों रूपी रत्न लूट रहे होंगे | कहने का भाव यह है कि भगवान श्री कृष्ण के दर्शन बहुमूल्य निधियों और रत्नों से कम नहीं है | उनके दर्शन करने से हृदय रूपी क्यारियों में प्रसन्नता रूपी पुष्प खिल जाते होंगे |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

बैठे होंगे निकट जितने शांत औ शिष्ट होंगे |

मर्यादा का सकल जन को, ध्यान होगा बड़ा ही |

कोई होगा न कह सकता बात, दुर्वृत्तता की |

पूरा-पूरा ह्रदय सबके श्याम-आतंक होगा | (37)

प्यारे-प्यारे वचन उनसे, बोलते श्याम होंगे |

फैली जाते हृदय उनके, हर्ष की बेलि होगी |

देते होंगे महत गुण वे, देख के नैन कोरों |

लोहा को छू कलित कर से, स्वर्ण होंगे बनाते || (38)

सीधे जाके प्रथम गृह के, मंजु उद्यान में तू |

जो थोड़ी भी तपन तन हो, सिक्त होके मिटाना |

निर्धूली हो सरस रज से, पुष्प के लिप्त होना |

पीछे जाना प्रिय सदन में, स्निग्धता से बड़ी हो || ( 39)

जो प्यारे के निकट बजती, बीन या वंशिका हो |

किंवा कोई मुरज पनवों, आदि को हो बजाता |

या गाती हो मधुर स्वर से, मंडली गायकों की |

होने पावे न स्वर लहरी अल्प भी तो विपन्ना | | (40)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – राधा पवन को श्री कृष्ण एवं उनके आसपास बैठे लोगों का परिचय देते हुए कहती हैं कि हे पवन ! श्री कृष्ण के समीप जितने भी शांत एवं सभ्य लोग बैठे होंगे उन सब को मर्यादाओं का अधिक ध्यान होगा | वहां बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति बुराई से युक्त बात नहीं कर सकता होगा | उनके हृदय में श्रीकृष्ण का आतंक छाया होगा |

हे पवन ! सभा में सिंहासन पर बैठे हुए श्याम सुंदर श्री कृष्ण सभी लोगों से प्यारे-प्यारे वचन बोल रहे होंगे | उनके प्रिय वचनों को सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोगों के हृदय में प्रसन्नता रूपी लता फैल रही होगी | अर्थात सभा में उपस्थित लोग श्री कृष्ण के प्रवचनों को सुनकर स्वयं को सौभाग्यशाली अनुभव कर रहे होंगे | वे अपनी आंखों के कोरों से सामने बैठे हुए लोगों को महान गुण दे रहे होंगे मानो अपने सुंदर हाथों से लोहे को छूकर उसे स्वर्ण बना रहे होंगे | अर्थात श्री कृष्ण जी का प्रभाव उस पारस पत्थर के समान है जो लोहे को छू कर उसे स्वर्ण में परिवर्तित कर देता है |

यह पवन मथुरा के राजप्रासाद में पहुंचकर सबसे पहले तू घर के सुंदर उद्यान में जाना और वहां जाकर अपनी थकान दूर करना | अपने आप को धूल रहित करके पुष्प-पराग से लिप्त करना | इसके पश्चात ही प्रिय श्री कृष्ण के कक्ष में स्निग्ध भाव से प्रवेश करना |

हे पवन ! जब तुम श्री कृष्ण के कक्ष में प्रवेश करोगी तो उस समय यदि उनके समीप कोई बीन या मुरली आदि बज रही हो या कोई गायकों की मंडली मधुर स्वर में कुछ गा रही हो तो तुम्हारे जाने से उनकी स्वर लहरी थोड़ा सा भी खलल न होने पाए | अर्थात तुम्हारे जाने से आनंद-निमग्न श्रीकृष्ण को किसी प्रकार की कोई बाधा न आने पाए |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

जाते ही छू कमल दल से पांव को पूत होना |

काली-काली अलक मृदुता से कपोलों हिलाना |

क्रीड़ाएं कलित करना, दुकूलादिकों को |

धीरे धीरे परस तन को, प्यार की बेलि बोना || (41)

तेरे में है गुण जो, व्यथाएँ सुनाए |

तू कामों को प्रखर मति, औ युक्तियों से चलाना |

बैठे जो हों सदन अपने, मेघ सी कांतिवाले |

तो चित्रों को इस भवन के, ध्यान से देख जाना || (42)

जो चित्रों में विरह विधुरा, वाम का चित्र होवे |

तो तू जाके निकट उसको, भाव से यों हिलाना |

प्यारे होके चकित जिससे, चित्र की ओर देखें |

आशा है यूं सुरती उनकी, हो सकेगी हमारी || (43)

जो कोई भी इस सदन में, चित्र उद्यान का हो |

और प्राणी हो विपुल उसमें, घूमते बावले से |

तो तू जाके निकट उसके, औ हिलाके उसे भी |

कंसारी को सुरती ब्रज के व्याकुलों की कराना || (44)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! जैसे ही तू मथुरा के राजमहल में प्रवेश करके श्री कृष्ण के कक्ष में प्रवेश करो और तुम्हें उनके दर्शन हों तो तुम सबसे पहले कमल की पंखुड़ियों के समान उनके चरणों को स्पर्श करके स्वयं को पवित्र कर लेना | तत्पश्चात अपने स्पर्श से उनकी लटों को इस प्रकार से हिलाना कि वे उनके गालों को स्पर्श करने लगें | उनके वस्त्र आदि को हिलाते हुए विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएं करना | तत्पश्चात श्री कृष्ण के तन को स्पर्श कर उनके हृदय में प्रेम रूपी बेल बो देना अर्थात उनके हृदय में प्रेम-भाव का संचार कर देना |

हे पवन ! तुझ में वह गुण है जो मेरी व्यथा को सुना सके | तू अपनी प्रखर बुद्धि और युक्तियों से काम लेना | अर्थात कोई ऐसी युक्ति अपनाना कि श्रीकृष्ण को मेरी याद आ जाए | अगर मेघ के समान सुंदर कांति वाले श्री कृष्ण अपने कक्ष में बैठे हो तो तू उस कक्ष में लगे हुए चित्रों को ध्यान पूर्वक देख लेना | संभवत: इन चित्रों में से ही कोई चित्र श्रीकृष्ण को मेरी याद दिला दे |

यदि कृष्ण के कक्ष में टंगे हुए चित्रों में से किसी विरहिणी का चित्र दिखाई दे तो उसके निकट जाकर तुम उसे इस प्रकार खिला देना कि प्रिय श्रीकृष्ण चकित होकर उस चित्र को देखने लगें | संभवत: तुम्हारी इस क्रिया से उन्हें हमारी स्मृति हो आये |

हे पवन ! श्री कृष्ण के कक्ष में जाकर कोई ऐसा चित्र देखना जिसमें उद्यान का दृश्य अंकित हो | उस चित्र में अनेक प्राणी पागलों की भांति व्याकुल होकर इधर-उधर घूम रहे हों | उससे चित्र के समीप जाकर तुम उसे इस भाव से हिला देना कि श्री कृष्ण का ध्यान उसकी ओर चला जाए और इस प्रकार श्रीकृष्ण को ब्रज के व्याकुल प्राणियों की स्मृति कराना |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

कोई प्यारा कुसुम कुम्हला, भौन में जो पड़ा हो |

तो प्यारे के चरण पर ला, डाल देना उसे तू |

यों देना ऐ पवन बतला, फूल सी एक बाला |

म्लान हो-हो कमल पग को, चूमना चाहती है || (45)

जो प्यारे मंजु उपवन या वाटिका में खड़े हों |

छिद्रों में जा क्वणित करना, वेणु लौं कीचकों को |

यों होवेगी सुरती उनको, सर्व गोपांगना की |

जो वंशी के श्रवण हित हैं, दीर्घ उत्कंठ होती | | (46)

लाके फूले कमल-दल को, श्याम के सामने ही |

थोड़ा-थोड़ा विपुल जल में, व्यग्र हो-हो डुबाना |

यों देना तू भगिनी जतला, एक अम्भोजनेत्रा |

आंखों को विरहा-विथुरा, बारि में वरती है || ( 47 )

धीरे लाना वहन करके, नीप का पुष्प कोई |

और प्यारे के कमल दृग के सामने डाल देना |

यों देना तू प्रकट दिखला, नित्य आशंकिता हो |

कैसे होती विरह-वश मैं, नित्य रोमांचिता हूँ | (48)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! यदि तुम्हें श्रीकृष्ण के भवन में कोई कुम्हलाया हुआ फूल दिखाई दे जाए तो तू उसे उठाकर मेरे प्रिय श्री कृष्ण के पैरों पर डाल देना और इस प्रकार सांस्कृतिक रूप से उन्हें यह बता देना कि इस फूल की तरह मुरझाई एक दुःखिनी बाला विरह वेदना से व्यथित होकर तुम्हारे चरण-कमलों को चूमना चाहती है |

राधिका कहती है किसी हे पवन ! जब तुम श्री कृष्ण के भवन में जाओ और श्रीकृष्ण किसी सुंदर उपवन या वाटिका में खड़े हुए मिले तो खड़े बांसों के छिद्रों में गूंजता हुआ ऐसा स्वर करना जैसा बांस की बांसुरी में उत्पन्न होता है | उस स्वर को सुनकर उन्हें सभी गोपियों की याद आ जाएगी जो उनकी बांसुरी की धुन को सुनने के लिए लंबे समय से लालायित हैं |

हे पवन ! श्री कृष्ण के सामने किसी खिले हुए फूल की पंखुड़ियों को धीरे-धीरे पानी में डूबाना | अपनी इस क्रिया के द्वारा हे बहन ! तुम श्री कृष्ण को बतला देना की किस प्रकार एक कमलनयनी तुम्हारे विरह में व्याकुल होकर अपनी आँखों को आँसू रूपी जल में भिगोती रहती है |

हे पवन ! तू धीरे-धीरे किसी वृक्ष के फूल लाकर श्री कृष्ण के कमल के समान सुंदर नेत्रों के सामने डाल देना और फूल डालते हुए तुम इस भाव को प्रकट करना है कि कोई आपके विरह में नित्य भयभीत होकर किस प्रकार रोमांचित रहता है |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

बैठे नीचे जिस विटप के श्याम हों, तू उसीका |

कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना |

यों प्यारे को विदित करना, चातुरी से दिखाना |

मेरे चिंता विजित चित, क्लांत हो कांप जाना || (49)

सूखी जाती मलिन लतिका, जो धार में पड़ी हो |

तो तू पावों निकट उसको, श्याम के ला गिराना |

यों सीधे तू प्रगट करना, प्रीति से वंचिता हो |

मेरा होना अति मलिन औ, सूखते नित्य जाना || (50)

कोई पत्ता नवल तरु का, पीत जो हो रहा हो |

तो प्यारे के दृग युगल के, सामने ला उसे तू |

धीरे-धीरे संभल रखना औ उन्हें यों बताना |

पीला होना प्रबल दुख से, प्रोषिता लौं हमारा | | ( 51)

यों प्यारे को विदित करके, सर्व मेरी व्यथाएँ |

धीरे-धीरे विदित करके, पांव की धूलि लाना |

थोड़ी सी भी चरण रज जो, ला न देगी हमें तू |

हा ! कैसे तो व्यथित चित को बोध मैं दे सकूंगी || ( 52)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! जिस वृक्ष के नीचे श्री कृष्ण बैठे हों तुम उसी वृक्ष का कोई पत्ता लेकर उनके नेत्रों के सामने हिलाना और श्री कृष्ण को सांकेतिक रूप से विदित करा देना कि मेरा चिंता-विजित हृदय व्याकुल होकर कैसे कांप जाता है | कहने का भाव है कि राधा का चिंताओं से व्यथित हृदय कांपता रहता है |

हे पवन ! यदि तुम्हें कोई सूखी लता दिखायी दे जाये तो तुम उसे प्रिय श्याम के पांवों के पास डाल देना | इस प्रकार तुम उनके सामने प्रकट कर देना किस प्रकार राधा प्रतिदिन तुम्हारे प्रेम से वंचित होकर पीली पड़ती जा रही है और सुखती जा रही है |

हे पवन ! यदि किसी नवल तरु का कोई पत्ता पीला पड़ गया हो तो उसे श्री कृष्ण के नेत्रों के सामने ले जाकर धीरे-धीरे संभाल कर रख देना और सांकेतिक रूप से उन्हें यह बता देना कि तुम्हारे विरह में प्रोषिता ( जिसका प्रिय बाहर चला गया हो ) सूखे पत्ते कि भांति पीली पडती जा रही है |

हे पवन ! इस प्रकार तुम मेरी सारी व्यथाएँ मेरे प्रिय श्री कृष्ण को बता देना | तत्पश्चात धीरे-धीरे उनकी चरण-धूलि मेरे लिये लाना | यदि तू मेरे लिए जरा सी भी पद-रज ना ला पाई तो भला मैं अपने व्यथित हृदय को किस प्रकार से सांत्वना दूंगी |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

जो ला देगी चरण रज तो, तू बड़ा पुण्य लेगी |

पूता हूंगी परम उसको, अंग में मैं लगाके |

पोतूँगी जो हृदय-तल में, वेदना दूर होगी |

डालूंगी मैं शिर पर उसे, आंख में ले मलूंगी || (53 )

तू प्यारे का मृदुल स्वर ला, मिष्ट जो है बड़ा ही |

ज्यों यों भी है क्षरण करता, स्वर्ग की सी सुधा को |

थोड़ा भी ला श्रवण-पुट में, जो उसे डाल देगी |

मेरा सूखा ह्रदय-तल तो, पूर्ण उत्फुल्ल होगा || (54)

भीनी-भीनी सुरभि सिगरे, पुष्प की पुष्पिका सी |

मूलीभूता अवनितल में, कीर्ति कस्तूरिका की |

तू प्यारे के नवल तन की वास ला दे निराली |

मेरे उबे व्यथित चित में, शांति धारा बहा दे || (55)

होते होंवें पतित कण जो, अंगरागादिकों के |

धीरे-धीरे वहन करके, तू उन्हीं को जड़ा ला |

कोई माला कुसुम प्रिय के कंठ संलग्न जो हो |

तो यत्नों से विकच उसका पुष्प ही एक ला दे | | (56)

पूरी होंवें न यदि तुझसे, अन्य बातें हमारी |

तो तू, मेरा विनय इतना, मान ले औ चली जा |

छू के प्यारे कमल-पग को, प्यार के साथ आ जा |

जी जाऊंगी हृदय तल में, मैं तुझी को लगा के || (57)

प्रसंग – पूर्ववत |

व्याख्या – हे पवन ! यदि तू मथुरा जाकर मेरे प्रिय श्री कृष्ण के चरणों की धूल आकर मुझे देगी तो तुझे अत्यंत पुण्य मिलेगा | मैं उस धूल को अपने अंगों से लगा कर पवित्र हो जाऊंगी | मैं अपनी हृदय-तली में उस धूल को मलकर वेदना-रहित हो जाऊंगी | मैं उस धूलि को अपने सिर पर डालूंगी और काजल की भांति अपनी आँखों में लगा लूंगी |

राधिका पवन को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हे पवन ! तू मेरे प्रिय श्री कृष्ण का कोमल और मधुर स्वर ला दे | उनका स्वर स्वर्ग की सुधा को टपकाने वाला है | यदि तू प्रिय श्री कृष्ण का मधुर स्वर मेरे कर्ण-पटल में थोड़ा सा भी डाल देगी तो मेरा सूखा पड़ा हृदय-तल पूर्णत: खिल उठेगा |

हे पवन ! जिस प्रकार भीनी-भीनी सुगंध फूलों का पोषण करने वाली होती है और जैसे कस्तूरी की कीर्ति पृथ्वी तल पर मूलभूत रूप से समाई रहती है वैसी ही सुगंध प्रिय श्री कृष्ण के तन की भी है | हे पवन ! यदि तू मुझे श्री कृष्ण के नवल-तन की ऐसी अनूठी सुगंध लाकर दे दे तो मेरे ऊबे-व्यथित हृदय में शांति की धारा प्रवाहित हो जाएगी |

हे पवन ! तू श्री कृष्ण के गिरते हुए सुंगंधित लेप आदि का कण धीरे-धीरे उठा कर ला दे या फिर मेरे प्रिय श्री कृष्ण ने जो पुष्पमाला अपने गले में धारण की हुई है उसका एक फूल निकाल कर ला दे | कहने का भाव है कि विरह-विदग्ध राधिका श्री कृष्ण के तन से आई हुई सुगंध और उनके द्वारा धारण किए गये पुष्प से ही विरह-दग्ध राधिका स्वयं को सांत्वना दे लेगी |

हे पवन ! यदि तू तो मेरी इच्छा अनुसार कोई भी कार्य न कर पाए तो मेरी तुझसे केवल इतनी ही विनती है कि तू जल्दी से श्री कृष्ण के पास जाकर वापस लौट आना | तू प्रिय श्री कृष्ण के चरण-कमलों को छूकर जल्दी से वापस आ जाना | मैं तुझे ही अपने हृदय से लगाकर जीवन पा जाऊंगी अर्थात तुम्हारे सानिध्य में ही मुझे अपने प्रिय श्री कृष्ण का सानिध्य-सुख मिल जाएगा |

विशेष — (1) राधा की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश और रूपक अलंकारों की सुंदर छटा है |

(3) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |

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