बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चांद,
रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा –
मेरा यह जिस्म
कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था
तुम्हारे आश्लेष में
आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा
टूटा है, म्लान है |
दुगना सुनसान है
बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा | (1)
मेरा यह जिस्म –
टूटे खंडहरों के उजाड़ अंत:पुर में
छूटा हुआ एक साबित मणि-जटित दर्पण-सा –
आधी रात दंश-भरा बाहुहीन
प्यासा सर्पीला कसाव एक
जिसे जकड़ लेता है
अपनी गुंजलक में | (2)
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है
खाली दर्पण में धुंधला-सा एक प्रतिबिंब
मुड़-मुड़ लहराता हुआ
निज को दोहराता हुआ !……………..(3)
कौन था वह
जिसने तुम्हारी बाहों के आवर्त में
गरिमा से तन कर समय को ललकारा था !
कौन था वह
जिसकी अलकों में जगत की समस्त गति
बंध कर पराजित थी ! (4)
कौन था वह
जिसके चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण
सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था !
कौन था कनु, वह
तुम्हारी बाहों में
जो सूरज था, जादू था, दिव्य था, मंत्र था
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है !
मंत्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,
शेष रही मैं केवल,
कांपती प्रत्यंचा सी | (5)
अब भी जो बीत गया,
उसी में बसी हुई
अब भी उन बाहों के छलावे में
कसी हुई
जिन रूखी अलकों में
मैंने समय की गति बांधी थी –
हाय उन्हीं काले नागपाशों से
दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण बार-बार
डंसी हुई
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है –
और संशय है |
बुझी हुई राख में छिपी चिनगारी-सा
रीते हुए पात्र की आखिरी बूंद-सा
पाकर खो देने की व्यथा-भरी गूँज-सा ……………(6)
jo m sarch krna chahti hu vo nhi aa rha sarrch me