गीतिकाव्य : अर्थ, परिभाषा, प्रवृत्तियाँ /विशेषताएँ व स्वरूप ( Gitikavya : Arth, Paribhasha, Visheshtayen V Swaroop )

सामान्य शब्दों में गीतिकाव्य का अर्थ ( Geetikavya Ka Arth ) है – ‘गाया जा सकने वाला काव्य‘ परंतु प्रत्येक गाए जाने वाले काव्य को गीतिकाव्य नहीं कहा जा सकता | जिस गीत में तीव्र भावानुभूति, संगीतात्मकता, वैयक्तिकता आदि गुण होते हैं, उसे गीतिकाव्य कहते हैं | मानव सभ्यता में गीत की प्राचीन परंपरा है | गीत अथवा संगीत का मानव जीवन में विशेष महत्व है | एक नादान शिशु भी संगीत की स्वर लहरी से प्रभावित होकर रोना भूल जाता है | प्रारंभ में गीत के अर्थ की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था | जो कुछ भी लय के साथ गाया जाता था, उसे गीत मान लिया जाता था | इस आधार पर एक निरर्थक लयबद्ध रचना भी गीत मानी जाती थी | एक निरर्थक लयबद्ध रचना को गीत मानना उचित है या अनुचित यह एक विवादित विषय है परंतु इतना निश्चित है कि गीतों का उद्भव मानव की स्वाभाविक रागप्रियता के कारण हुआ |

गीतिकाव्य का उद्भव एवं विकास

यद्यपि कुछ विद्वानों ने गीतिकाव्य को पाश्चात्य साहित्य की देन माना है लेकिन यह उचित प्रतीत नहीं होता | हमारे यहां लोकगीतों की परंपरा अनादि काल से चली आ रही है | अनेक विद्वान इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि यह लोकगीत ही हमारे गीतों के जनक हैं | भारतीय मिथक शास्त्र में भगवान शंकर को ‘नाद ब्रह्म’ कहा गया है | अनेक विद्वान सामवेद को संगीत का स्रोत मानते हैं | आरंभ में दो प्रकार के गीत बताए गए थे – वैदिक और लौकिक | पुन: लौकिक गीत के भी दो प्रकार बताए गए हैं – मार्ग गीत और देशी गीत | मार्ग गीतों में शास्त्रीय परंपरा का निर्वाह होता है परंतु संसार के विभिन्न देशों के लोग अपनी शैली और रूचि के अनुसार जो गीत गाते हैं उसे देशी गीत कहते हैं | यही देशी गीत साहित्यिक आवरण धारण करने के बाद गीतिकाव्य या प्रगीत काव्य कहे जा सकते हैं | भारतीय काव्यशास्त्र में प्राचीन काल से ‘गीत’ शब्द का प्रयोग होता चला आ रहा है | सिद्धों के ‘चर्यापद‘ इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं |

गीतिकाव्य का अर्थ एवं स्वरूप

गीतिकाव्य को प्रगीत भी कहा जाता है | यह एक सर्वाधिक नवीन एवं सशक्त विधा है | भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में ‘गीत’ शब्द का प्राचीनतम प्रयोग मिलता है |

आचार्य हेमचंद्र ने इस संबंध में लिखा है – “गीतं शब्दित गानयो: |”

अमर सिंह अपनी रचना ‘अमरकोश’ में लिखते हैं – “गीतं गान मीमे समे |”

इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आरंभ में ‘गीत‘ शब्द का उल्लेख तो मिलता है लेकिन ‘गीतिकाव्य‘ शब्द का उल्लेख नहीं मिलता | ‘गीतिकाव्य‘ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लोचन प्रसाद पांडेय ने अपनी पुस्तक ‘कविता कुसुम माला’ की भूमिका में किया | उन्होंने गीतिकाव्य को एक स्वतंत्र काव्य-विधा स्वीकार किया | उन्होंने काव्य के तीन भेद माने हैं – गीतिकाव्य, श्रव्यकाव्य तथा दृश्यकाव्य | इन्होने गीतिकाव्य का विकास लोक गीतों से मानते हुए गीतिकाव्य का बीज बौद्ध धर्म के चर्यागीतों में ढूंढने का प्रयास किया है |

कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो गीतिकाव्य को पश्चिम के दिन मानते हैं | पाश्चात्य काव्यशास्त्र में गीतिकाव्य के लिए ‘लिरिक’ शब्द का प्रयोग हुआ है | ‘लिरिक’ ‘लायर’ नामक वाद्य यंत्र की सहायता से गाया जाता है | उसी ‘लिरिक’ का हिंदी रूपांतरण ही ‘गीति’ माना जाता है लेकिन अन्य विद्वान इससे सहमत नहीं है | कुछ विद्वान ऋग्वेद में गीत की झलक ढूंढने का प्रयास करते हैं और तर्कों के माध्यम से ऋग्वेद को भारतीय गीतिकाव्य का जनक सत्यापित करते हैं लेकिन फिर भी अधिकांश विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि वेदों में मिलने वाला गीतिकाव्य उस गीतिकाव्य से सर्वथा भिन्न है जो आज हिंदी साहित्य में विकसित है |

गीतिकाव्य की परिभाषा

गीतिकाव्य के बारे में भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं | गीतिकाव्य के अर्थ तथा स्वरूप को जानने के लिए इन परिभाषाओं पर विचार करना नितांत समीचीन होगा |

(क ) पाश्चात्य विचारकों के गीती काव्य संबंधी मत

🔹 एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार – ” Lyrical poetry a general term for all poetry which is, or can be supposed to be, susceptible of being sung to the accompaniment of a musical instrument. “

🔹 हरबर्ट रीड के अनुसार – ” गीत का मूल अर्थ तो लुप्त हो गया है लेकिन उसका व्यावहारिक पक्ष प्रचार में आ गया है | अब गीत से उस रचना का बोध होता है जिसमें सूक्ष्म अनुभूतियां हों, जो एकांत आनंद से प्रबुद्ध होती हैं |”

🔹हीगेल के अनुसार – “गीतिकाव्य का एकमात्र उद्देश्य शुद्ध कलात्मक शैली में आंतरिक जीवन की विभिन्न अवस्थाओं, उसकी आशाओं, उसके आह्लाद की तरंगों और उसकी वेदना की चीत्कारों का उद्घाटन करना है |”

🔹प्रो गुमरे के अनुसार – ” गीति काव्य वह अंतर्वृत्ति निरूपिणी कविता है जो वैयक्तिक अनुभूतियों से पोषित होती है, जिसका संबंध घटनाओं से नहीं अपितु भावनाओं से होता है तथा जो किसी समाज की परिष्कृत अवस्था से निर्मित होती है |”

(ख ) भारतीय विचारकों के गीतिकाव्य संबंधी मत

🔹 महादेवी वर्मा के अनुसार – “सुख-दुख की भावावेगमयी अवस्था-विशेष का गिने-चुने शब्दों में स्वर-संधान से उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीति है |”

🔹 डॉ नगेंद्र के अनुसार – “गीतिकाव्य की आत्मा है – भाव, जो किसी प्रेरणा के भार से दबकर एक साथ गीत में फूट निकलता है |”

🔹 डॉक्टर गणपति चंद्रगुप्त के अनुसार – “गीतिकाव्य एक ऐसी लघु आकार एवं मुक्तक शैली में रचित रचना है जिसमें कवि निजी अनुभूतियों या किसी एक भाव-दशा का प्रकाशन गीत या लयपूर्ण कोमल पदावली में करता है |”

🔹 बाबू गुलाब राय के मतानुसार – “प्रगीत काव्य में कवि जो कुछ कहता है, अपने निजी दृष्टिकोण से कहता है | उसमें निजीपन के साथ रागात्मकता होती है | रागात्मकता में तीव्रता बनाए रखने के लिए उसका अपेक्षाकृत छोटा होना आवश्यक है | आकार की इस संक्षिप्तता के साथ भाव की एकता और अन्विति लगी रहती है |गीतिकाव्य में विविधता रहती है किंतु वह प्राय: एक ही केंद्रीय भाव की पुष्टि के लिए होती है |”

हिंदी में गीतिकाव्य की परंपरा

गीतिकाव्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन है | संस्कृत साहित्य में गीति काव्य प्रमुखता के साथ रचा गया | वेदों में गीतिकाव्य का रूप उपलब्ध होता है | सुप्रसिद्ध संस्कृत गीतिकाव्यकार जयदेव का ‘गीत गोविंद’ एक उल्लेखनीय रचना है | ‘गीत गोविंद’ से ही प्रभावित हिंदी कवि विद्यापति की ‘पदावली’ मानी जाती है | वस्तुतः विद्यापति ही हिंदी साहित्य के आदि गीतिकार माने जाते हैं |

भक्तिकाल में कबीर,मीरा, सूर आदि हिंदी कवियों ने सुंदर और मार्मिक गीतों की रचना की है | वैष्णवों के लीला के पद, विनय के पद तथा निर्गुणवादियों के शब्द विशिष्ट राग-रागनी में रचे गए थे |

आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावादी काव्य ने इस विधा को लालित्य, माधुर्य एवं कल्पना का पुट प्रदान किया | महादेवी वर्मा आधुनिक काल की सर्वश्रेष्ठ गीतिकार मानी जाती हैं |

संक्षेप में गीतिकाव्य की परिभाषा इस प्रकार से दी जा सकती है – “कवि के हृदय की मार्मिक अनुभूतियों का संगीतात्मक चित्रण ही गीति है |”

गीतिकाव्य की प्रवृत्तियां

गीतिकाव्य की विभिन्न परिभाषाओं पर विचार करने के पश्चात गीतिकाव्य की निम्नलिखित प्रवृतियां / विशेषताएं उभरकर सामने आती हैं : –

1. भावप्रवणता – गीत में हृदय की कोमल भावनाओं का स्फुरण होता है | अतः भावप्रवणता ही गीतिकाव्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता कही जा सकती है | हृदय की सुख-दु:खात्मक वृत्तियाँ ही गीतिकाव्य का आधार बनती हैं | कवि के अंतर की अनुभूति जब घनीभूत होकर अपनी तीव्रता की चरम सीमा पर पहुंच जाती है तभी गीतिकाव्य का जन्म होता है | करुणा के भाव को गीतिकाव्य का स्रोत माना जाता है |

इस विषय में प्रसिद्ध छायावादी कवि पंत लिखते हैं –

” वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान |

उमड़कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान ||”

गीत में वर्णित भाव जितना अधिक गहन एवं उदात्त होगा गीत उतना अधिक उत्कृष्ट कोटि का कहा जाएगा |

2. आत्माभिव्यक्ति – गीतिकाव्य की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता आत्म-अभिव्यक्ति है | गीत सृजन के मूल में चूंकि कवि की निजी सुख-दुखमयी अभिव्यक्ति रहती है, अतः इसका स्वरूप आत्माभिव्यक्तिपरक बन जाता है परंतु विशेषता यह है कि यह अभिव्यक्ति आत्मपूरक होते हुए भी सब की अनुभूति बन जाती है | गीत का आस्वादन करने वाला प्रत्येक पाठक और श्रोता कवि की अनुभूति से तादात्म्य स्थापित कर लेता है |

रस्किन बॉन्ड के शब्दों में – “गीतिकाव्य कवि की निजी भावनाओं का प्रकाश होता है | सहज शुद्ध भाव, स्वच्छंद कल्पना, तर्कवाद, न्यायमूलकता से युक्त विचार ; ये ही गीतिकाव्य की वास्तविक विशेषताएं हैं |”

ब्रनेतियर ने भी कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं – ” गीतिकाव्य में कवि भावानुकूल लयों में अपनी आत्मनिष्ठ वैयक्तिक अनुभूतियां व्यक्त करता है |”

3. कल्पनाशीलता – गीतिकाव्य में कवि अपनी अनुभूतियों को सौंदर्यमयी कल्पना के द्वारा अभिव्यक्ति प्रदान करता है | इसके लिए वह रूप-विधान, बिंब विधान, प्रतीक, अलंकार आदि का आश्रय लेता है | ऐसा करने से उसकी रचना में अपूर्व सौंदर्य का सृजन हो जाता है | अतः गीतिकाव्य की सृष्टि के लिए सौंदर्यमयी कल्पना का प्रयोग नितांत आवश्यक है |

4. संक्षिप्तता – गीतिकाव्य का एक अन्य प्रमुख तत्व संक्षिप्तता है | गीति में प्रबंधात्मक विस्तार नहीं होता, वह तो सदैव आकार में छोटा होता है | हिंदी में रासो ग्रंथ तथा ‘रामचरितमानस’, ‘पद्मावत’ आदि प्रबंधात्मक होकर भी गेय हैं | लेकिन यह ग्रंथ विस्तार के कारण गीत नहीं कहे जा सकते | गीति में कवि अपनी खंड अनुभूति को व्यक्त करता है | यह अनुभूति सघन होने के साथ-साथ मार्मिक होती है | यह सघनता और मार्मिकता ही कवि की रचना को गीतिकाव्य का रूप प्रदान करती है | यदि कवि गीतिकाव्य में भावना को विस्तार देगा या कल्पना के कृत्रिम प्रयोग से अनुभूति वर्णन का विस्तार करेगा तो उसके गीतिकाव्य का प्रभाव सघनता व मार्मिकता के कम हो जाने के कारण नष्ट हो जाएगा |

5. संगीतात्मकता – संगीतात्मकता अथवा गेयता गीतिकाव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है | यदि कोई काव्य रचना संगीत के स्वरों में या लय में गायी नहीं जा सकती, उसे हम गीत नहीं कह सकते | इसके लिए कवि प्रायः कोमलकांत पदावली का प्रयोग करता है | संसार की सभी भाषाओं के श्रेष्ठ गीत गेय हैं |

6. प्रभावान्विति – गीतिकाव्य में कवि किसी एक मार्मिक अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करता है | फलत: उसमें एकसूत्रता उत्पन्न हो जाती है | ऐसा गीत समन्वित भाव उत्पन्न करता है | जिस गीत में जितनी प्रभावान्विति होगी, वह उतना ही सुंदर होगा | यह प्रभावान्विति ही गीतिकाव्य को एक स्वतंत्र और पूर्ण रचना बनाती है | गीति में प्रभावान्विति तभी आएगी जब उसमें संतुलित भाव होंगे अथवा उसमें एक ही विचार, भाव या परिस्थिति का चित्रण होगा | इसी भावमूलक एकता के कारण गीतिकाव्य का आकार संक्षिप्त भी होता है और यही प्रभावान्विति गीति में सघनता व मार्मिकता को बनाय रखने में सहायक होती है |

7. कोमलकांत पदावली का प्रयोग – गीतिकाव्य के लिए कमलकांत पदावली का होना आवश्यक है | गीतिकाव्य में कोमल भावनाएं होती हैं | अतः कवि को उन भावनाओं के अनुसार कोमल और सुंदर कलात्मक भाषा का प्रयोग करना होता है | कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई, विद्यापति आदि कवियों के गीतों में कोमलकांत शब्दावली का स्वाभाविक व प्रभावशाली प्रयोग मिलता है | आधुनिक हिंदी कविता में महादेवी वर्मा के गीतों में भी यही विशेषता देखी जा सकती है | आदिकालीन कवि विद्यापति और आधुनिक कवयित्री महादेवी वर्मा को संयुक्त रूप से हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ गीतिकार कहा जा सकता है |

◼️ संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रगीत या गीतिकाव्य कवि के हृदय की मार्मिक अनुभूतियों का संगीतात्मक चित्रण है | वैयक्तिकता व संगीतात्मकता के अतिरिक्त मार्मिकता, भाव-प्रवणता, संक्षिप्तता, सौंदर्यमयी कल्पनाशीलता, कोमलकांत पदावली का प्रयोग आदि गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषताएं कही जा सकती हैं |

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