उनको प्रणाम ( Unko Pranam ) :नागार्जुन

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम

मैं उनको करता हूँ प्रणाम !

कुछ कुंठित औ’ कुछ लक्ष्य भ्रष्ट

जिनके अभिमंत्रित तीर हुए ;

रण की समाप्ति के पहले ही

जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! (1)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित नागार्जुन द्वारा रचित ‘उनको प्रणाम’ कविता से अवतरित है | इन पंक्तियों में कवि ने उन अज्ञात वीरों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है जिन्होंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए अथक प्रयास किए परंतु किसी कारणवश सफल न हो सके |

व्याख्या — इन पंक्तियों में कवि नागार्जुन जी कहते हैं कि जो लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी सफल नहीं हो पाए उनको मैं प्रणाम करता हूँ | वे कहते हैं कि जो लोग अपने कार्य को पूरा नहीं कर पाए और लक्ष्य से भटक जाने के कारण कुंठित हो गए उन वीरों को भी हमें प्रणाम करना चाहिए | जिन वीरों के अभिमंत्रित तीर लक्ष्य का भेदन नहीं कर पाए और जिनके तरकश युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही तीरों से खाली हो गए, वह भी सम्मान के अधिकारी हैं | मैं उनको भी प्रणाम करता हूँ |

विशेष — (1) कवि ने उन लोगों की प्रशंसा की है और उनके प्रति आदर प्रकट किया है जो निरंतर अथक प्रयास करने पर भी किसी कारण वर्ष सफल नहीं हो पाए |

(2) प्रथम प्रधान शब्दावली है |

(3) भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं भावानुकूल है |

(4) उद्बोधनात्मक शैली है |

– उनको प्रणाम !

जो छोटी-सी नैया लेकर

उतरे करने को उदधि पार ;

मन की मन में ही रही, स्वयं

हो गए उसी में निराकार !

– उनको प्रणाम !

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े

रह-रह नव-नव उत्साह भरे ;

पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि

कुछ असफल ही नीचे उतरे !

– उनको प्रणाम ! (2)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — इन पंक्तियों में कवि नागार्जुन जी ने उन साहसी नाविकों को आदरपूर्वक प्रणाम किया है जो विशाल सागर को अपनी छोटी नाव लेकर पार करने के उद्देश्य से निकल पड़े और विफल होकर स्वयं सागर में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हो गए |

इसी प्रकार कवि उन पर्वतारोहियों के प्रति भी श्रद्धा व्यक्त करता है जो उत्साहपूर्वक पर्वतारोहण का प्रयास करते हुए हिम-समाधि ले गए या असफल होकर आधे रास्ते से ही वापस आ गए | कवि उन लोगों को प्रणाम करता है क्योंकि उन लोगों ने अपनी जान की चिंता न करते हुए अदम्य साहस का परिचय दिया |

विशेष — पूर्ववत |

एकाकी और अकिंचन हो

जो भू-परिक्रमा को निकले ;

हो गए पंगु, प्रति-पद हतने

अदृष्ट के दाव चले !

– उनको प्रणाम |

कृत-कृत नहीं जो हो पाये ;

प्रत्युत्तर फांसी पर गये झूल

कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी

यह दुनिया जिनको गई भूल !

– उनको प्रणाम! (3)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — इन पंक्तियों में कवि उन एकाकी और साधनहीन लोगों के प्रति श्रद्धा सुमन व्यक्त करता है जो अपने साहस के बल पर भूमि की परिक्रमा करने को निकले थे लेकिन रास्ते की असहनीय कठिनाइयों के कारण चलते-चलते अपंग हो गए ; उन्हें रास्ते में नियति की चालों का सामना करना पड़ा और परिणामस्वरूप वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके | कवि उनको भी प्रणाम करता है |

कवि उन वीरों को भी प्रणाम करता है जो शोषण, परतंत्रता या किसी धार्मिक-सामाजिक रूढ़ि को तोड़ने के लिए प्रयास करते रहे परंतु अपने प्रयास में सफल न हो पाए और फांसी पर झूल गए | कवि के अनुसार यद्यपि इस घटना को कुछ ही दिन हुए हैं परंतु लोग उन वीरों के बलिदान को भूल गए हैं | इसलिए कवि उनको आदरपूर्वक प्रणाम करता है |

विशेष — पूर्ववत |

थी ! उग्र साधना कर जिनका

जीवन नाटक दुखांत हुआ ;

था जन्म-काल में सिंह लग्न

पर कुसमय ही देहांत हुआ !

– उनको प्रणाम !

दृढ व्रत औ’ दुर्दम साहस के

जो उदाहरण थे मूर्ति-मन्त ;

पर निरवधि बंदी जीवन ने

जिन की धुन का कर दिया अंत !

– उनको प्रणाम ! (4)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — कवि कहता है कि जिन्होंने घोर साधना की लेकिन उनके जीवन रूपी नाटक का अंत अत्यंत दुखदायी रहा और जिनका जन्म सिंह लग्न में हुआ परंतु फिर भी जो दीर्घजीवी न हो पाए और उनकी मृत्यु असमय ही हो गई, उनकी कठोर उनको भी प्रणाम है | कवि कहता है कि जो व्यक्ति दृढ़ प्रतिज्ञ और अदम्य साहस के साक्षात प्रत्यक्ष उदाहरण थे और जिन्हें अपना जीवन असीम अवधि तक बंदीगृह में व्यतीत करना पड़ा जिसने उनकी सभी धुनों का अंत कर दिया | कवि संघर्षमय जीवन के लिए उनको भी आदरपूर्वक प्रणाम करता है |

विशेष — पूर्ववत |

जिनकी सेवाएं अतुलनीय

पर विज्ञापन से रहे दूर ;

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके

कर दिये मनोरथ चूर-चूर !

– उनको प्रणाम ! (5)

प्रसंग — पूर्ववत |

व्याख्या — इन पंक्तियों में कवि ने उन व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित किए हैं जो विज्ञापन से दूर रहते हुए अतुलनीय समाज सेवा करते रहे | समाज में ऐसे अनेक लोग होते हैं जो बिना दिखावा किए चुपचाप लोगों की सेवा में लगे रहते हैं और विपरीत परिस्थितियों के कारण समाज-सेवा का उनका मनोरथ चूर-चूर हो जाता है | कवि ऐसे लोगों को उनकी नि:स्वार्थ सेवा-भावना के लिए आदरपूर्वक प्रणाम करता है |

विशेष — पूर्ववत |

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