‘विधवा’ कविता का प्रतिपाद्य / विषय या संदेश
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ छायावाद के चार आधार-स्तंभों में से एक हैं | निराला संभवत: प्रथम छायावादी कवि हुए हैं जिन्होंने सर्वप्रथम प्रगतिशील विचारों को अपनी कविता में स्थान दिया | भिक्षुक, विधवा, तोड़ती पत्थर, बादल राग और कुकुरमुत्ता जैसी कविताएं ऐसी ही कवितायें हैं जिनमें निराला जी ने समाज के दलित, शोषित, पीड़ित व उपेक्षित जनसमुदाय के दुःखों का वर्णन किया है |
‘विधवा’ कविता में ही निराला जी ने भारतीय विधवा का हृदयस्पर्शी व मार्मिक चित्रण किया है | निराला जी ने विभिन्न उपमानों की सहायता से विधवा का जो शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, वह पाठकों की आँखों में आँसू ला देता है | साथ ही भारतीय समाज की संवेदनहीनता भी कविता के माध्यम से अभिव्यक्त होती है |
कवि के अनुसार विधवा इष्टदेव के मंदिर की पूजा के समान, दीपशिखा की लौ के समान शांत भाव में लीन, क्रूर काल के तांडव-नृत्य की स्मृति रेखा, टूटे हुये तरु की लता के समान दीन व निस्सहाय होती है | वह षडऋतुओं के श्रृंगार से अछूती रहती है और दुनिया की नज़रों से बचाकर चुपचाप रुदन करती रहती है | समाज में कोई उसके रुदन से प्रभावित नहीं होता | केवल धैर्यवान आकाश, स्थिर समीर ओर सरिता की लहरें ही उसका विलाप सुनती हैं | कवि कहता है कि कभी उसके जीवन में भी किसी ने प्रवेश किया था | वह उसके सौभाग्य का सूचक था, वही उसका एकमात्र सहारा व जीवन का लक्ष्य था | लेकिन आज उसका जीवन-धन उससे दूर हो गया है | अब वह दुखमय व्यथा-कथा बनकर रह गया है | दयनीय दशा को देखकर मन रूपी भ्रमर की पलकों रूपी पंख भीग उठे हैं | कहने का भाव यह है कि जो भी उस विधवा की दयनीय अवस्था को देखता है उसकी आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं |
इस प्रकार इस कविता में निराला जी ने भारतीय विधवा की दिन-हीन दशा का मार्मिक एवं स्वाभाविक चित्रण प्रस्तुत किया है |
‘विधवा’ ( सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ) कविता की व्याख्या
वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा सी
वह दीप-शिखा सी शांत, भाव में लीन,
वह क्रूर-काल-तांडव की स्मृति-रेखा-सी,
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन
दलित भारत की ही विधवा है | (1)
षडऋतुओं का श्रृंगार
कुसुमित कानन में नीरव-पद-संचार,
अमर कल्पना में स्वच्छंद विहार-
व्यथा की भूली हुई कथा है,
उसका एक स्वप्न अथवा है | (2)
उसके मधु-सुहाग का दर्पण
जिसमें देखा था उसने
बस एक बार बिम्बित अपना जीवन-धन,
अबल हाथों का एक सहारा –
लक्ष्य जीवन का प्यारा वह ध्रुवतारा
दूर हुआ वह बहा रहा है
उस अनंत पथ से करुणा की धारा | ( 3)
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘विधवा’ नामक रचना से अवतरित है | इसके रचयिता प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी हैं | इस कविता में निराला ने भारतीय विधवा के उपेक्षित व अभिशप्त जीवन का अत्यंत मार्मिक वर्णन करने के साथ-साथ विधवा के प्रति समाज के दूषित दृष्टिकोण को भी उजागर किया है |
व्याख्या – कवि भारतीय विधवा के दुखी जीवन का वर्णन करते हुए कहता है कि भारतीय विधवा आराध्य देव के मंदिर की पूजा-सी प्रतीत होती है | वह दीपशिखा के समान शांत भाव में लीन रहती है | उसे देखकर लगता है कि मानो वह निर्दयी काल के तांडव-नृत्य की स्मृति रेखा हो | जिस प्रकार वृक्ष के टूट जाने पर उस पर चढ़ी हुई बेल बेसहारा हो जाती है ठीक उसी प्रकार से अपने पति की मृत्यु के पश्चात भारतीय नारी भी बेसहारा हो जाती है | दलित और शोषित भारत की विधवा की ऐसी ही दयनीय स्थिति होती है |
कवि कहता है कि षडऋतुएँ कभी उस स्त्री ( जो अब विधवा हो गयी है ) के जीवन में भी रस का संचार करती थी | बसंत कभी उसके जीवन रूपी पुष्पित-उपवन में धीमे-धीमे चुपचाप आगमन करता था | तब वह अमर-कल्पना में स्वच्छंद विचरण करती थी अथवा वह स्वर्णिम समय चिरस्थायी प्रतीत होता था | परन्तु आज वह सब व्यथा की भूली हुई कथा या स्वप्न प्रतीत होता है |
अब उस विधवा के जीने एकमात्र सहारा उसके पति की मधुर स्मृतियां हैं | उसके पति उसके लिए उस सौभाग्य सूचक दर्पण के समान थे जिसमें उसने केवल एक बार अपने प्रतिबिंबित जीवन धन को देखा था अर्थात विवाह के थोड़े अंतराल के पश्चात ही उसके पति की मृत्यु हो गई थी | वह उस अबला के जीवन का एकमात्र सहारा था, वही उसके जीवन का लक्ष्य था | वह उसके जीवन में उस ध्रुव तारे की भांति था जो हमेशा उसका मार्गदर्शन करता था | परंतु आज वह उससे बहुत दूर चला गया है तथा उस अनंत पथ से उसके जीवन में करुणा की धारा बहा रहा है |
विशेष – (1) भारतीय विधवा की दयनीय स्थिति का मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्रण है |
(2) अनुप्रास, रूपक, उपमा, प्रश्न एवं संदेह अलंकार की सुंदर छटा है |
(3) संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की प्रधानता है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
(5) मुक्त छंद है |
हैं करुणा-रस से पुलकित इसकी आंखें,
देखा तो भीगी मन-मधुकर की पाँखें,
मृदु रसावेश में निकला जो गुञ्जार
वह और न था कुछ, था बस हाहाकार |
उस करुणा की सरिता के मलिन पुलिन पर,
लघु टूटी हुई कुटी का, मौन बढ़ाकर
अति छिन्न हुए भीगे अञ्चल में मन को –
दुख-रूखे सूखे अधर त्रस्त चितवन को
वह दुनिया की नजरों से दूर बचा कर,
रोती है अस्फुट स्वर में ;
दुख सुनता है आकाश धीर,
निश्चल समीर,
सरिता की वे लहरें भी ठहर-ठहरकर |
कौन उसको धीरज दे सके,
दु:ख का भार कौन ले सके?
यह दुख वह जिसका नहीं कुछ छोर है,
दैव अत्याचार कैसा घोर और कठोर है |
क्या कभी पोंछे किसी के अश्रु-जल?
या किया करते रहे सबको विकल?
ओस-कण-सा पल्लवों से झर गया
जो अश्रु, भारत का उसी से सर गया |
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – कवि भारतीय विधवा की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है कि विधवा की आंखें सदैव करुण-रस पुलकित रहती हैं अर्थात उसकी आँखों में सदैव करुणा का भाव होता है | उसकी आंखों से उस की दयनीय स्थिति का आभास हो जाता है | उसे देखने वाले का मन द्रवित हो जाता है | उसे देखने के पश्चात मन रूपु भ्रमर गुञ्जार करने लगता है अर्थात करुण-आहें फूट पडती हैं जो किसी हाहाकार से कम नहीं होती |
भारतीय विधवा की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि एक विधवा का जीवन करुणा की नदी के मलिन तट पर बनी हुई एक टूटी फूटी झोपड़ी के समान होता है | उसके जीवन में किसी प्रकार की हंसी-खुशी न होने के कारण सदा ही खामोशी छाई रहती है | वह सदा अपने अत्यंत क्षीण एवं आंसुओं से भीगे हुए अंचल में मन मसोस कर जीवन-यापन करती है | वह अपने दु:ख और कष्टों के कारण सूखे हुए होठों और त्रस्त चितवन को दुनिया की नजरों से बचाकर मन ही मन अस्फुट रूप से रुदन करती रहती है | उसके इस विलाप को कोई नहीं सुन पाता | केवल धैर्यवान आकाश या गतिशील पवन ही उसके इस रुदन को सुनती है | नदी की लहरें भी मानो रुक रुक कर उसके रुदन को सुनते हुए प्रतीत होती हैं | कहने का भाव यह है कि भारतीय विधवा की समाज में अत्यंत दयनीय दशा है | कोई उसके दुख को नहीं समझ पाता |
एक विधवा की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए कवि प्रश्न करता है कि क्या इस समाज में कोई ऐसा व्यक्ति है जो उस विधवा को धीरज दे सके? क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो उसके दुखों का बोझ उठा सके, उसकी सहायता कर सके? वस्तुत: विधवा के जीवन का दुख अनंत है, उसका कोई किनारा नहीं है | यह ईश्वर का विधवा नारी के प्रति अत्यंत कठोर एवं घोर अन्याय है |
विधवा स्त्री के दुखों का वर्णन करते हुए कवि ईश्वर को संबोधित करते हुए कहता है कि हे ईश्वर ! क्या कभी तूने किसी दुखी व्यक्ति के आंसू भी पोंछे हैं अर्थात क्या तुमने कभी किसी दुखी व्यक्ति को सांत्वना भी दी है या तुम सबको केवल व्याकुल ही किया करते हो? अंत में कवि कहता है कि विधवा की आंखों से आँसू वैसे ही झरते रहते हैं जैसे वृक्षों के पत्तों से ओस-कण झरते रहते हैं | विधवा नारी के इन आंसुओं की प्रवाह न करने के कारण भारत का मान-सम्मान नष्ट हो रहा है | इस प्रकार कवि ने कविता के अंत में पूरे समाज से विधवा स्त्रियों के प्रति सहानुभूति रखने व उनके दुःखों को दूर करने का आवाह्न किया है |
विशेष – (1) एक विधवा स्त्री का मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी वर्णन है |
(2) अनुप्रास, रूपक, उपमा, प्रश्न एवं संदेह अलंकार की सुंदर छटा है |
(3) संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की प्रधानता है |
(4) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है |
(5) मुक्त छंद है |
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