यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो |
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा?
पनडुब्बा : यह मोती सच्चे फिर कौन कृती लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीली बिरला सुलगायेगा |
यह अद्वितीय : यह मेरा, यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो | (1)
प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित व अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं |
प्रस्तुत पंक्तियों में सन्देश दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा का प्रयोग समाज हित में करना चाहिए |
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत :
इस को शक्ति को दे दो |
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा,
है गर्व-भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति को दे दो | ( 2)
प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित व अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं |
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी कांपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा ;
कुत्सा,अपमान, अवज्ञा के धुंधआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा|
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो :
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो | (3)
प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित व अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से अवतरित हैं |
‘यह दीप अकेला’ कविता का प्रतिपाद्य/ कथ्य ( ‘yah Deep Akela’ Kavita Ka Pratipadya/Kathya )
‘यह दीप अकेला’ अज्ञेय जी की एक प्रसिद्ध कविता है | इस कविता में उन्होंने दीपक को व्यष्टि का प्रतीक मानते हुए समष्टि हेतु समर्पित करने की बात कही है | अज्ञेय हमेशा व्यक्तिवाद के समर्थक रहे हैं लेकिन उनका मानना था कि मानव समाज में रहते हुए भी अपना अस्तित्व बनाए रखे | ‘नदी के द्वीप’ कविता में भी कुछ इसी प्रकार के भाव की अभिव्यक्ति हुई है | परंतु ‘यह दीप अकेला’ कविता सामाजिकता पर अधिक बल देती है | इस कविता में कवि ने व्यक्तिगत-शक्ति को समष्टि को समर्पित करने की बात कही है |
इस कविता में दीपक व्यक्ति का प्रतीक है और पंक्ति समाज का | कवि चाहता है कि व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत शक्ति से समाज की शक्ति में योग दे | प्रेम रूपी तेल से भरा हुआ दीपक गर्व से भरपूर अपनी मस्ती में चूर है परंतु इसको भी पंक्ति के अन्य दीपकों के साथ रख देना चाहिए | यह दीपक सच्चा जन, कुशल गोताखोर, हवन की पवित्र लकड़ी तथा त्याग में अद्वितीय है | यह दीपक पवित्र गोरस, शक्तिशाली कोंपल है जो प्राकृतिक, स्वयंभू तथा अपने में अनूठा हैं | यह दीपक विश्वास तथा दृढ़ निश्चय से युक्त है | यह दीपक अपनी पीड़ा की गहराई को स्वयं नापने वाला है | यह बुराई, अपमान और अवज्ञा के कड़े अंधकार में स्वयं को चिर जागृत बनाए रखने वाला है | यह प्रेम भरी आंखों तथा लंबी भुजाओं वाला है | परंतु कवि चाहता है कि इस अकेले दीपक को दीपों की पंक्ति में रख देना चाहिए |
“यह दीप अकेला, स्नेह-भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो |”
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कविवर अज्ञेय व्यष्टि तथा समष्टि के समन्वय में ही व्यक्ति और समाज दोनों का हित मानते हैं |