उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भारत में सांप्रदायिकता के चिह्न नजर नहीं आते थे परंतु 1890 ईस्वी के बाद हिंदू-मुसलमानों में मनमुटाव बढ़ने लगा | कांग्रेस की स्थापना के पश्चात अंग्रेज मुसलमानों का समर्थन करने लगे थे ताकि कांग्रेस के प्रभाव को कम किया जा सके | इस प्रकार अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ ( Divide and Rule ) की नीति को अपनाया ताकि मुसलमान कांग्रेस से दूर रहें और राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हो सके | इस कार्य में सर सैयद अहमद खां ने एम ए ओ कॉलेज तथा अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
1905 ईo से 1922 ईo तक सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली प्रमुख घटनाएं
1. बंगाल का विभाजन ( Bangal Ka Vibhajan )
1905 ईo में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया | उसने कहा कि बंगाल का विभाजन प्रशासनिक कारणों से किया गया है परंतु वास्तव में बंगाल के विभाजन का मुख्य उद्देश्य हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालना था | पश्चिमी बंगाल में हिंदुओं की संख्या अधिक थी तथा पूर्वी बंगाल में मुसलमानों की संख्या अधिक थी | इसलिए बंगाल को दो भागों में बांट दिया गया – पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल | इसके परिणामस्वरूप को हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच मतभेद बढ़ने लगा | लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के नवाब को भी अपनी तरफ मिला लिया | यही कारण है कि 30 दिसंबर, 1906 में एक सभा में मुसलमानों ने बंगाल के विभाजन का समर्थन किया तथा बहिष्कार आंदोलन का विरोध किया | इस प्रकार बंगाल-विभाजन के द्वारा अंग्रेजों ने सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत की | हिंदू बंगाल के विभाजन का विरोध करते रहे तथा मुसलमान विभाजन का समर्थन करते रहे |
2. 1906 ईo का मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल
1 अक्टूबर, 1906 ईo को मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल वायसराय मिंटो से शिमला में मिला | इस प्रतिनिधिमंडल में 36 सदस्य थे तथा इसकी अध्यक्षता सर आगा खां ने की | इस प्रतिनिधिमंडल ने वायसराय से मांग की कि मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया जाए | इसके अतिरिक्त नौकरियों में आरक्षण तथा मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना, मुस्लिम जजों की नियुक्ति की मांग भी इस प्रतिनिधि मंडल के द्वारा की गई | वायसराय ने प्रतिनिधिमंडल को उनकी मांगों को मानने का आश्वासन दिया | 1909 ईo के भारत सरकार अधिनियम में मुसलमानों की उपर्युक्त सभी मांगों को स्वीकार कर लिया गया | इससे अंग्रेजों ने सांप्रदायिक राजनीति का एक और दांव चल दिया |
3. मुस्लिम लीग की स्थापना ( Muslim League Ki Sthapana )
मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल की सफलता के पश्चात मुसलमान किसी संगठन का निर्माण करने की सोचने लगे | वे सोचने लगे कि जिस प्रकार कांग्रेस हिंदुओं के हितों का ध्यान रखती है ठीक उसी प्रकार मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए भी किसी संगठन की आवश्यकता है | 30 दिसंबर, 1906 ईo में ढाका में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना की गई |
मुस्लिम लीग की स्थापना के उद्देश्य ( Muslim League Ki Sthapana ke Uddeshy )
🔹 भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजी शासन के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करना |
🔹 भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना | उनके लिए ब्रिटिश सरकार से अधिक से अधिक सुविधाएं जुटाना |
🔹 अगर उपर्युक्त उद्देश्यों को हानि नहीं पहुंचती है तो अन्य जातियों व सम्प्रदायों के साथ मित्रता पूर्ण व्यवहार करना |
मुस्लिम लीग के उद्देश्यों से यह स्पष्ट है कि वह प्रारंभ से ही सांप्रदायिक संगठन के रूप में उभर कर सामने आई | इसकी अधिकांश गतिविधियां कांग्रेस तथा हिंदुओं के विरुद्ध थी |
4. मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचनमंडल
1909 ईo के भारतीय परिषद अधिनियम में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया | इसका अर्थ था कि मुसलमानों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र बनाए जाएं जहां केवल मुसलमान उम्मीदवार ही खड़े हो सकते हों और मुस्लिम मतदाता ही मत डाल सकते हों | इस पृथक चुनाव-प्रणाली के गंभीर परिणाम निकले | इससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई और अधिक गहरी हो गई | इस बारे में स्वयं लॉर्ड मिंटो ने लिखा है – “हम नाग के दांत बो रहे हैं ; इसका परिणाम भीषण होगा |”
5. लखनऊ समझौता
मुस्लिम लीग आरंभ में केवल सांप्रदायिक नीति पर चलती रही परंतु बाद में उसकी नीति में कुछ बदलाव आने लगा | 1915 ईस्वी में मुस्लिम लीग ने अपने मुंबई अधिवेशन में अनेक कांग्रेसी नेताओं को आमंत्रित किया | गांधीजी, सरोजिनी नायडू आदि नेताओं ने इस अधिवेशन में भाग लिया | इस अधिवेशन के अच्छे परिणाम निकले | 1916 ईस्वी में मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस का संयुक्त अधिवेशन लखनऊ में हुआ | इसे लखनऊ समझौते के नाम से जाना जाता है | इस समझौते के अनुसार लीग तथा कांग्रेस ने मिलकर काम करने का निर्णय लिया | कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग को स्वीकार कर लिया | यह समझौता उस समय तो एक उपलब्धि माना जाता था परंतु बाद में यह अत्यंत घातक सिद्ध हुआ | क्योंकि कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन को स्वीकार कर लिया | अब मुसलमान मुस्लिम लीग को ही अपनी संस्था मानने लगे |
6. खिलाफत आंदोलन ( Khilafat Aandolan )
जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने लगा था तो भारतीय मुसलमान चिंतित होने लगे | उनको इस बात का डर था कि अंग्रेज तुर्की के खलीफा के साथ बुरा व्यवहार करेंगे | अतः भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खलीफा के समर्थन में जो आंदोलन चलाया उसे खिलाफत आंदोलन के नाम से जाना जाता है | गांधी जी ने भी खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया | यद्यपि असहयोग आंदोलन तथा खिलाफत आंदोलन एक साथ चले परंतु दोनों के उद्देश्य भिन्न थे | 1922 इसी में ‘चोरी-चोरा की घटना’ ( Chauri -Chaura ki Ghatna ) के कारण गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया | अतः मुस्लिम नेता गांधी जी तथा कांग्रेस से नफरत करने लगे और फिर से सांप्रदायिक नीतियों को अपनाने लगे | यहां तक कि अपने लिए अलग राष्ट्र की मांग भी करने लगे |
◼️ उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक से भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता का विकास होने लगा था | इसके परिणामस्वरूप 1906 ईo में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई | 1909 ईस्वी में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया | 1922 ईस्वी के पश्चात यह सांप्रदायिकता और अधिक बढ़ने लगी | मुस्लिम लीग अब कांग्रेस और हिंदुओं से दूर होने लगी | इसका परिणाम यह हुआ कि 1940 ईस्वी में मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग करने लगी और अंततः भारत विभाजन का दंश देशवासियों को झेलना पड़ा |