संस्कृत काव्यशास्त्र में ‘काव्यादर्श’ के रचयिता दण्डी ने कहा है कि वाणी के वरदान से ही मानव जीवन की विकास यात्रा पूरी होती है | वाणी के कारण मनुष्य अपने अतीत के ज्ञान को सुरक्षित रखता है तथा वर्तमान ज्ञान व अनुभवों को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाता है | प्राचीन काल में वाणी के समस्त लिखित भंडार को ‘वाङ्गमय’ कहा जाता था | आज इसके लिये कुछ लोगों द्वारा ‘साहित्य’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जो पूर्णत: उचित नहीं है क्योंकि वाङ्गमय और साहित्य में पर्याप्त अंतर है | वस्तुत: “समस्त अनुभव और ज्ञान का वाणी द्वारा प्रकाशन वाङ्गमय है और उनका लिपिबद्ध प्रकाशन साहित्य है |”
साहित्य को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – ज्ञानमूलक साहित्य और भावमूलक साहित्य | ज्ञानमूलक साहित्य में बुद्धि तत्व की प्रमुखता रहती हैं | इसके अंतर्गत विज्ञान, सभी प्रकार के शास्त्र, दर्शन, इतिहास आदि आते हैं | भावमूलक साहित्य में कल्पना और अनुभूति के द्वारा प्राप्त सत्य की अभिव्यक्ति होती है | ज्ञानमूलक साहित्य में जहां बुद्धि तत्त्व की प्रधानता होती है वहीं भावमूलक साहित्य में भाव-तत्व की प्रधानता होती है | वास्तव में इसी भाव-प्रधान वाङ्गमय को साहित्य या काव्य का नाम दिया जाता है |
भावमूलक साहित्य के दो प्रकार हैं – सृजनात्मक तथा विश्लेषणात्मक | सृजनात्मक साहित्य के अंतर्गत कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी आदि की चर्चा की जाती है | सृजनात्मक साहित्य को आधार बनाकर इनके गुण-दोष, उत्कर्ष-अपकर्ष संबंधी जो निर्णय लिया जाता है या विश्लेषण किया जाता है, उसे विश्लेषणात्मक साहित्य या आलोचनात्मक साहित्य की संज्ञा दी जाती है | सृजनात्मक साहित्य में भाव-तत्व प्रधान होता है तथा बुद्धि-तत्व गौण लेकिन आलोचनात्मक या विश्लेषणात्मक साहित्य में बुद्धि-तत्व प्रधान तथा भाव-तत्व या कल्पना-तत्व गौण होता है |
प्राचीन आचार्यों ने सृजनात्मक साहित्य को लक्ष्य ग्रंथ कहा है तथा आलोचनात्मक ( विश्लेषणात्मक साहित्य ) को लक्षण ग्रंथ कहा है | इन दोनों में लक्ष्य ग्रंथों की ही प्रधानता मानी गई है | इसका प्रमुख कारण यह है कि लक्षण ग्रंथ केवल लक्ष्य ग्रंथों की व्याख्या ही कर पाते हैं |
काव्य-रूप / काव्य के प्रकार / काव्य-भेद
उपकरण अर्थात इंद्रियों के आधार पर काव्य के दो भेद हैं – दृश्य काव्य तथा श्रव्य-काव्य | दृश्य काव्य का आस्वादन रंगमंच से प्राप्त होता है | इनको आंखों से देखकर आनंद प्राप्त होता है ; अत: इनको दृश्य-काव्य की संज्ञा दी जाती है | प्राचीन काल में रूपक के 10 भेेेद तथा उपरूपक के 18 भेद थे | अनेक देशों में नाटक एक प्रमुख भेद था | आज नाटक को छोड़ कर अन्य सभी भेद समाप्त हो चुके हैं | उनके स्थान पर एकांकी, रेडियो रूपक, झलकी आदि नये भेद प्राप्त होते हैं | दृश्य-काव्य के जो भेद आज भी प्रचलित हैं उनमें नाटक, एकांकी, सिनेनाटक, रेडियो नाटक आदि प्रमुख हैं |
(1) दृश्य-काव्य ( Drishya Kavya )
प्राचीन काल में दृश्य-काव्य अत्यधिक लोकप्रिय था | कारण यह था कि उस समय सभी नाटक अभिनीत होते थे | प्राचीन समय में दृश्य-काव्य के 10 रूपक तथा 18 उपरूपक माने गए हैं | आज दृश्य काव्य के प्रचलित रूपों में नाटक, एकांकी, सिनेनाटक, रेडियो नाटक, झलकी प्रमुख हैं | प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार हो जाने के बाद यह नाटक दृश्य से पाठ्य बन गए | यही कारण है कि आज उनको दृश्य-काव्य के स्थान पर कुछ विद्वान ‘पाठ्य-काव्य’ कहते हैं | प्रसाद जी ने ही इनको ‘पाठ्य-काव्य’ ही कहा था | प्रसाद द्वारा रचित नाटकों को रंगमंच पर प्रस्तुत करना बहुत कठिन है | कुछ अन्य आधुनिक हिंदी नाटक भी ऐसे ही हैं | यही कारण है कि आज विद्वान ‘दृश्य-काव्य’ नाम अव्यावहारिक मानते हैं | लेकिन यह भी सत्य है कि आज भी नाटक का सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व अभिनेयता माना जाता है | इसलिए अधिकांश विद्वान आज भी दृश्य-काव्य नाम का ही समर्थन करते हैं |
(2) श्रव्य-काव्य ( Shravya Kavya )
आकार की दृष्टि से श्रव्य-काव्य के तीन भेद हैं – पद्य, गद्य तथा चंपू | छंदोंबद्ध रचना ‘पद्य’ कहलाती है | छंदहीन रचना को ‘गद्य’ कहा जाता है | दोनों के मिश्रित रूप को ‘चंपू’ कहा जाता है | गद्य साहित्य में आज उपन्यास, कहानी, निबंध, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण आदि अनेक विधाएं प्रचलित हैं |
बन्ध की दृष्टि से काव्य के दो भेद हैं – प्रबंध काव्य तथा निर्बंध काव्य | प्रबंध-काव्य वह काव्य रचना है जिसमें प्रसंग का पूर्वापर संबंध होता है | इसके विचारों एवं भावों में सुसंबद्धता रहती है | निर्बंध काव्य में पूर्वापर संबंध नहीं रहता | इसलिए इसे निर्बंध काव्य कहते हैं | क्योंकि निर्बंध काव्य पूर्वापर प्रसंग से मुक्त होता है अतः इसे मुक्तक-काव्य भी कहा जाता है | मुक्तक काव्य के दो प्रकार हैं – पाठ्य तथा गेय | उदाहरण के लिये बिहारी के दोहे ‘पाठ्य मुक्तक’ कहे जा सकते हैं तथा मीरा तथा सूर के पद ‘गीतिकाव्य’ ( गेय मुक्तक ) के श्रेष्ठ उदाहरण हैं |
प्रबंध काव्य के दो भेद हैं – महाकाव्य तथा खंड काव्य | महाकाव्य में सम्पूर्ण जीवन का विशद व विस्तृत चित्रण किया जाता है और उसी के अनुसार भावों की उदात्तता एवं विशालता होती है | खंडकाव्य में जीवन के किसी एक महत्वपूर्ण अंश भावपूर्ण चित्रण रहता है | इसमें कथा का तारतम्य महाकाव्य जैसा होता है लेकिन इसकी कथा में वह विशालता व संपूर्णता नहीं होती जो महाकाव्य में होती है |
चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो, जायसी कृत पद्मावत, तुलसीदास कृत रामचरितमानस, केशवदास कृत रामचंद्रिका, मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित साकेत तथा प्रसाद कृत कामायनी आदि हिंदी के प्रसिद्ध महाकाव्य हैं | लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की काव्य रचनाएं नहुष, जयद्रथ वध आदि खंडकाव्य हैं |
गद्य के भी चार भेद माने जाते हैं – कल्पना सापेक्ष, भाव सापेक्ष, विचार सापेक्ष, तथा यथार्थ | कल्पना सापेक्ष में उपन्यास, कहानी आदि समाहित किए जा सकते हैं | भावना सापेक्ष में गद्य-गीत और शब्द-चित्र, विचार सापेक्ष में निबंध तथा यथार्थ में जीवनी और आत्मकथा आते आते हैं |
चम्पू काव्य ( Champu Kavya )
चंपू काव्य में गद्य और पद्य दोनों शैलियों का मिश्रण रहता है | इसलिए इसे मिश्रित काव्य या मिश्र काव्य भी कहा जाता है | प्राचीन काल में ‘चंपू’ नाम ही प्रचलित था | ‘देशराज चरित’ संस्कृत का सुप्रसिद्ध चम्पू काव्य है | प्रसाद जी ने भी ‘उर्वशी’ नामक चम्पू काव्य लिखा था | लेकिन इस शैली का अधिक प्रचलन नहीं हो पाया | यूँ तो नाटक में भी पद्य और गद्य का मिश्रण रहता है लेकिन उसे चम्पू काव्य नहीं कहा जा सकता | कारण यह है कि चम्पू काव्य में अलंकार, बिम्ब, कल्पना-तत्त्व आदि की प्रधानता रहती है वहीं नाटक में संवादों की प्रधानता रहती है | नाटक को चंपू काव्य इसलिए भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि नाटक दृश्य काव्य है, श्रव्य-काव्य नहीं |
जीवन के प्रति दृष्टिकोण के आधार पर काव्य के भेद
जीवन के प्रति दृष्टिकोण को आधार बनाकर काव्य के दो भेद किए गए हैं – यथार्थवादी काव्य और आदर्शवादी काव्य |
◼️ इस प्रकार इंद्रियों के आधार पर काव्य को मुख्य रूप से दृश्य-काव्य तथा श्रव्य-काव्य दो रूपों में बांटा जा सकता है | दृश्य काव्य के जहां प्राचीन समय में 10 रूपक तथा 18 उपरूपक प्रचलित थे वही आधुनिक समय में केवल नाटक, एकांकी, रेडियो नाटक, सिने नाटक, झलकी आदि प्रचलित रह गए हैं |
श्रव्य काव्य को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है – पद्य, गद्य तथा चंपू काव्य | पद्य को आगे प्रबंध-काव्य तथा मुक्तक-काव्य में बांटा जा सकता है | प्रबंध-काव्य के अंतर्गत महाकाव्य, खंडकाव्य तथा एकांत काव्य आते हैं तथा मुक्तक-काव्य को पाठ्य मुक्तक तथा गेय मुक्तक ( गीतिकाव्य ) में बांटा जा सकता है |
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