हँसते-खिलखिलाते रंग-बिरंगे फूल
क्यारी में देख कर
जी तृप्त हो गया |
नथुनों से प्राणों तक खिंच गयी
गंध की लकीर-सी
आँखों में हो गई रंगों की बरसात ;
अनायास कह उठा :
‘वाह,
धन्य है वसंत ऋतु !’ (1)
लौटने को पैर जो बढ़ाये तो
क्यारी के कोने में दुबका एक नन्हा फूल
अचानक बोल पड़ा :
‘सुनो,
एक छोटा सा सत्य तुम्हें सौंपता हूँ |
धन्य है वसंत ऋतु, ठीक है –
पर उसकी धन्यता उसकी कमाई नहीं
वह हमने रची है,
हमने,
यानी मैंने,
मुझ-जैसे मेरे इन अनगिनत साथियों ने –
जिन्होंने इस क्यारी में अपने-अपने ठाँव पर
धूप और बरसात,
जाड़ा और पाला झेल
सूरज को तपा है पूरी आयु एक पाँव पर ! (2)
तुमने ऋतु को बखाना,
पर क्या कभी पल भर भी
तुम उस लौ को भी देख सके
जिसके बल
मैंने और इसने और उसने
यानी मेरे एक-एक साथी ने
मिट्टी का अँधेरा फोड़
सूरज से आँखें मिलायी हैं?
उसे यदि जानते तो तुमसे भी
रँग जाती एक ऋतु !’ (3)
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