मंत्र-गंध और भाषा ( Mantra Gandh Aur Bhasha ) : नरेश मेहता

कौन विश्वास करेगा

फूल भी मंत्र होता है?

मैं अपने चारों ओर

एक भाषा का अनुभव करता हूँ

जो ग्रंथों में नहीं होती

पर जिसमें फूलों की-सी गंध

और बिल्वपत्र की-सी पवित्रता है

इसीलिए मंत्र

केवल ग्रंथों में ही नहीं होते | (1)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित श्री नरेश मेहता द्वारा रचित कविता ‘मंत्र-गंध और भाषा’ से अवतरित हैं | कवि प्रकृति में एक भाषा का अनुभव करता है जो पुस्तकीय भाषा से कहीं अधिक व्यापक व सार्वभौमिक है |

व्याख्या — कवि कहता है कि कोई इस बात में विश्वास नहीं करता कि फूल भी मंत्र के समान प्रभावशाली होते हैं | लेकिन फूल ही नहीं अपितु चारों ओर का प्राकृतिक वातावरण एक भाषा लिए हुए है | कवि के अनुसार वह अपने चारों ओर एक ऐसीभाषा का अनुभव करता है जो ग्रंथों से परे है | उसमें फूलों के समान गंध हुए बेल-पत्रों के समान पवित्रता होती है | इसलिए कवि कहता है कि वह यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि मंत्र केवल ग्रंथों में होते हैं | कहने का भाव यह है कि कवि को अपने चारों ओर का प्राकृतिक वातावरण मंत्रोच्चारण करता हुआ प्रतीत होता है |

धरती को कहीं से छुओ,

एक ऋचा की प्रतीति होती है

देवदारूओं की देहयष्टि

क्या उपनिषदीय नहीं लगती?

तुम्हें नहीं लगता कि

इन भोजपत्रों में

एक वैदिकता है

जिसका साक्षात नहीं किया गया है? (2)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित श्री नरेश मेहता द्वारा रचित कविता ‘मंत्र-गंध और भाषा’ से अवतरित हैं | कवि प्रकृति में एक भाषा का अनुभव करता है जो पुस्तकीय भाषा से कहीं अधिक व्यापक व सार्वभौमिक है |

व्याख्या — कवि कहता है कि भाषा केवल ग्रंथों में नहीं होती वह हमारे चारों ओर फैले वातावरण में व्याप्त है | धरती को कहीं से भी छूने पर ऋचाओं की प्रतीती होती है | देवदारुओं की देहयष्टि में उपनिषदों सा प्रभाव दृष्टिगत होता है परन्तु उसे प्रत्यक्ष देखा नहीं जा सकता उसे केवल अनुभव किया जा सकता है | यहाँ तक की भोज-पत्रों में भी वैदिकता के दर्शन होते हैं | अर्थात प्रकृति में सभी धर्म-ग्रंथों का संदेश-वहन करती है | प्रकृति का संदेश धर्म-ग्रंथों की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं सार्वभौमिक है |

ये प्रपात

स्तोत्र-पाठ ही तो करते हैं

यह कैसी वैश्वानरी-गंध

गायत्री-छंदों में

धूप के पग धरती

वनस्पतियों पर उतर रही है

सावित्रियों के इस आरण्य-रास का वर्णन

किसी शतपथ में नहीं मिलेगा

इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ

जो ग्रंथों में नहीं होती

पर प्राय: जिसे मैंने

एकांत और कोलाहलों में सुना है | (3)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित श्री नरेश मेहता द्वारा रचित कविता ‘मंत्र-गंध और भाषा’ से अवतरित हैं | कवि प्रकृति में एक भाषा का अनुभव करता है जो पुस्तकीय भाषा से कहीं अधिक व्यापक व सार्वभौमिक है |

व्याख्या — कवि कहता है कि भाषा केवल ग्रंथों में नहीं होती वह हमारे चारों ओर फैले वातावरण में व्याप्त है | प्रकृति का प्रत्येक अवयव धर्म-ग्रंथों में निहित सन्देश का प्रसार करता हुआ प्रतीत होता है | जल-प्रपात का संगीत स्तोत्र-पाठ का आभास देता है | जब सूर्य की किरण वनस्पतियों पर पड़ती हैं तो हवन-कुंड की अग्नि और और उससे निकलने वाली गंध का अनुभव होता है | कवि के अनुसार सूर्य की किरणों का यह आरण्य-रास किसी शतपथ ब्राह्मण में नहीं मिलता अर्थात प्रकृति का संदेश धर्म-ग्रंथों से कहीं अधिक व्यापक है | इसीलिए कवि कहता है कि मैं अपने चारों ओर एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो धर्म-ग्रंथों से परे है | इस भाषा को एकान्त तथा कोलहल में सुना जा सकता है अर्थात इस भाषा को वही व्यक्ति सुन सकता है जो प्रकृति से एकाकार हो जाता है |

रात और दिन के कृष्ण-शुक्ल स्वरों में

ये सूर्याएँ

यजुर्वेद हो जाती हैं

प्रत्येक क्षण एक मंत्र

वनस्पति में परिणत होता है

जिसकी गंध

फूल मात्र में होती है

नाम, सीमा का होता है

असीम का नहीं,

तब भला उस गंध को क्या नाम दोगे

जो फूल मात्र में होती है?

हमारी सारी भाषाओं से परे

वह एक साक्षात है

जो केवल एकांत की मंत्र-गंध होता है,

और वह केवल अवतरित होता है

इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ

जो ग्रंथों में नहीं होती | (4)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित श्री नरेश मेहता द्वारा रचित कविता ‘मंत्र-गंध और भाषा’ से अवतरित हैं | कवि प्रकृति में एक भाषा का अनुभव करता है जो पुस्तकीय भाषा से कहीं अधिक व्यापक व सार्वभौमिक है |

व्याख्या — कवि कहता है कि भाषा केवल ग्रंथों में नहीं होती वह हमारे चारों ओर फैले वातावरण में व्याप्त है | कवि के अनुसार रात और दिन के समय चन्द्रमा और सूर्य की किरणेँ यजुर्वेद के कृष्ण और शुक्ल पक्ष की सृष्टि करती हैं | प्रत्येक क्षण एक मंत्र वनस्पति में परिणत होता है जिसकी गंध फूल में अनुभव की जा सकती है | परन्तु उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि नाम केवल सीमित को दिया जा सकता है ; जो वस्तुएँ असीम हैं उन्हें भला क्या नाम दें? अर्थात असीम वस्तुओं का नामकरण नहीं किया जा सकता | परन्तु हमारी सारी भाषाओं से परे होते हुए भी वह साक्षात है जिसका अनुभव फूल व वनस्पति मात्र में किया जा सकता है | इसीलिए कवि कहता है कि वह अपने चारों ओर एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो ग्रंथों में नहीं होती लेकिन हमारे चारों ओर व्याप्त होती है | अर्थात प्रकृति की भाषा मानव-निर्मित भाषा से कहीं अधिक व्यापक तथा गूढ़ है | यह उन भावों को भी अभिव्यक्त कर सकती है जो आज तक किसी ग्रन्थ में वर्णित नहीं हो पाए |

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