कुरुक्षेत्र ( चतुर्थ सर्ग ) : व्याख्या
पितामह कह रहे कौन्तेय से रण की कथा हैं,
विचारों की लड़ी में गूंथते जाते व्यथा हैं |
हृदय-सागर मथित होकर कभी जब डोलता है,
छिपी निज वेदना गंभीर नर भी बोलता है | (1)
चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है,
युधिष्ठिर ! स्वत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है |
नर्क उनके लिए जो पाप को स्वीकारते हैं,
न उनके हेतु जो रण में उसे ललकारते हैं | ( 2)
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘कुरुक्षेत्र’ नामक प्रबंध काव्य से उद्धृत है | इस कविता के रचयिता रामधारी सिंह दिनकर जी हैं | इन पंक्तियों में भीष्म पितामह व युधिष्ठिर के वार्तालाप के माध्यम से युद्ध के कारणों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया हैै |
व्याख्या – महाभारत के युद्ध के पश्चात भीष्म पितामह और युधिष्ठिर अत्यंत व्यथित हैं | पितामह युधिष्ठिर को युद्ध के कारणों के बारे में समझाने लगते हैं | वे युधिष्ठिर को युद्ध की पूरी कथा सुनाते हुए उसके पीछे छिपे हुए कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं | कथा सुनाते-सुनाते पितामह विचारों की लड़ियों में छिपी संपूर्ण व्यथा को अभिव्यक्त करने लगते हैं | यद्यपि पितामह धीर-गंभीर हैं लेकिन प्रकृति का यह नियम है कि जब मानव-हृदय रुपी सागर वेदना कि लहरों से मथा जाता है तो गंभीर से गंभीर व्यक्ति भी अपनी पीड़ा को वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने लगता है |
जो व्यक्ति दूसरों के साथ अन्याय करता है अर्थात दूसरों के अधिकारों को चुराता है वह युद्ध का कारण बनता है | हे युधिष्ठिर !अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करना पाप नहीं है | वास्तव में नर्क उनके लिए है जो पाप को स्वीकार करते हैं अर्थात अन्याय का विरोध नहीं करते | इसके विपरीत ऐसे व्यक्ति हैं जो युद्ध में पापी व्यक्ति को ललकारते हैं, वे स्वर्ग के भागी होते हैं |
विशेष – (1) महान से महान व्यक्ति भी दुख और वेदना से व्यथित होकर भावाभिव्यक्ति करने को बाध्य हो जाते हैं |
(2) अन्याय को सहना पाप है | इस भाव की अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से की गयी है |
(3) ‘हृदय-सागर’ में रूपक अलंकार है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं भावानुकूल है |
सहज ही चाहता कोई नहीं लड़ना किसी से
किसी को मारना अथवा स्वयं मरना किसी से |
नहीं दु:शांति को भी तोड़ना नर चाहता है
जहां तक हो सके निज शांति प्रेम निबाहता है || (3)
मगर, यह शांतिप्रियता रोकती केवल मनुज को,
नहीं वह रोक पाती है दुराचारी दनुज को |
दनुज क्या शिष्ट मानव को कभी पहचानता है,
विनय को नीति कायर की सदा वह मानता है || (4)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – युद्ध के पश्चात भीष्म पितामह युधिष्ठिर को समझाते हुए कहते हैं कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी से लड़ना नहीं चाहता | न वह किसी को मारना चाहता है और न ही किसी के हाथों मरना चाहता है, वह शांति चाहता है | मनुष्य स्वभाव से शांतिप्रिय है | वह बुरी से बुरी शांति को भी तोड़ना नहीं चाहता | जहां तक संभव हो सकता है वह अपनी शांतिप्रियता को बनाये रखने का प्रयत्न करता है |
लेकिन हे युधिष्ठिर ! शांतिप्रियता का यह गुण केवल मनुष्य पर ही प्रभाव डालता है, दुराचारी और दानवी स्वाभाव वाला व्यक्ति इसके प्रभाव से अछूता रहता है | दानवी स्वाभाव वाला व्यक्ति कभी भी शिष्ट एवं शांतिप्रिय मनुष्य को पहचान नहीं पाता, वह उसकी विनम्रता की नीति को कायरता की नीति मानकर उसका उपहास करता है |
विशेष –(1) शांतिप्रियता मनुष्य का स्वाभाविक गुण है | जिसे वह प्रत्येक अवस्था में बनाए रखना चाहता है लेकिन यह प्रवृत्ति दुष्ट लोगों की नहीं होती |
(2) दृष्टांत अलंकार का सुंदर प्रयोग है |
(3) शब्द-योजना सार्थक एवं सटीक है |
(4) प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग है |
समय ज्यों बीतता त्यों-त्यों अवस्था घोर होती,
अनय की श्रृंखला बढ़कर कराल, कठोर होती |
किसी दिन तब, महाविस्फोट कोई फूटता है,
मनुज ले जान हाथों में दनुज पर टूटता है || ( 5)
न समझो किंतु इस विध्वंस के होते प्रणेता,
समर के अग्रणी दो ही पराजित और जेता |
नहीं जलता निखिल संसार दो कि आग से,
अवस्थित ज्यों न जग दो-चार ही के भाग से || (6)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! इस प्रकार जैसे-जैसे समय बीतता चला जाता है, अवस्था और अधिक कठिन व भयंकर हो जाती है | अन्याय विकराल रूप धारण कर लेता है | तब किसी दिन अचानक एक महाविस्फोट होता है, अन्याय को सहन करने वाले मनुष्य के सब्र का बांध टूट जाता है और वह मनुष्य अपने प्राणों को संकट में डाल कर जीवन की परवाह न करते हुए उस अत्याचारी दानव पर टूट पड़ता है |
लेकिन हे युधिष्ठिर ! युद्ध में जीतने वाले और युद्ध में हारने वाले केवल दो पक्ष ही युद्ध में होने वाले विध्वंस के कारण नहीं हैं | केवल दो पक्षों के कारण ही संसार युद्ध की आग में नहीं जलता अर्थात युद्ध के और भी बहुत से कारण होते हैं | यह ठीक वैसे ही है जिस प्रकार से केवल दो चार लोगों से ही है संसार अवस्थित नहीं है | इस संसार में असंख्य लोग हैं और सभी की अपनी-अपनी भूमिका है |
विशेष – (1) इन पंक्तियों के माध्यम से इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि साधारण स्वभाव वाला व्यक्ति जहां तक हो सके शांति को बनाए रखने की कोशिश करता है लेकिन सहनशीलता की सीमा पार के जाने के पश्चात वह अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता और अत्याचारी पर टूट पड़ता है |
(2) युद्ध के कारणों पर प्रकाश डाला गया है |
(3) अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक एवं दृष्टांत अलंकार है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
युधिष्ठिर ! क्या हुताशन शैल सहसा फूटता है,
कभी क्या वज्र निर्धन व्योम से भी छूटता है?
अनलगिरी फूटता जब ताप होता है अवनि में,
कड़कती दामिनी विकराल धूमाकूल गगन में || (7)
महाभारत नहीं था द्वंद्व केवल दो घरों का,
अनल का पुंज था इसमें भरा अगणित नरों का |
न केवल यह कुफल कुरुवंश के संघर्ष का था,
विकट विस्फोट यह संपूर्ण भारत वर्ष का था || ( 8)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! क्या तुम समझते हो कि ज्वालामुखी का विस्फोट अचानक हो जाता है? कदापि नहीं | वास्तव में यह तभी होता है जब पृथ्वी के गर्भ में तापमान अपनी सीमाओं को लांघ जाता है | एक अन्य उदाहरण देते हुए पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! क्या कभी बादल रहित आकाश से भी तड़ित-पात होता है? वास्तव में आकाश में बिजली तभी कड़कती है जब आकाश घने बादलों से घिरा हो |
ठीक इसी प्रकार से हे युधिष्ठिर ! महाभारत का युद्ध भी अचानक नहीं हुआ | लंबे समय से महाभारत के युद्ध की पृष्ठभूमि बन रही थी | और महाभारत केवल दो घरों का द्वंद्व नहीं था | हम इसे केवल कौरवों और पांडवों का युद्ध नहीं कह सकते | वास्तव में इस युद्ध में असंख्य लोगों के क्रोध की अग्नि भरी हुई थी | यह युद्ध केवल कुरु-वंश के आपसी संघर्ष का दुष्परिणाम नहीं था बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष के राजाओं में व्याप्त द्वेष इस विकट विस्फोट का कारण था |
विशेष – (1) युद्ध के कारणों पर प्रकाश डाला गया है |
(2) प्रश्न अलंकार का प्रयोग है |
(3) विवेचनात्मक शैली है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
युगो से विश्व में विष-वायु बहती आ रही थी,
धरित्री मौन हो दावाग्नि सहती आ रही थी |
परस्पर वैर शोधन के लिए तैयार थे सब,
समर का खोजते कोई बड़ा आधार थे सब || (9)
कहीं था जल रहा कोई किसी की शूरता से,
कहीं था क्षोभ में कोई किसी की क्रूरता से |
कहीं उत्कर्ष ही नृप का नृपों को सालता था,
कहीं प्रतिशोध कोई भुजंगम पालता था || (10)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भीष्म पितामह महाभारत के युद्ध के कारणों पर चर्चा करते हुए युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! वास्तव में लंबे समय से विश्व में क्रोध रूपी विष की वायु बहती आ रही थी | लेकिन किसी प्रकार से यह धरती इस दावाग्नि को सह रही थी अर्थात सताए हुए लोग किसी प्रकार से सहनशीलता को कायम रखे हुए थे | लेकिन सभी आपस में एक दूसरे के प्रति वैर-भाव रख रहे थे, सभी के मन में प्रतिशोध की भावना थी और सभी युद्ध का उचित अवसर तलाश रहे थे |
कोई किसी की वीरता से मन में ईर्ष्या का भाव पाले हुए था तो कोई किसी की क्रूरता से क्षोभ में था | यदि एक राजा उन्नति को प्राप्त कर लेता था तो दूसरे राजाओं के मन में वह बात खटकने लगती थी, और उसके प्रति द्वेष की भावना उनके मन में पलने लगती थी | कुछ राजा अपने मन में प्रतिशोध रूपी भुजंगम पाल रहे थे |
विशेष – (1) इन पंक्तियों में भीष्म पितामह ने युद्ध के कारणों पर चर्चा की है |
(2) रूपक, अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
निभाना पार्थ वध का चाहता राधेय था प्रण,
द्रुपद था चाहता गुरु द्रोण से निज वैर-शोधन |
शकुनी को चाह थी, कैसे चुकाए ऋण पिता का,
मिला दे धूल में किस भांति कुरु-कुल की पताका || (11)
सुयोधन पर न उसका प्रेम था, वह घोर छल था |
हितू बन कर उसे रखना ज्वलित केवल अनल था |
जहां भी आग थी जैसी सुलगती जा रही थी,
समर में फूट पड़ने के लिए अकुला रही थी || (12)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भीष्म पितामह युधिष्ठिर से युद्ध के कारणों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि राधा का पुत्र कर्ण अर्जुन का वध करके अपने प्रण को पूरा करना चाहता था | दूसरी तरफ पांचाल नरेश द्रुपद गुरु द्रोणाचार्य से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था | शकुनी कुरु-कुल की पताका को धूल में मिला कर अर्थात कुरु-वंश का नाश करके अपने पिता के ऋण से उऋण होना चाहता था | इस प्रकार सभी अपने-अपने कारणों से प्रतिशोध की आग में जल रहे थे और युद्ध का उचित अवसर तलाश रहे थे |
यहां तक कि शकुनि का अपने भांजे दुर्योधन के प्रति प्रेम महज एक छलावा था | वह उसका हितैषी बनकर उसके हृदय में पांडवों के प्रति क्रोध की अग्नि को जलाए रखना चाहता था ताकि अपने उद्देश्य को पूरा कर सके | इस प्रकार सभी योद्धाओं के हृदय में अपने-अपने कारणों से क्रोध व प्रतिशोध की अग्नि जल रही थी और सभी युद्ध भूमि में कूदने के लिए लालायित थे |
विशेष – (1) कवि इन पंक्तियों के माध्यम से यह सिद्ध करना चाहता है कि महाभारत का युद्ध अनेक कारणों से घटित हुआ | इस युद्ध के पीछे केवल कौरवों और पांडवों का आपसी द्वेष नहीं था |
(2) ‘कुरु-कुल’ में अनुप्रास अलंकार है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
सुधारों से स्वयं भगवान के जो-जो चिढ़े थे,
नृपति वे क्रुद्ध होकर एक दल में जा मिले थे |
नहीं शिशुपाल के वध से मिटा था मान उनका,
दुबक कर था रहा धुँधुआ द्विगुण अभिमान उनका || ( 13)
परस्पर की कलह से, वैर से होकर विभाजित,
कभी से दो दलों में हो रहे थे लोग सज्जित |
खड़े थे वे हृदय में प्रज्वलित अंगार लेकर,
धनुर्ज्या को चढ़ाकर म्यान में तलवार लेकर || ( 14)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! भगवान श्रीकृष्ण ने गलत परंपराओं का अंत करके कुछ सुधारों का आरंभ किया था | परंतु उनके द्वारा किए गए इन सुधारों से भी अनेक राजा अप्रसन्न थे और श्रीकृष्ण के विरुद्ध संगठित हो रहे थे | श्री कृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध कर देने पर भी इन राजाओं के अभिमान में कमी नहीं आई | वे मन ही मन उनसे द्वेष भावना रखने लगे और उनसे प्रतिशोध लेने का उचित अवसर तलाशने लगे |
हे युधिष्ठिर ! सच तो यह है कि आपसी कलह और वैर-भाव के कारण बहुत समय पहले से ही लोग दो दलों में विभाजित हो गए थे | उनके हृदय में बहुत पहले से ही प्रतिशोध की अग्नि जल रही थी उनके हाथों में धनुष-बाण और तलवार सुसज्जित थे |
विशेष – (1) इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि महाभारत का युद्ध केवल कौरवों और पांडवों के आपसी द्वेष का परिणाम नहीं था बल्कि बहुत समय पहले से ही महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी |
(2) अनुप्रास अलंकार और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का सुंदर प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं विषयानुकूल है |
था रह गया हलाहल का यदि कोई रूप अधूरा किया,
किया युधिष्ठिर, उसे तुम्हारे राजसूय ने पूरा | (15)
इच्छा नर की ओर, और फल देती उसे नियति है,
फलता विष पीयूष-वृक्ष में, अकथ प्रकृति की गति है | (16)
तुम्हें मना सम्राट देश का राजसूय के द्वारा,
केशव ने था ऐक्य सृजन का उचित उपाय विचारा | ( 17)
सो, परिणाम और कुछ निकला, भड़की आग भवन में,
द्वेष अंकुरित हुआ पराजित राजाओं के मन में | ( 18)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! बहुत से राजाओं के मन में पहले से ही द्वेष रुपी जहर भरा हुआ था, अगर थोड़ी बहुत कमी रह गई थी तो वह तुम्हारे राजसूय यज्ञ ने पूरी कर दी अर्थात उनके मन में जल रही ईर्ष्या की अग्नि को तुम्हारे राजसूय यज्ञ की लपटों ने और भड़का दिया |
हे युधिष्ठिर ! मनुष्य अपने मन में कुछ और इच्छाएं रखता है लेकिन भाग्य उसे कुछ और ही फल देता है | प्रकृति की गति भी बड़ी विचित्र होती है क्योंकि कभी-कभी अमृत के समान मीठा और स्वास्थ्यवर्धक फल देने वाला वृक्ष भी विषैला फल दे देता है | ठीक इसी प्रकार पांडवों ने राजसूय यज्ञ कल्याण की भावना से किया था परंतु विपक्षी राजाओं ने इसका कुछ और ही अर्थ ले लिया और युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी |
हे युधिष्ठिर ! वास्तव में श्री कृष्ण तुम्हें भारत का सम्राट बनाकर संपूर्ण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करना चाहते थे | वे ऐसा कल्याण की भावना से करना चाहते थे परंतु शत्रु राजाओं ने इसका कुछ और ही अर्थ लिया और वे पांडवों के विरुद्ध हो गए |
हे युधिष्ठिर ! भगवान श्री कृष्ण तुम्हें सम्राट बना कर संपूर्ण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करके शांति की स्थापना करना चाहते थे परंतु इसका परिणाम कुछ और ही निकला और सारे संसार में क्रोध की अग्नि भड़क उठी | राजसूय यज्ञ के कारण जो राजा स्वयं को पराजित अनुभव कर रहे थे उनके मन में पांडवों के प्रति द्वेष की भावना पनपने लगी |
विशेष – (1) राजसूय यज्ञ को महाभारत के तात्कालिक कारण के रूप में दर्शाया गया है |
(2) तत्सम प्रधान शब्दावली का प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं विषयानुकूल है |
समझ ना पाए वे केशव के सदुद्देश्य निश्छल को,
देखा मात्र उन्होंने बढ़ते इंद्रप्रस्थ के बल को | ( 19)
पूजनीय को पूज्य माननीय में जो बाध-क्रम है,
वही मनुज का अहंकार है वही मनुज का भ्रम है | (20 )
प्रसंग – पूर्ववत
व्याख्या – भीष्म पितामह युधिष्ठिर को समझाते हुए कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! यद्यपि भगवान श्री कृष्ण के निर्देशन में तुम्हारे द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के पीछे कल्याण की भावना थी तथापि पराजित राजाओं ने इसका कुछ और ही अर्थ लिया | भगवान श्री कृष्ण के सददुद्देश्य को न समझ पाए | इसके पीछे पांडवों का सुनियोजित षड्यंत्र नजर आया | इस यज्ञ से इंद्रप्रस्थ की बढ़ती शक्ति को देखकर उनके मन में पांडवों के प्रति द्वेष भावना विकसित होने लगी |
हे युधिष्ठिर ! पूजनीय को पूज्य और महान मानना मानव की उदारता है परंतु मनुष्य अपने अहंकारवश ऐसा नहीं कर पाता | पूजनीय को पूजनीय और महान मानने में उसे अपनी हीनता नजर आती है | वास्तव में यह मनुष्य का भ्रम है |
विशेष – (1) कवि ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का उल्लेख किया है कि मनुष्य की अहंकार-वृत्ति उसे दूसरों को अपने से महान मानने में बाधा बन जाती है |
(2) अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
इंद्रप्रस्थ का मुकुट-छत्र भारत भर का भूषण था,
उसे नमन करने में लगता किसे, कौन दूषण था? (21)
तो भी ग्लानि हुई बहुतों को इस अकलंक नमन से,
भ्रमित बुद्धि ने की इसकी समता अभिमान-दलन से | (22)
इस पूजन में पड़ी दिखाई उन्हें विवशता अपनी,
पर के विभव, प्रताप, समुन्नती में परवशता अपनी | (23)
राजसूय का यज्ञ लगा उनको रण के कौशल सा,
निज विस्तार चाहने वाले चतुर भूप के छल सा | ( 24)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! वास्तव में इंद्रप्रस्थ का राज्य उस समय भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य था | आदर्श राज्य के सभी गुण उसमें थे | वह संपूर्ण भारत का आभूषण था | इंद्रप्रस्थ राज्य की महानता को स्वीकार करने में, उसके आगे नतमस्तक होने में किसी को कोई बाधा नहीं होनी चाहिए थी |
लेकिन हे युधिष्ठिर ! ऐसे महान इंद्रप्रस्थ को नमन करने में भी बहुत से राजा ग्लानि अनुभव कर रहे थे, उन्हें इसमें अपना अपमान नजर आ रहा था | उनकी भ्रमित बुद्धि उन्हें यह अनुभव करा रही थी कि इंद्रप्रस्थ को नमन करना, उसके आगे नतमस्तक होना मानो अपने स्वाभिमान को खो देना है |
पांडवों द्वारा किए जा रहे इस राजसूय यज्ञ में शामिल होना उन्हें अपनी विवशता नजर आ रही थी | पांडवों के बढ़ते धन-वैभव, प्रताप और उन्नति में उन्हें अपनी अधीनता के दर्शन हो रहे थे |
हे युधिष्ठिर ! दूसरे राजा राजसूय यज्ञ को शत्रु की राजनीतिक चाल समझ रहे थे | उन्हें यह राजसूय यज्ञ शत्रु के रण-कौशल के समान लगा | उन्हें लगा कि जैसे अपने राज्य का विस्तार चाहने वाला कोई चतुर राजा छलपूर्वक कोई कुटिल योजना बना रहा है | इस प्रकार कल्याण की भावना होते हुए भी राजसूय यज्ञ दूसरे राजाओं के मन में यह भ्रम पैदा कर गया कि यह उनकी स्वाधीनता छीनने का षड्यंत्र है |
विशेष – (1) इन पंक्तियों में कवि ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि मनुष्य स्वभाव से ही ऐसा है कि वह दूसरों के अच्छे कार्यों को भी शंका की दृष्टि से देखने लगता है |
(2) अनुप्रास एवं प्रश्न अलंकार है |
(3) ‘रण के कौशल-सा’ में उपमा अलंकार है |
(4) भाषा सरल, सहज़ एवं विषयानुकूल है |
धर्मराज ! कोई नहीं चाहता अहंकार निज खोना,
किसी उच्च सत्ता के सम्मुख सन्मन से नत होना | (25)
सभी तुम्हारे ध्वज के नीचे आए थे न प्रणय से,
कुछ आये थे भक्ति-भाव से कुछ कृपाण के भय से | (26)
मगर, भाव जो भी हों सबके एक बात थी मन में,
रह सकता अक्षुण्ण मुकुट का मान न इस वंदन में | ( 27)
लगा उन्हें, सिर पर सबके दासत्व चढ़ा जाता है,
राजसूय में से कोई साम्राज्य बड़ा आता है | ( 28)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे धर्मराज युधिष्ठिर ! यह मनुष्य की प्रवृत्ति है कि कोई भी मनुष्य अपने स्वाभिमान को खोना नहीं चाहता | कोई भी किसी उच्च सत्ता के सम्मुख सच्चे मन से झुकता नहीं है |
ठीक इसी प्रकार हे युधिष्ठिर ! अगर कुछ राजागण तुम्हारे ध्वज के नीचे आए थे तो वह प्रेम-भाव से नहीं आये थे, वह उनकी विवशता मात्र थी | उनमें से कुछ लोग अवश्य भक्ति भाव से तुम्हारी शरण में आए थे लेकिन अधिकांश ऐसे थे जो तलवार के भय से तुम्हारी अधीनता स्वीकार कर रहे थे |
हे युधिष्ठिर ! जिन राजाओं ने राजसूय यज्ञ में आकर तुम्हें एकछत्र सम्राट स्वीकार किया उनके मन में भाव जो भी हो लेकिन एक बात वे सभी स्वीकार करते थे कि इस राजसूय यज्ञ में आकर उन्होंने जो युधिष्ठिर की वंदना की है उससे उनके मुकुट का मान-सम्मान अक्षुण्ण नहीं रह सकता अर्थात इससे उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंची है |
हे युधिष्ठिर ! वे सभी यही सोच रहे थे की दासता का भाव उनके सिर पर मंडरा रहा है | एक आशंका उनके मन में पनपने लगी कि राजसूय यज्ञ से पांडवों का साम्राज्य बढ़ रहा है और उनका राज्य अपनी संप्रभुता खो रहा है |
विशेष – (1) कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि अधिकांश व्यक्ति केवल भय से ही दूसरों के स्वामित्व को स्वीकार करते हैं, कोई भी स्वेच्छा से किसी के स्वामित्व को स्वीकार नहीं करता |
(2) तत्सम प्रधान शब्दावली है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
किया यज्ञ ने मान विमर्दित अगणित भूपालों का,
अमित दिग्गजों का, शूरों का, बल-वैभव वालों का | (29)
सच है, सत्कृत किया अतिथि भूपों को तुमने मन से,
अनुनय, विनय, शील, समता से, मंजुल, मिष्ट वचन से | (30)
पर स्वतंत्रता-मणि का इनसे मोल न चुक सकता है,
मन में सतत दहकने वाला, भाव न रुक सकता है | (31)
कोई मंद, मूढ़मति नृप ही होता तुष्ट वचन से,
विजयी की शिष्टता-विनय से, अरि के आलिंगन से | (32)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! तुम्हारे राजसूय यज्ञ ने अनेक राजाओं के अभिमान को कुचल दिया | अनेक शूरवीर, शक्तिशाली व दिग्गज राजाओं की अमिट शक्ति को नष्ट कर दिया |
युधिष्ठिर ! यह सच है कि तुमने सभी अतिथियों का सच्चे मन से आदर-सत्कार किया | तुमने अनुनय-विनय, शील स्वभाव, समतामूलक दृष्टि, कोमल और मधुर वचनों से सभी अतिथि राजाओं को प्रसन्न करने का यथासंभव प्रयास किया |
परंतु हे युधिष्ठिर ! स्वतंत्रता रुपी मणि का मोल इन मीठे वचनों से नहीं चुक सकता | जब किसी की स्वतंत्रता दांव पर हो तो वह व्यक्ति स्वतंत्रता छीनने वाले व्यक्ति के प्रति वैरभाव से भर जाता है | ऐसी अवस्था में किसी भी प्रकार के आदर्श व मीठे वचन उसके क्रोध के भाव को शांत नहीं कर सकते |
हे युधिष्ठिर ! कोई मंदबुद्धि या मूर्ख राजा ही इस प्रकार के तुष्ट करने वाले वचनों से शांत हो सकता है और विजयी राजा की शिष्टता-विनय और उसके आलिंगन से अपनी पराजय के दंश को भूल सकता है |
विशेष – (1) इन पंक्तियों में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता को खोना नहीं चाहता |
(2) इस तथ्य का भी संकेत मिलता है कि पांडवों द्वारा राजसूय यज्ञ करना उचित नहीं था |
(3) अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं विषयानुकूल है |
चतुर भूप तन से मिल करते शमित शत्रु के भय को,
किंतु नहीं पड़ने देते अरि-कर में कभी हृदय को | ( 33)
हुए न प्रशमित भूत प्रणय-उपहार यज्ञ में देकर,
लौटे इंद्रप्रस्थ से वे कुछ भाव और ही लेकर | (34)
धर्मराज ! है याद व्यास का वह गंभीर वचन क्या,
ऋषि का वह यज्ञान्त-काल का, विकट भविष्य कथन क्या | (35)
जुटा जा रहा कुटिल ग्रहों का दुष्ट योग अंबर में,
स्यात, जगत पड़ने वाला है किसी महासंगर में | (36)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – हे युधिष्ठिर ! कभी भी पराजित राजा विजयी राजा के साथ मन से नहीं मिलता | हाँ, चतुर राजा शत्रु के भय को शांत करने के लिए उससे तन से मिल जाते हैं लेकिन उनके मन में हमेशा द्वेष भाव उद्दीप्त रहता है | वे कभी भी शत्रु के हाथों में अपने हृदय को नहीं सौंपते अर्थात कभी भी अपने हृदय से वे उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करते |
हे युधिष्ठिर ! ठीक इसी प्रकार राजसूय यज्ञ में उपस्थित हुए राजाओं ने मन से तुम्हारी अधीनता स्वीकार नहीं की | प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने राजसूय यज्ञ में तुम्हें प्रेम उपहार भी दिए लेकिन उनके मन में तुम्हारे प्रति वैर भाव था | इसलिए हे युधिष्ठिर ! जब वह राजागण इंद्रप्रस्थ से वापस लौट रहे थे तो उन सभी के मन में कुछ और ही भाव थे अर्थात उनके मन में तुम्हारे प्रति श्रद्धा का भाव नहीं बल्कि ईर्ष्या का भाव था |
हे युधिष्ठिर ! क्या तुम्हें महर्षि व्यास का वह गंभीर वचन याद है जो उन्होंने यज्ञ की समाप्ति पर कहा था | क्या तुम्हें याद है कि उन्होंने यज्ञ की समाप्ति पर एक भविष्यवाणी की थी कि आने वाला समय विकट संकट लेकर आएगा | अर्थात महर्षि व्यास ने राजसूय यज्ञ के दौरान ही इस बात का अनुमान लगा लिया था कि राजाओं के मन में क्या चल रहा है और भविष्य में उसके क्या परिणाम निकलेंगे |
हे युधिष्ठिर ! यज्ञ की समाप्ति पर महर्षि व्यास ने कहा था कि आसमान में कुटिल ग्रहों का अशुभ योग बन रहा है | उन्होंने कहा था कि शायद यह संसार किसी महासंग्राम की चपेट में आने वाला है |
विशेष – (1) इन पंक्तियों के माध्यम से इस तथ्य को प्रकट किया गया है कि कोई भी मनुष्य अपनी स्वतंत्रता को खोना नहीं चाहता |
(2) अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है |
(3) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
तेरह वर्ष रहेगी जग में शांति किसी विध छाई,
तब होगा विस्फोट, छिड़ेगी कोई कठिन लड़ाई | ( 37)
होगा ध्वंस कराल, काल विप्लव का खेल रचेगा,
प्रलय प्रकट होगा धरणी, पर हाहाकार मचेगा | ( 38)
यह था वचन सिद्ध दृष्टा का नहीं निरी अटकल थी,
व्यास जानते थे वसुधा जा रही किधर पल-पल थी | (39)
सब थे सुखी यज्ञ से, केवल मुनि का ह्रदय विकल था,
वही जानते थे कि कुंड से निकला कोई अनल था | (40)
भरी सभा के बीच उन्होंने सजग किया था सबको,
पग-पग पर संयम का शुभ उपदेश दिया था सबको | (41)
किंतु, अहम्मय, राग-दीप्त नर कब संयम करता है,
कल आने वाली विपत्ति से आज कहां डरता है | (42)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भीष्म पितामह ऋषि व्यास की भविष्यवाणी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! उस समय ऋषि व्यास ने कहा था कि किसी प्रकार इस संसार में तेरह वर्ष तक शांति का वातावरण बना रहेगा तत्पश्चात लोगों के हृदय में भरी नफरत का बारूद फट पड़ेगा, एक विस्फोट होगा और एक भयंकर युद्ध छिड़ जाएगा |
चारों तरफ भयंकर विनाश होगा | काल उधल-पुथल मचा देगा | इस धरती पर प्रलय आएगी और चारों तरफ हाहाकार मैच जाएगा | कहने का भाव यह है कि आज लोगों के मन में जो द्वेष-भावना प्रसुप्त अवस्था में है वह कुछ समय बाद जागृत हो जाएगी और भयंकर विनाश का कारण बनेगी |
हे युधिष्ठिर ! महर्षि व्यास एक सिद्ध-द्रष्टा थे, कोई सामान्य इंसान नहीं | उन्होंने उस समय जो भविष्यवाणी की थी वह मिथ्या नहीं थी, वह तथ्यों पर आधारित थी | महर्षि व्यास भली प्रकार जानते थे कि धरती धीरे-धीरे किस ओर जा रही है |
हे युधिष्ठिर ! राजसूय यज्ञ के समय सभी व्यक्ति सुखी थे लेकिन महर्षि व्यास का हृदय व्याकुलता से भरा हुआ था क्योंकि वे जानते थे कि राजसूय यज्ञ के हवनकुंड से कौन सी अग्नि निकली है | अर्थात वे अच्छी तरह से जानते थे कि राजसूय यज्ञ के कारण अनेक राजा पांडवों के विरुद्ध हो गए हैं, उनके मन में हमेशा के लिए पांडवों के प्रति द्वेष-भावना घर कर गई है जिसके आने वाले समय में भयंकर परिणाम होंगे |
हे युधिष्ठिर ! महर्षि व्यास ने यज्ञ के अवसर पर सभी को सचेत भी किया था कि हम सभी को शांति से काम लेना होगा | उन्होंने उस समय अपना शुभ संदेश देते हुए कहा था कि हम सभी को संयम से काम लेना होगा ताकि इस धरा पर शांति बनी रहे क्योंकि उन्हें आशंका थी कि राजसूय यज्ञ ने बहुत से राजाओं के मन में नफरत के बीज बो दिए हैं और आने वाले समय में जिसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं |
किंतु हे युधिष्ठिर ! अहंकारी और राग-द्वेष में लिप्त व्यक्ति कभी भी संयम के नियम का पालन नहीं करता | उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, वह भविष्य के दुष्परिणामों की परवाह नहीं करता और उत्तेजना में तुरंत अनुचित कदम उठा बैठता है | कहने का भाव यह है कि महर्षि व्यास के द्वारा दिए गए सभी उपदेशों को उन अहंकारी और राग-द्वेष की भावना में लिप्त राजाओं ने नकार दिया और मन ही मन पांडवों से नफरत करने लगे, उनसे प्रतिशोध लेने के लिए षड्यंत्र रचने लगे |
विशेष – (1) महर्षि व्यास के द्वारा की गई भविष्यवाणी केवल ज्योतिष पर आधारित नहीं बल्कि मनोविज्ञान पर आधारित थी | वे जानते थे कि पराजित राजाओं के मन में क्या चल रहा है और उसके क्या परिणाम निकलने वाले हैं |
(2) क्रोध की अग्नि में जल रहा व्यक्ति अपने विवेक और बुद्धि को खो बैठता है और उत्तेजना में उचित- अनुचित की परवाह किये बिना तुरंत कदम उठा बैठता है |
(3) अनुप्रास अलंकार व पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार की सुंदर छटा है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
बीत न पाया वर्ष, काल का गर्जन पड़ा सुनाई,
इंद्रप्रस्थ पर घुमड़ विपद की घटा अतर्कित छाई | (43)
किसे ज्ञात था खेल-खेल में यह विनाश छाएगा?
भारत का दुर्भाग्य द्यूत पर चढ़ा हुआ आएगा | ( 44)
कौन जानता था कि सुयोधन की धृति यों छूटेगी,
राजसूय के हवन कुंड से विकट वह्नि फूटेगी | (45)
तो भी है सच, धर्मराज ! यह ज्वाला नयी नहीं थी,
दुर्योधन के मन में वह वर्षों से खेल रही थी | (46)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भीष्म पितामह युधिष्ठिर से युद्ध के कारणों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! महर्षि व्यास का कथन पूर्णतया सत्य सिद्ध हुआ | यज्ञ के पश्चात अभी एक वर्ष का समय भी शांति पूर्वक न बीता था कि काल का भयंकर गर्जन सुनाई देने लगा और इंद्रप्रस्थ पर संकट के बादल मंडराने लगे |
युधिष्ठिर, यह किसी को ज्ञात नहीं था कि जुए के खेल के कारण इतना भयंकर विनाश होगा | इस बात का अनुमान कोई भी नहीं लगा सकता था कि भारत का दुर्भाग्य जुए के खेल के कारण आएगा | कहने का भाव यह है कि जुए का खेल महाभारत के युद्ध का एक प्रमुख कारण बना |
भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! कोई नहीं जानता था कि दुर्योधन का धैर्य इतनी जल्दी छूट जाएगा और वह युद्ध के लिये लालायित हो उठेगा | इस बात का अनुमान भी किसी को नहीं था कि राजसूय यज्ञ के हवन-कुंड से ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध की इतनी विकट अग्नि निकलेगी की सम्पूर्ण भारतवर्ष उसमें जल उठेगा |
लेकिन हे युधिष्ठिर ! यह भी सच है कि केवल राजसूय यज्ञ ही इस युद्ध का प्रमुख कारण नहीं था | वास्तव में दुर्योधन के मन में कौरवों के प्रति ईर्ष्या का भाव बहुत पहले से था | पांडवों को नष्ट करने के लिए वह बहुत पहले से ही षड्यंत्र रचता आ रहा था लेकिन राजसूय यज्ञ ने उसकी क्रोध की अग्नि को और भड़का दिया और इस बार उसे उन राजाओं का साथ मिला जो राजसूय यज्ञ से स्वयं को अपमानित अनुभव कर रहे थे |
विशेष – (1) महाभारत के युद्ध के कारणों का तार्किक वर्णन किया गया है |
(2) राजसूय यज्ञ को युद्ध का एक प्रमुख कारण स्वीकार करते हुए भी इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि वास्तव में कौरवों के मन में आरंभ से ही पांडवों के प्रति ईर्ष्या और द्वेष का भाव था |
(3) राजाओं द्वारा जुआ खेलना एक ऐसी कुप्रथा के रूप में दिखाया गया जिसके अकल्पनीय रूप से भयंकर परिणाम हो सकते हैं |
(4) प्रश्न अलंकार, अनुप्रास अलंकार एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार की सुंदर छटा है |
(4) भाषा सरल, सहज़ एवं प्रवाहमयी है |
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