घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !
मुझे पुकारे !
ताना मारे,
भर आयें आँखड़ियाँ !
उन्मन, ये फागुन की शाम है ! (1)
घाट की सीढ़ी तोड़-फोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
तोतापंखी किरनों में हिलती बांसों की टहनी
यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी
आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी !
अच्छा अब जाने दो मुझ को घर में कितना काम है ! (2)
इस सीढ़ी पर, जहाँ पर लगी हुई है काई
फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाहों में कितना शरमायी !
यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !
यहां न आऊंगी अब, जाने क्या करने लगता मन !
लेकिन तब तो कभी ना हम में तुम में पल-भर बनती !
तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है ! (3)
अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों में भटकी डोले
कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे संग-संग अक्सर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा
पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है !
ये फागुन की शाम है ! (4)
‘फागुन की शाम’ कविता का प्रतिपाद्य / संदेश / मूल भाव
‘फागुन की शाम’ ( Fagun Ki Sham ) डॉ धर्मवीर भारती की एक महत्वपूर्ण कविता है | इस कविता में कवि ने फागुन मास की एक शाम के सौंदर्य का वर्णन किया है | यही नहीं कवि ने अपने जीवन की खट्टी-मीठी अनुभूतियों पर भी प्रकाश डाला है | कवि इस कविता में फागुन के मास में अपनी प्रेयसी के साथ बिताए गए पलों को याद करना है |
कवि कहता है कि घाट के रास्ते पर वट वृक्ष पर बैठी हुई एक पीले रंग की चिड़िया उसे पुकारती है, ताना मारती है जिससे कवि संवेदनशील हो उठता है | सचमुच फागुन की शाम बड़ी उन्मन होती है |
“घाट के रास्ते
उस बंसवट से
इक पीली-सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा सा नाम है !
मुझे पुकारे !
ताना मारे,
भर आयें आँखड़ियाँ
उन्मन, ये फागुन की शाम है |”
कवि फागुन की शाम के सौंदर्य से अभिभूत होकर मीठी यादों में खो जाता है | उसे अपनी प्रेयसी के साथ बिताए गए पल याद आने लगते हैं | उसे घाट की सीढ़ियों पर उगी वन-तुलसा तथा काई को देखकर अपनी प्रेयसी की याद आने लगती है | उसकी प्रेयसी यहीं बैठ कर उससे सभी कही-अनकही बातें कहा करती थी | यहीं पर एक दिन उसकी प्रेयसी फिसल कर उसकी बाहों में आ गिरी थी | यहीं पर कवि ने अपनी प्रेयसी का कंगन तोड़ दिया था | उसे याद आता है कि उनमें बात-बात पर झगड़ा हो जाता था | उसकी प्रेयसी उससे कहा करती थी कि वह विरह-वेदना में जलती रहती है | उसे रात-रात भर नींद नहीं आती | कोयल के बोलने पर उसे ऐसा लगता है जैसे किसी नागिन ने उसे काट लिया हो | फिर भी वह अपने प्रेम-संबंधों के विषय में कुछ भी किसी को कहने से डरती थी क्योंकि उसे पता था कि फागुन मास की ऋतु बहुत बदनाम होती है |
“अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले |”
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“ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे संग-संग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा |”
इस प्रकार इस कविता का मूल भाव एक फागुन की शाम के सौंदर्य का वर्णन करना तथा अपने अंतरंग पलों की अभिव्यक्ति है |