काव्य सोद्देश्य रचना होती है | वैसे तो संसार में प्रत्येक घटना व प्रत्येक कार्य का कोई न कोई उद्देश्य आवश्यक होता है लेकिन बिना उद्देश्य ( प्रयोजन ) के काव्य की कल्पना नहीं की जा सकती | सामान्यत: काव्य-रचना के उपरांत जो फल या परिणाम प्राप्त होता है, उसे काव्य-प्रयोजन कहा जाता है | काव्य हेतु की भांति काव्य प्रयोजन के बारे में भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं |
काव्य-प्रयोजन का अर्थ व परिभाषा
काव्य-प्रयोजन के अर्थ और परिभाषा को जानने के लिए संस्कृत आचार्यों, रीतिकालीन आचार्यों व आधुनिक विद्वानों के मतों को जानना आवश्यक है |
(क ) संस्कृत आचार्यों के काव्य-प्रयोजन संबंधी मत
🔹 आचार्य भरत मुनि ने अपनी रचना ‘नाट्यशास्त्र’ में नाटक के प्रयोजनों की चर्चा की है क्योंकि नाटक काव्य का ही एक रूप है अतः भारत द्वारा बताए गए नाटक के प्रयोजन काव्य के प्रयोजन भी माने जाते हैं | उनके अनुसार नाटक धर्म, यश, आयु, हित तथा उपदेश देने वाला है | एक अन्य स्थान पर उन्होंने पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात धर्म, अर्थ. काम और मोक्ष को भी नाटक का प्रयोजन माना है |
🔹 भामह ने अपनी रचना ‘काव्यालंकार’ में कहा है कि कवि और सहृदय दोनों को साधु काव्य के सेवन से पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) कलाओं में निपुणता, कीर्ति तथा आनंद की प्राप्ति होती है |
धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च |
प्रीतिं करोति कीर्ति च साधुकाव्यनिषेवणं ||
🔹 आचार्य दंडी ने ज्ञान और यश को काव्य प्रयोजन माना है |
🔹 आचार्य वामन ने आनंद प्राप्ति तथा यश प्राप्ति को काव्य-प्रयोजन माना है | उनके अनुसार आनंद प्राप्ति दृष्ट प्रयोजन है तथा यश प्राप्ति अदृश्य प्रयोजन है |
🔹 आचार्य रूद्रट के अनुसार कवि महापुरुषों के जीवन पर काव्य रचना करके उनको युगों-युगों तक स्थाई बना देता है जो कि एक बहुत बड़ा उपकार है | कवि को भी इस पुण्य का फल मिलता है | उसका यश भी युगों-युगों तक स्थाई बन जाता है | रुद्राक्ष ने असंख्य काव्य प्रयोजन मानी है उनका कथन है कि जिस प्रकार समुद्र की मडिया गेम पाना असंभव है उसी प्रकार काव्य प्रयोजन ओं को गिन पाना भी कठिन है | संक्षेप में रुद्रट ने यश, अर्थ और इच्छा प्राप्ति को काव्य प्रयोजन माना है | उनके अनुसार सहृदय पाठक को भी पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) की प्राप्ति होती है |
🔹 आनंदवर्धन ने अपनी रचना ‘ध्वन्यालोक’ में प्रीति तथा आनंद की प्राप्ति को काव्य-प्रयोजन माना है |
“तेन ब्रूम: सहृदयमन: प्रीतयो तत्स्वरूपम् |”
🔹 राजशेखर कहते हैं कि कवि सहृदय को रसानुभूति कराने में समर्थ होता है | इससे कवि का यश भी लोक में व्याप्त हो जाता है | इस प्रकार राजशेखर के अनुसार यश प्राप्ति तथा आनंद प्राप्ति प्रमुख काव्य-प्रयोजन हैं |
🔹 आचार्य कुंतक ने काव्य के तीन प्रयोजन स्वीकार किए हैं | उनके अनुसार पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) की प्राप्ति, व्यवहार ज्ञान तथा विलक्षण चमत्कार अर्थात लोकोत्तर आनंद की उपलब्धि काव्य प्रयोजन हैं |
🔹 भोजराज ने काव्य की परिभाषा देते हुए कीर्ति और प्रीति को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है | अन्यत्र प्रबंध काव्य की चर्चा करते हुए वे चतुर्वर्ग फल ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) प्राप्ति को काव्य का प्रयोजन स्वीकार करते हैं |
🔹 आचार्य मम्मट ने काव्य का प्रयोजन यश, अर्थ-प्राप्ति, व्यवहार-ज्ञान, जीवन के शिव पक्ष की रक्षा करना, सद्य:परिनिवृत्ति ( परम शांति ) तथा कांता सम्मित उपदेश देना माना है |
‘कांता सम्मित उपदेश’ से यहां अभिप्राय है कि वेद, शास्त्रों तथा अन्य आदेशों को टाला जा सकता है लेकिन काव्य के माध्यम से जो उपदेश दिया जाता है वह अटल होता है |
🔹 आचार्य विश्वनाथ ने कहा है कि काव्य पढ़ने से अल्प बुद्धि वालों को भी सुविधा से चतुर्वर्ग फल प्राप्ति हो जाती है |
🔹 आचार्य हेमचंद्र ने आनंद, यश तथा कांतोपदेश को काव्य-प्रयोजन बताते हुए आचार्य मम्मट का ही समर्थन किया है | वे इस विषय में कहते हैं –
“काव्यमानन्दाय यशसे कांतातुल्य तयोपदेशाय च |”
(ख ) रीतिकालीन आचार्यों के काव्य-प्रयोजन संबंधी मत
रीतिकालीन कवियों ने भी काव्य परियोजना की चर्चा की है लेकिन उनके मतों में मौलिकता का अभाव है | उनके मत संस्कृत आचार्यों का ही हिंदी रूपांतरण प्रतीत होते हैं |
🔹 कुलपति ने यश, संपत्ति, विलक्षण आनंद, दुःख-नाश, लोक-व्यवहार में निपुणता तथा कांतोंपदेश को काव्य प्रयोजन माना है | वे कहते हैं –
“जस, संपत्ति आंनद अति, दुखिन डारै खोइ |
होत कवित्त तें चतुरई जगत बाम बस होइ ||”
🔹 रीतिकाल के प्रसिद्ध आचार्य कवि देव कहते हैं कि शास्वत यश ही काव्य का प्रयोजन है | वे यहाँ तक कहते हैं कि संसार में अन्य सभी वस्तुएं नाशवान हैं, केवल काव्य द्वारा प्राप्त यश ही अनश्वर है |
🔹 आचार्य सोमनाथ ने कीर्ति, धन, मनोरंजन, मंगल तथा उत्तम उपदेश आदि को काव्य प्रयोजन माना है |
🔹 भिखारीदास ने चतुर्वर्ग फल प्राप्ति ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) संपत्ति, यश तथा आनंद को काव्य प्रयोजन माना है |
( ग ) आधुनिक विद्वानों के काव्य-प्रयोजन संबंधी मत
आधुनिक हिंदी साहित्य के महान साहित्यकारों तथा आलोचकों ने भी काव्य-प्रयोजनों के संबंध में अपने मत प्रकट किए हैं | इनके मत भी संस्कृत आचार्यों तथा रीतिकालीन आचार्यों से मिलते-जुलते हैं |
🔹 आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उपदेश को काव्य प्रयोजन मानते हैं |
🔹 डॉक्टर श्यामसुंदर दास मानसिक संतुष्टि तथा अलौकिक आनंद को काव्य प्रयोजन स्वीकार करते हैं |
🔹 आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने आत्मानुभूति को काव्य प्रयोजन माना है |
🔹 मैथिलीशरण गुप्त भी महावीर प्रसाद द्विवेदी का अनुसरण करते हुए उपदेश को काव्य प्रयोजन मानते हैं | परंतु वे उपदेश के साथ-साथ मनोरंजन भी काव्य प्रयोजन स्वीकार करते हैं |
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए |
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए ||”
🔹 प्रसिद्धि छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत आत्म-सुख और लोकहित को काव्य-प्रयोजन मानते हैं |
” तुम वहन कर सको जन मन में मेरे विचार |
ज्योतित कर जन मन के जीवन का अंधकार |
तुम खोल सको मानव-उर के नि:शब्द द्वार |”
🔹 आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने काव्य प्रयोजनों पर विस्तार से चर्चा की है | वे काव्य का प्रमुख प्रयोजन ‘हृदय को मुक्तावस्था में लाना’ मानते हैं |
🔹 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘मानव-हित’ को काव्य प्रयोजन मानते हैं | वे कहते हैं – “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ | जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गतिहीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न कर सके, जो उसके हृदय को पर-दु:खकातर और पर-दु:खसंवेदनशील ने बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है |”
🔹 डॉ नागेंद्र ‘आत्माभिव्यक्ति’ को काव्य-प्रयोजन मानते हैं |
वे लिखते हैं – “आत्माभिव्यक्ति वह मूल तत्व है जिसके कारण कोई व्यक्ति साहित्यकार और उसकी कृति साहित्य बन जाती है |”
◼️ इस प्रकार संस्कृत आचार्यों, रीतिकालीन आचार्यों तथा आधुनिक विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टिकोण से काव्य प्रयोजन बताए हैं | मुख्यतः उपदेश, यश, धन-संपत्ति, चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति, लोकहित, लोकोत्तर आनंद तथा आत्माभिव्यक्ति या आत्मानुभूति को काव्य प्रयोजन माना जा सकता है |
यह भी पढ़ें
काव्य : अर्थ, परिभाषा( काव्य लक्षण ) और स्वरूप ( Kavya : Arth, Paribhasha V Swaroop )
काव्य के भेद / प्रकार ( Kavya Ke Bhed / Prakar )
साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप
सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )
अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ
ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )
रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ
औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं
वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )