‘पवनदूती’ ( पवन दूतिका ) नामक काव्य अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘प्रियप्रवास’ शीर्षक महाकाव्य का एक अंश है | इस महाकाव्य में श्री कृष्ण के मथुरा जाने की घटना का उल्लेख है | श्री कृष्ण के मथुरा गमन करते ही ब्रजवासी विरह-वेदना से व्यथित हो उनके जीवन की विभिन्न घटनाओं का स्मरण करते रहते हैं | इस महाकाव्य का सबसे मार्मिक प्रसंग राधा की विरह वेदना है | राधा पवन को दूती बनाकर मथुरा भेजती है और उससे विनम्र आग्रह करती है कि वह किसी भी प्रकार से उसके हृदय की वेदना को श्रीकृष्ण के सम्मुख अभिव्यक्त कर दे |
हरिऔध द्वारा रचित इस काव्य में ‘पवनदूती प्रसंग’ की योजना भ्रमरगीत योजना से कुछ पृथक है जो इस काव्य को मौलिकता एवं नवीनता प्रदान करती है | भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों की विरह वेदना, उनकी वाकपटुता प्रकट होती है लेकिन ‘पवनदूती प्रसंग’ में विरह-वेदना व वाकपटुता के साथ-साथ लोकमंगल की भावना की अभिव्यक्ति हुई है जो संभवत: इसका मुख्य उद्देश्य भी है |
‘प्रिय प्रवास’ के इस ‘पवनदूती प्रसंग’ में कवि का सारा ध्यान राधा के चरित्र की महानता एवं उदारता को अभिव्यक्त करने पर केंद्रित रहा है | राधा के चरित्र को अभिव्यक्त करना तथा उस के माध्यम से परोपकार की भावना का संदेश देना इस प्रसंग का मुख्य लक्ष्य है | यही कारण है कि इस काव्य का प्रमुख पात्र कृष्ण के स्थान पर राधा बन गई है |
इस काव्य में जहाँ श्रीकृष्ण को एक महान नेता और लोकसेवी पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है वहीं राधा को भी परोपकार की साकार मूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है | यही कारण है कि राधा अपनी व्यक्तिगत पीड़ा की चिंता न करके संसार के सभी पीड़ित प्राणियों के प्रति सहानुभूति के भाव प्रकट करती है | वह पवन से यह आग्रह तो अवश्य करती है कि वह उसके संदेश को श्रीकृष्ण तक पहुंचा दे लेकिन साथ ही उससे अपेक्षा करती है कि राह में पड़ने वाले प्रत्येक दुखी प्राणी के दुःखों को हरने का प्रयास करे | इस प्रकार कवि का प्रमुख संदेश है कि मानव को अपने स्वार्थ को त्याग कर मानवता के कल्याण के लिए कर्म करना चाहिए |
” जाते-जाते अगर पथ में क्लांत कोई दिखावे |
तो तू जाके निकट, उसकी क्लान्तियों को मिटाना |
धीरे-धीरे परस करके, गात उत्ताप खोना |
सद्गंधों से श्रमित जन को, हर्षितों सा बनाना ||”
कवि केवल मानव ही नहीं बल्कि प्रकृति के प्रत्येक जीव के कष्ट को दूर करने का संदेश देता है |
“जो पुष्पों के मधुर रस को, साथ सानंद बैठे |
पीते होवें भ्रमर-भ्रमरी, सौम्यता तो दिखाना |
थोड़ा सा भी न कुसुम हिले, औ न उद्विग्न होवें |
क्रीड़ा होवे नहीं कलुषिता, केलि में हो न बाधा ||”
वस्तुत: इस काव्य में इस तथ्य को अभिव्यक्त किया गया है कि मनुष्य प्राय: अपने दुख को सर्वोपरि समझता है, अपनी समस्याओं का वर्णन करता रहता है और अपनी समस्याओं तथा अपने दुख का निराकरण करने के लिए उचित-अनुचित हर प्रकार के हथकंडे को अपनाता है | कवि ने ‘पवनदूती प्रसंग’ में इसी संदेश को अभिव्यक्त किया है कि मनुष्य भले ही कितने ही दुखों से ग्रस्त क्यों ना हो लेकिन फिर भी उसे दूसरे लोगों के दुख को दूर करने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये |
“तेरे जैसी मृदु पवन से, सर्वथा शान्ति-कामी |
कोई रोगी पथिक पथ में, जो कहीं भी पड़ा हो |
तो तू मेरे सकल दुःख को, भूल के धीर होके |
खोना सारा कलुष उसका, शांत सर्वांग होना |”
‘प्रिय प्रवास’ के इस अवतरण में कवि ने श्री कृष्ण के चरित्र के माध्यम से नेताओं को मधुर वक्ता, मर्यादित व उच्च चारित्रिक गुणों से युक्त होने का संदेश दिया है |
“प्यारे-प्यारे वचन उनसे बोलते श्याम होंगे |
फैली जाते हृदय उनके हर्ष की बेलि होगी |
देते होंगे महत गुण वे, देख के नैन कोरों |
लोहा को छू कलित कर से, स्वर्ण होंगे बनाते ||”
◼️ निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि ‘पवनदूती’ काव्य का मुख्य संदेश राधा की विरह-वेदना के वर्णन के साथ विश्व के सभी प्राणियों विशेषत: दुःखी जनों के प्रति सद्भाव प्रकट करना भी है | काव्य में कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि इस काव्य का मुख्य उद्देश्य केवल लोक-कल्याण है, राधा का विरह वर्णन तो केवल निमित्त मात्र है | यह विशेषता काव्य को नवीनता प्रदान करती है | यही कारण है कि काव्य के अंत में राधा श्री कृष्ण को मानवहित के कार्यों में संलग्न देखकर उनके चरणों की धूलि लाने का आग्रह करती है |
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