इन्हीं तृण-फूस छप्पर से
ढँके ढुलमुल गँवारू
झोपड़ों में ही हमारा देश बसता है |
इन्हीं के ढोल-मादल बांसुरी के
उमगते स्वर में
हमारी साधना का रस बरसता है |
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का सांप डँसता है |
इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृती की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हंसता है |
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित व अज्ञेय द्वारा रचित ‘हमारा देश’ कविता से अवतरित है |
इन पंक्तियों में कविवर अज्ञेय ने ग्रामीण भारत को वास्तविक भारत बताते हुए उस पर पड़ रहे पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभावों को अंकित किया है |
व्याख्या — कवि कहता है कि गांव में बनी घास-फूस के छप्पर से युक्त झोपड़ियों में ढीले-ढाले और सीधे-साधे ग्रामीण लोग रहते हैं | इन्हीं झोपड़ियों में वास्तविक देश बसता है | यही हमारे देश की सभ्यता व संस्कृति के प्रतीक हैं | इन आदिवासियों तथा अन्य कबीलों के लोगों द्वारा बजाए जाने वाले ढोल, मादल और बांसुरी जैसे वाद्य-यंत्रों से संगीत का जो स्वर उत्पन्न होता है उससे ही भारतवासियों की साधना का वास्तविक रस टपकता है |
कवि के अनुसार आज इन भोले-भाले ग्रामीणों लोगों के हृदय को धीरे-धीरे शहरी सभ्यता के रंगों में रंगी हुई विषैली वासना का सांप डंस रहा है | गांव की भोली-भाली संस्कृति धीरे-धीरे सिमट रही है और उसकी दुर्दशा पर नगरीय सभ्यता का भूत हँसता है अर्थात अपनी विजय पर ठहाके लगाता है |
विशेष — (1) ग्रामीण सभ्यता को वास्तविक देश बताते हुए उस पर पड़ रहे नगरीय सभ्यता के प्रभाव को स्पष्ट किया गया है |
(2) प्रतीकात्मक का प्रयोग है |
(3) मुक्त छंद है |
(4) शब्द योजना सरल, सहज एवं भावनुकूल है |
‘हमारा देश’ कविता का प्रतिपाद्य ( ‘Hamara Desh’ Kavita Ka Pratipadya )
‘हमारा देश’ कविता अज्ञेय जी की एक महत्वपूर्ण कविता है | इस कविता के माध्यम से उन्होंने भारतीय ग्रामीण लोक-जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डाला है | कवि ने स्पष्ट किया है कि साधारण ग्रामीण क्षेत्र में लोग घास-फूस के छपरों वाली झोपड़ियों में निवास करते हैं | इन्हीं झोपड़ियों में हमारा देश बसा हुआ है | यहां के लोग जो ढोल, मादल, बांसुरी जैसे वाद्य-यंत्र बजाते हैं उन्हीं वाद्य-यंत्रों में हमारी साधना का रस-बरसा करता है | अर्थात यह वाद्य यंत्र ही हमारी सभ्यता के विकास की निशानी हैं |
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढँके ढुलमुल गँवारू
झोपड़ों में हमारा देश बसता है |
परंतु दुर्भाग्यवश आज हमारे ग्रामीण जीवन पर शहरी सभ्यता का प्रभाव बढ़ता जा रहा है | गांव की भोली-भाली संस्कृति को धीरे-धीरे नगरीय सभ्यता का सांप डसने लगा है | आज नगरों में होने वाले दुष्कर्म व पाप ग्रामीण संस्कृति को नष्ट करने में लगे हुए हैं |
अत: ग्रामीण संस्कृति पर शहरी संस्कृति के बुरे प्रभावों का उल्लेख करना ही प्रस्तुत कविता का मुख्य भाव है | एक तरफ जहाँ कवि यह स्वीकार करता है कि ग्रामीण क्षेत्र में बसा हुआ भारत ही वास्तविक भारत है वहीं दूसरी ओर वह ग्रामीण संस्कृति पर पड़ रहे नगरीय संस्कृति के कुप्रभावों से चिंतित भी है |
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