‘बादल राग’ कविता की व्याख्या
तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुख की छाया
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया
यह तेरी रण-तरी,
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग, सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नव जीवन की, ऊंचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !
फिर-फिर | (1)
बार-बार गर्जन,
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार |
अशनि-पात से शापित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत-हत अचल-शरीर,
गगन स्पर्शी स्पर्धा-धीर |
हंसते हैं छोटे पौधे लघु-भार
शस्य अपार,
हिल-हिल,
खिल-खिल,
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते | (2)
अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भवन,
सदा पंक ही पर होता जल विप्लव-प्लावन
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हंसता है शैशव का सुकुमार शरीर |
रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,
अंगना अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र-गर्जन से बादल,
त्रस्त नयन-मुख ढांप रहे हैं |
जीर्ण-बाहु, है शीर्ण-शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर !
चूस लिया है उसका सार,
हाड़मात्र ही हैं आधार,
ऐ जीवन के पारावार | (3)
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘बादल राग’ नामक कविता से दिया गया है | इसके रचयिता छायावाद के प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी हैं | इसमें कवि निराला ने प्रगतिवादी स्वर में दलित, पीड़ित, शोषित और उपेक्षित वर्ग के शोषण से व्यथित हो बादल को क्रांति का दूत मानकर क्रांति का आह्वान किया है |
व्याख्या – कवि बादलों को संबोधित करता हुआ कहता है कि हे बादल ! तू समीर रूपी सागर पर ठीक उसी तरह से तैरता रहता है जिस प्रकार से अस्थिर सुख पर दुख की छाया मंडराती रहती है | तू इस संसार के पीड़ित लोगों के हृदय में निर्दयी क्रांति की माया के समान आच्छादित रहता है अर्थात पीड़ित लोगों के हृदय में उनके दुःखों के लिये उत्तरदायी व्यवस्था के विरुद्ध रोष पनपता रहता है | यह बादल तेरी युद्ध की नौका उन दलित-पीड़ित लोगों की आकांक्षाओं भरी हुई है अर्थात क्रांति के आगमन पर उन लोगों के मन में अपने दुखों के निवारण की भावना बलवती हो जाती है और वे सुख-समृद्धि के सपने देखने हैं | हे क्रांति के दूत बादल ! तुम्हारे नगाड़े की गर्जना से सावधान होकर पीड़ित लोग ठीक उसी प्रकार अपना सिर ऊंचा करके नवजीवन की आशाओं से भरकर तुम्हारी ओर ताकने लगते हैं जिस प्रकार पृथ्वी के ह्रदय में सोए हुए अंकुर बादल के आगमन पर नवजीवन की आशाओं से भर जाते हैं और अंकुरित होकर, ऊंचा सिर करके बादलों की ओर ताकते हुए प्रतीत होते हैं | कहने का भाव यह है कि क्रांति के आगमन पर दलित, शोषित, पीड़ित लोगों के मन में नई आकांक्षाओं का जन्म होता है, वे भी यह आशा करने लगते हैं कि अब उनके दुखों का निवारण हो जाएगा, उन्हें भी उन्नति के के समान अवसर मिलेंगे और उनका जीवन भी खुशियों से भर जाएगा |
हे क्रांति के दत बादल ! तेरे बार-बार गर्जन करने तथा धारासार वर्षण से सारा संसार भय से अपना कलेजा थाम लेता है | तेरी वज्र के समान हुंकार को सुनकर सब लोग आतंकित हो जाते हैं | भीषण तड़ित पात से गगन को छूने की स्पर्धा में लगे हुए ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के कठोर शरीर क्षत-विक्षत हो जाते हैं अर्थात क्रांति रूपी तड़ित पात होने पर उन्नति के शिखर पर पहुंचने वाले सैकड़ों वीर मिट्टी में मिल जाते हैं | लेकिन छोटे व हलके पौधे उसी प्रकार से हंसते-मुस्कुराते रहते हैं | उन पर बादलों की विनाश लीला का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि वे उससे और अधिक विकसित होते हैं | वे और अधिक हरियाली युक्त हो जाते हैं | ऐसा प्रतीत होता है मानो छोटे-छोटे पौधे हिल-हिलकर, खिल-खिलकर और हाथ हिलाते हुए तुझे आने का निमंत्रण दे रहे हैं | वस्तुतः क्रांति के उथल-पुथल के शोर से छोटे लोग ही शोभा पाते हैं |
कवि बादल को संबोधित करते हुए कहता है कि हे क्रांति के दूत बादल ! तेरे आगमन पर ऊंचे-ऊंचे भवन आतंक-भवन में परिवर्तित हो जाते हैं अर्थात उनमें रहने वाले धनी लोग भय से कांपने लगते हैं | जल ( बाढ़ ) की विनाश लीला का प्रभाव हमेशा कीचड़ पर होता है | जब भयंकर बाढ़ आती है तो कीचड़ में उथल-पुथल मच जाती है लेकिन छोटे प्रसन्नचित्त कमल से उसी प्रकार से नीर छलकता रहता है अर्थात क्षुद्र कमल उस भयंकर बाढ़ से अप्रभावित होता है | ठीक इसी प्रकार से एक शिशु रोग-शोक की अवस्था में भी हंसता रहता है | कहने का भाव यह है कि छोटे लोग जीवन की आपदाओं से भयभीत नहीं होते | दूसरी तरफ क्रांति के आगमन पर धनी लोगों के कोष अवरुद्ध हो जाते हैं, उनका संतोष उनसे छिन जाता है और वे अपनी सुंदर पत्नियों के अंगों से लिपटे हुए भी इस प्रकार काँप रहे होते हैं मानो वे अपनी पत्नी की गोद में नहीं बल्कि आतंक की गोद में बैठे हों | वे बादलों की भीषण गर्जना से भयभीत होकर अपनी आंखें मीचे हुए हैं और मुंह छिपाए हुए हैं |अंत में कवि कहता है कि हे क्रांति के दूत बादल ! जीर्ण भुजाओं वाला और दुर्बल शरीर वाला कृषक अधीर होकर तुझे बुला रहा है | धनी शोषक वर्ग के द्वारा उसका सार तत्व चूस लिया गया है और मात्र हड्डियां ही उसके जीवन का आधार रह गई हैं | हे जीवन के सागर ! क्रांति दूत बादल तुम यथाशीघ्र आकर दलित, शोषित वर्ग के दुःखों का निवारण कर उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करो |
विषय – (1) बादलों को क्रांति के दूत के रूप में प्रस्तुत करके कवि ने दलितों, शोषितों, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति तथा शोषक वर्ग के प्रति आक्रोश प्रकट किया है |
(2) कवि क्रांति के द्वारा सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहता है |
(3) बार-बार, सुन-सुन, हिल-हिल, खिल-खिल में पुनरुक्ति अलंकार है |
(4) अनुप्रास, रूपक व मानवीकरण अलंकार है |
(5) संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की प्रधानता है |
(6) ओज गुण है |
बादल राग का प्रतिपाद्य /उद्देश्य
‘बादल राग’ छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की एक ओजपूर्ण कविता है | यद्यपि निराला छायावादी कवि हुए हैं तथा तथापि उनकी इस कविता में प्रगतिवादी विचारधारा के दर्शन होते हैं | इस कविता में निराला ने बादल को क्रांति के दूत के रूप में प्रस्तुत किया है और बादलों को संबोधित करते हुए एक ऐसी क्रांति का आह्वान किया है जो वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन ला दे | निराला जी बादलों के माध्यम से एक ऐसी क्रांति लाना चाहते हैं जो दलित, शोषित, पीड़ित वर्ग के उत्थान का मार्ग-प्रशस्त करे तथा शोषक वर्ग को मिट्टी में मिला दे | कवि कहता है कि जब इस प्रकार की क्रांति होती है तो शोषक वर्ग भयभीत होकर अपना हृदय थाम लेता है |
“बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र हुंकार |”
निराला जी ने ऐसी क्रांति की कल्पना प्रस्तुत की है जिससे बड़े-बड़े उन्नत वीर मिट्टी में मिल जाते हैं और छोटे पीड़ित लोगों का उद्धार होता है |
अश्विनी बात से शापित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत-हत अचल शरीर,
गगन स्पर्शी स्पर्धा धीर |”
कवि के अनुसार क्रांति के दूत बादलों को देखकर समाज का शोषक वर्ग भयभीत हो जाता है किंतु शोषित वर्ग उसे आशा भरी दृष्टि से देखता है |
” घन, भेरी-गर्जन से सजग, सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नव जीवन की, ऊंचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !”
निर्धन किसान का मार्मिक शब्द-चित्र प्रस्तुत करके इस कविता में शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई है |
“चूस लिया है उसका सार,
हाड़मात्र ही है आधार
ऐ जीवन के पारावार !”
इस प्रकार प्रस्तुत कविता का मुख्य उद्देश्य समाज में व्याप्त विषमता को खत्म करना है | इस विषमता को दूर करने का एकमात्र उपाय क्रांति है | यहाँ क्रांति से अभिप्राय समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना है | एक ऐसी व्यवस्था करना है जिसमें शोषक वर्ग पूरी तरह से मिट्टी में मिल जाए तथा शोषित वर्ग का उद्धार हो | मजदूर और किसान को उसके परिश्रम का पूरा फल मिले | इस कविता के माध्यम से निराला उस मार्क्सवादी दर्शन का समर्थन करते हैं जो दलितों, शोषितों, पीड़ितों, मजदूरों व किसानों का हिमायती है |
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