आँसू ( Aansu ) : जयशंकर प्रसाद

इस करुणा कलित हृदय में

अब विकल रागिनी बजती

क्यों हाहाकार स्वरों में

वेदना असीम गरजती?

शीतल ज्वाला जलती है

ईंधन होता दृग जल का

यह व्यर्थ सांस चल-चलकर

करती है काम अनिल का | (1)

जो घनीभूत पीड़ा थी

मस्तक में स्मृति-सी छायी

दुर्दिन में आँसू बनकर

वह आज बरसने आयी

शशि मुख पर घूंघट डाले

अंचल में दीप छिपाये

जीवन की गोधूलि में

कौतूहल से तुम आए | (2)

बाँधा था विधु को किसने

इन काली जंजीरों से

मणि वाले फणियों का मुख

क्यों भरा हुआ हीरों से?

अपने आँसू की अंजलि

आँखों में भर क्यों पीता

नक्षत्र पतन के क्षण में

उज्जवल होकर है जीता | (3)

चुन-चुन ले कन-कन से

जगती की सजग व्यथाएँ

रह जायेंगी कहने को

जन-रंजन-करी कथाएँ |

इस व्यथित विश्व पतझड़ की

तुम जलती हो मृदु होली

हे अरुणे ! सदा सुहागिनी

मानवता सिर की होली | (4)

आँसू वर्षा से सिंचकर

दोनों ही कूल हरा हो

उस शरद प्रसन्न नदी में

जीवन द्रव अमल भरा हो | (5)

7 thoughts on “आँसू ( Aansu ) : जयशंकर प्रसाद”

Leave a Comment

error: Content is proteced protected !!