फागुन की शाम ( Fagun Ki Sham ) : डॉ धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते

उस बँसवट से

इक पीली सी चिड़िया

उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !

मुझे पुकारे !

ताना मारे,

भर आयें आँखड़ियाँ !

उन्मन, ये फागुन की शाम है ! (1)

घाट की सीढ़ी तोड़-फोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं

झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं

तोतापंखी किरनों में हिलती बांसों की टहनी

यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी

आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी !

अच्छा अब जाने दो मुझ को घर में कितना काम है ! (2)

इस सीढ़ी पर, जहाँ पर लगी हुई है काई

फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाहों में कितना शरमायी !

यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !

यहां न आऊंगी अब, जाने क्या करने लगता मन !

लेकिन तब तो कभी ना हम में तुम में पल-भर बनती !

तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है ! (3)

अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों में भटकी डोले

कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले

ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा

मेरे संग-संग अक्सर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा

पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से

कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है !

ये फागुन की शाम है ! (4)

‘फागुन की शाम’ कविता का प्रतिपाद्य / संदेश / मूल भाव

‘फागुन की शाम’ ( Fagun Ki Sham ) डॉ धर्मवीर भारती की एक महत्वपूर्ण कविता है | इस कविता में कवि ने फागुन मास की एक शाम के सौंदर्य का वर्णन किया है | यही नहीं कवि ने अपने जीवन की खट्टी-मीठी अनुभूतियों पर भी प्रकाश डाला है | कवि इस कविता में फागुन के मास में अपनी प्रेयसी के साथ बिताए गए पलों को याद करना है |

कवि कहता है कि घाट के रास्ते पर वट वृक्ष पर बैठी हुई एक पीले रंग की चिड़िया उसे पुकारती है, ताना मारती है जिससे कवि संवेदनशील हो उठता है | सचमुच फागुन की शाम बड़ी उन्मन होती है |

“घाट के रास्ते

उस बंसवट से

इक पीली-सी चिड़िया

उसका कुछ अच्छा सा नाम है !

मुझे पुकारे !

ताना मारे,

भर आयें आँखड़ियाँ

उन्मन, ये फागुन की शाम है |”

कवि फागुन की शाम के सौंदर्य से अभिभूत होकर मीठी यादों में खो जाता है | उसे अपनी प्रेयसी के साथ बिताए गए पल याद आने लगते हैं | उसे घाट की सीढ़ियों पर उगी वन-तुलसा तथा काई को देखकर अपनी प्रेयसी की याद आने लगती है | उसकी प्रेयसी यहीं बैठ कर उससे सभी कही-अनकही बातें कहा करती थी | यहीं पर एक दिन उसकी प्रेयसी फिसल कर उसकी बाहों में आ गिरी थी | यहीं पर कवि ने अपनी प्रेयसी का कंगन तोड़ दिया था | उसे याद आता है कि उनमें बात-बात पर झगड़ा हो जाता था | उसकी प्रेयसी उससे कहा करती थी कि वह विरह-वेदना में जलती रहती है | उसे रात-रात भर नींद नहीं आती | कोयल के बोलने पर उसे ऐसा लगता है जैसे किसी नागिन ने उसे काट लिया हो | फिर भी वह अपने प्रेम-संबंधों के विषय में कुछ भी किसी को कहने से डरती थी क्योंकि उसे पता था कि फागुन मास की ऋतु बहुत बदनाम होती है |

“अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले |”

◾️◾️◾️

“ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा

मेरे संग-संग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा |”

इस प्रकार इस कविता का मूल भाव एक फागुन की शाम के सौंदर्य का वर्णन करना तथा अपने अंतरंग पलों की अभिव्यक्ति है |

Leave a Comment

error: Content is proteced protected !!