कह दे माँ क्या अब देखूँ ! ( Kah De Maan Kya Ab Dekhun ) : महादेवी वर्मा

देखूँ खिलती कलियाँ

या प्यासे सूखे अधरों को,

तेरी चिर यौवन-सुषमा

या जर्जर जीवन देखूँ !

देखूँ हिम-हीरक हँसते

हिलते नीले कमलों पर,

या मुरझाई पलकों से

झरते आँसू-कण देखूँ ! (1)

प्रसंग — प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता ‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ से अवतरित है जिसमें कवयित्री ने प्रकृति के सौन्दर्य की प्रशंसा की है और उसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा साथ ही देशवासियों की निर्धनता और पीड़ा से व्यथित हो कर पूछा है कि वह किस के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त करें — प्राकृतिक सुंदरता के प्रति या देशवासियों की पीड़ा के प्रति ।

व्याख्या — प्रकृति को माता के रूप में संबोधित करते हुए कवयित्री कहती है कि हे माँ तुम ही बताओ कि मैं किस ओर अपनी दृष्टि केन्द्रित करूँ। एक ओर तो प्राकृतिक सुषमावाली कलियाँ हैं, जो अपने यौवनागमन पर पूर्ण विकास को प्राप्त करके खिल रही हैं। दूसरी ओर भूख-प्यास और विपत्ति के कारण मुरझाए हुए होठों वाले प्राणी दिखाई देते हैं।

मैं प्रकृति के वातावरण को देखूँ, जो सदैव अपनी शोभ का प्रसार करता है अथवा दुःख-क्लेश और आपत्तियों के कारण जर्जर हुए मानव को। मैं इस बात का निर्णय करने में असमर्थ हूँ |

एक तरफ नीले रंग के कमल पुष्प हैं। उन पर पड़ी हुई ओस की बूंदें हँसती हुई-सी प्रतीत होती हैं। वे हीरे के समान स्वच्छ हैं। कवयित्री कहती हैं कि मैं प्रकृति की इस हिमबिन्दु युक्त पुष्पित कमलों की सुषमा को देखूँ अथवा मुरझाई हुई आँखों से बहती आँसू की बूंदों को देखूं ? भाव यह है कि एक ओर तो प्रकृति की सुषमा है और दूसरी ओर दुःखी मनुष्यों के आँसू हैं, मैं किस ओर ओर अपनी दृष्टि डालूँ ?

सौरभ पी-पीकर बहता

देखूँ यह मंद समीरण,

दुःख की घूँटें पीती या

या ठंडी साँसों को देखूँ !

खेलूँ परागमय मधुमय

तेरी वसंत-छाया में,

या झुलसे संतापों से

प्राणों का पतझर देखूँ ! (2)

प्रसंग — प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता ‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ से अवतरित है जिसमें कवयित्री ने प्रकृति के सौन्दर्य की प्रशंसा की है और उसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा साथ ही देशवासियों की निर्धनता और पीड़ा से व्यथित हो कर पूछा है कि वह किस के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त करें — प्राकृतिक सुंदरता के प्रति या देशवासियों की पीड़ा के प्रति ।

व्याख्या — कवयित्री प्रकृति को संबोधित करते हुए कहती है कि हे माँ — एक ओर सुगन्धि को पी-पी कर शीतल मन्द-मन्द वायु चल रही है। दूसरी ओर दुःख के घूंट पीकर ठंडी सांस भरने वाले मनुष्य हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि प्रकृति की सुगन्धित वायु को देखना ठीक है अथवा दुःख से पीड़ित व्यक्तियों के दुःख-दर्द को देखना व उनके प्रति सहानुभूति दिखलाना ठीक है।

हे माँ एक ओर वसन्त की प्राकृतिक शोभा है। वसन्तागमन पर वातावरण पराग से युक्त होने के कारण बड़ा मधुर हो रहा है। दूसरी ओर सन्ताप रूपी अग्नि द्वारा जलाया हुआ प्राणों का बाग है जो पतझर के समान यौवन, सुषमा और जीवनोत्साह से शून्य है।

मकरंद-पगी केसर पर

जीती मधु-परियाँ ढूँढूँ,

या उर-पंजर में कण को

तरसे जीवन-शुक देखूँ !

कलियों की घन-जाली में

छिपती देखूँ लतिकाएँ

या दुर्दिन के हाथों में

लज्जा की करुणा देखूँ ! (3)

प्रसंग — प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता ‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ से अवतरित है जिसमें कवयित्री ने प्रकृति के सौन्दर्य की प्रशंसा की है और उसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा साथ ही देशवासियों की निर्धनता और पीड़ा से व्यथित हो कर पूछा है कि वह किस के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त करें — प्राकृतिक सुंदरता के प्रति या देशवासियों की पीड़ा के प्रति ।

व्याख्या — कवयित्री प्रकृति को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे माँ — एक ओर केसर की सुषमा है जो मकरन्द से युक्त है। उस पर तितलियाँ आनन्दपूर्वक विहार कर रही हैं और मधुपान करके जीवन प्राप्त कर रही हैं। दूसरी ओर हृदय रूपी पिंजरे में जीवन रूपी शुक पड़ा हुआ है और उसे एक-एक कण के लिए तरसना पड़ रहा है अर्थात् प्रकृति की सुषमा को देखना उचित है या वे व्यक्ति जो विपत्ति के कारण इतने दीन हैं कि उन्हें जीवित रहने तक के लिए पर्याप्त खाद्यान्न भी प्राप्त नहीं हो रहा। इन दोनों में से किसकी ओर दृष्टि डालूं |

कवयित्री कहती है कि हे माँ एक ओर कलियों का बना जाल बिछा हुआ है। कलियों की अधिकता के कारण लताएँ उनमें छिपती-सी दिखलाई पड़ रही हैं। दूसरी ओर मुसीबत के कारण ऐसी दशा को प्राप्त हुए व्यक्ति हैं कि वहाँ का दृश्य देखकर स्वयं लज्जा को भी करुणा आ जाती है। इस स्थिति में मैं किधर अपनी दृष्टि डालूँ ?

बहलाऊँ नव किसलय के –

झूले में अलि-शिशु तेरे,

पाषाणों में मसले या

फूलों से शैशव देखूँ !

तेरे असीम आँगन की

देखूं जगमग दिवाली,

या इस निर्जन कोने के

बुझते दीपक को देखूँ !(4)

प्रसंग — प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता ‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ से अवतरित है जिसमें कवयित्री ने प्रकृति के सौन्दर्य की प्रशंसा की है और उसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा साथ ही देशवासियों की निर्धनता और पीड़ा से व्यथित हो कर पूछा है कि वह किस के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त करें — प्राकृतिक सुंदरता के प्रति या देशवासियों की पीड़ा के प्रति ।

व्याख्या — कवयित्री प्रकृति को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे माँ एक ओर नवीन-नवीन कॉपलें हैं। उन पर बैठ कर हिलते हुए भौरों के बच्चे झूला-सा झूल रहे हैं। मैं इसी वातावरण में मग्न रह कर इन अलि-शिशुओं को प्रसन्न होता हुआ देखूँ अथवा पत्थरों जैसी भयानक विपत्तियों में मसले जाते हुए फूलों के समान सुकुमार मानव-बच्चों को देखूँ ?

कवयित्री कहती है कि प्रकृति का यौवन रंग-बिरंगे फूल-पत्तों से युक्त है। यह दृश्य जगमग करती हुई दीपावली के सदृश उज्ज्वल और आनन्ददायक है। दूसरी ओर किसी एकान्त स्थान पर अपने जीवन रूपी दीपक को बुझाए हुए कोई व्यक्ति पड़ा है। हे माँ! बताओ कि मैं इनमें से किसे देखूं ?

देखूँ विहगों का कलरव

घुलता जल की कलकल में,

निस्पंद पड़ी वीणा से

या बिखरे मानस देखूँ !

मृदु रजत-रश्मियाँ देखूँ

उलझी निद्रा-पंखों में,

या निर्निमेष पलकों में

चिंता का अभिनय देखूँ !

तुझमें अम्लान हँसी है

इसमें अजस्र आँसू-जल,

तेरा वैभव देखूँ या

जीवन का क्रंदन देखूँ ! (5)

प्रसंग — प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता ‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ से अवतरित है जिसमें कवयित्री ने प्रकृति के सौन्दर्य की प्रशंसा की है और उसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा साथ ही देशवासियों की निर्धनता और पीड़ा से व्यथित हो कर पूछा है कि वह किस के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त करें — प्राकृतिक सुंदरता के प्रति या देशवासियों की पीड़ा के प्रति ।

व्याख्या — कवयित्री प्रकृति को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे माँ — पक्षी अपनी सुन्दर ध्वनि से कलरव कर रहे हैं। जल भी अपनी स्वछन्द गति से कल-कल की ध्वनि करता हुआ प्रवाहित हो रहा है। दोनों की ध्वनि मिलकर सुन्दर वातावरण की सृष्टि कर रही है। दूसरी ओर बिना कम्पन के शान्त वीणा के समान किसी मनुष्य का बिखरा हुआ भग्न हृदय है। हे माँ! तुम ही बताओ मैं क्या देखूँ |

एक ओर कोमल चाँदी जैसी स्वच्छ किरणें हैं जो निद्रा के कारण अलसाई-सी प्रतीत हो रही हैं। दूसरी ओर टकटकी बांधे दुःखी व्यक्तियों के नेत्र हैं। वे बहुत चिन्तित हैं। अब मैं प्रकृति की इस शोभा को देखूँ अथवा चिन्तित व्यक्तियों की चिन्ताओं को देख कर उनके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करूँ |

कवयित्री प्रकृति को मां के रूप में संबोधित करते हुए कहती है कि हे माँ! तेरे इस प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने से लगता है कि तेरे अंचल में वस्तुएँ सदैव सुखद निर्मल हँसी हँसती रहती हैं | परंतु दूसरी ओर मेरे आसपास मनुष्यों का जीवन अभावग्रस्त है | वे निरंतर अश्रु जल बहा रहे हैं | सीमा तुम ही बताओ कि मैं तुम्हारे इस वैभव को देखूँ या या अपने आसपास दुखों से क्रंदन कर रहे पीड़ित लोगों को देखूँ | हे माँ! तुम ही मेरा मार्गदर्शन करो मैं क्या करूँ?

‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ कविता का मूल भाव / उद्देश्य / प्रतिपाद्य

‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा की एक प्रसिद्ध रहस्यवादी कविता है । इस कविता में उन्होंने अपने आस-पास व्याप्त सामाजिक विषमताओं और मानवीय पीड़ाओं की तरफ अपनी दृष्टि डाली है। वह प्रकृति को भी अनदेखा नहीं करती। वह प्रकृति को माँ कहकर सम्बोधित करती है। परंतु उसके सामने एक विचित्र दुविधा है | वह प्राकृतिक सौंदर्य और मानव पीड़ा में से किसकी तरफ उन्मुख हो? – यह प्रश्न उसे विचलित करता रहता है |

प्रस्तुत कविता में कवियत्री प्रकृति को मां के रूप में संबोधित करती है और उससे ही है प्रश्न पूछती है कि प्राकृतिक सौंदर्य और मानव पीड़ा में से वह किसे चुने? वह प्रश्न पूछती है कि उसकी सहानुभूति प्रकृति के विविध सुन्दर दृश्यों की ओर हो या फिर दुःखी मानव-जीवन की ओर?

इन प्रश्नों का उत्तर भी कवयित्री के इस गीत में अप्रत्यक्ष रूप से निहित है। जीवन में जितना दैन्य और दारिद्रय है, उसे छोड़कर प्रकृति की शोभा की ओर आकृष्ट रहना लज्जा का विषय है। महादेवी ने इस गौत में प्राकृतिक सौंदर्य और वथार्थ जीवन का वैषम्य प्रदर्शित करने के लिए दोनों का साथ-साथ चित्रण किया है। खिलती कलियाँ और प्यासे होंठ, प्रकृति का चिर यौवन और मानव का जर्जर जीवन, हिम-हीरक और आँसू-कण, मन्द समीरण और ठंडी आहें, बसन्त और आमों का पतझर, मकरन्द-पगी मधु-परियाँ और उर-पंजर में तरसता जीवन-शुक, अलि-शिशु और दुःखों में पिसा मानव का शैशव, प्रकृति की जगमग दीवाली, तारागण और निर्जन कोने में रखा सूना दीपक, विहगों का कलरव और व्यक्ति मौनमन, रजत रश्मियाँ और चिन्तातुर पलकें, प्रकृति की अम्लान हँसी और जीवन का क्रन्दन, इनकी विषमता से पाठक के हृदय को निश्चित रूप से झकझोर डालती है।

‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ कविता में महादेवी वर्मा ने प्राकृतिक सौंदर्य की उन्मुख होने की अपेक्षा मनुष्य के दुख दर्द को अभिव्यक्ति देने को श्रेष्ठ घोषित किया है | इसका अर्थ यह है कि कविता में कल्पना की अपेक्षा यथार्थ का वर्णन करना अधिक उचित है | मानव जीवन से कट कर लिखा गया साहित्य किसी भी दृष्टिकोण से श्रेष्ठ साहित्य नहीं हो सकता |

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