काव्य गुण – काव्य के सौंदर्य एवं अभिव्यंजना शक्ति को बढ़ाने वाले तत्त्वों को काव्य गुण कहा जाता है |
डॉ नगेन्द्र के अनुसार – “गुण काव्य के उन उत्कर्ष साधक तत्वों को कहते हैं जो मुख्य रूप से रस के और गौण रूप से शब्दार्थ के नित्य धर्म हैं |”
काव्य गुणों की संख्या या भेद / प्रकार ( Kavya Gun Ke Prakar )
काव्य गुणों की संख्या को लेकर आचार्यों में मतभेद है | आचार्य भरत मुनि तथा दंडी ने काव्य गुणों की संख्या दस मानी है जबकि आचार्य वामन ने काव्य गुणों की संख्या बीस मानी है | आचार्य मम्मट तथा आनंदवर्धन गुणों की संख्या तीन मानते हैं | उन्होंने प्रसाद गुण, ओज गुण एवं माधुर्य गुण को काव्य गुण माना है | आज अधिकांश विद्वान उनके मत से ही सहमत हैं |
यहाँ इन तीन गुणों की संक्षिप्त चर्चा करना आवश्यक होगा |
(1) प्रसाद गुण – जिस गुण के कारण काव्य का अर्थ तुरंत समझ में आ जाए और उसे पढ़ते ही मन खुशी से झूम उठे, प्रसाद गुण कहलाता है | प्रसाद गुण स्वच्छ जल की भांति है जिसमें सब कुछ आर-पार दिखाई देता है |
प्रसाद गुण सरल एवं सुबोध पदों द्वारा आता है ; इसलिए सभी सरल एवं सुबोध रचनाएं प्रसाद गुणों से युक्त होती हैं |
उदाहरण –
आज पानी गिर रहा है
खूब पानी गिर रहा है
घर नजर में तिर रहा है |
(2) ओज गुण – जो गुण काव्य में जोश एवं ओज उत्पन्न करता है, वह गुण ओज गुण कहलाता है | यह गुण वीर, रौद्र, भयानक और विभत्स रस के अनुकूल है | लंबे समास, कठोर वर्ण और संयुक्त वर्ण इसके अनुकूल होते हैं |
उदाहरण –
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो |
(3) माधुर्य गुण – जिस गुण के कारण सुनने वाले के मन में मधुरता का भाव आ जाए, वह गुण माधुर्य गुण कहलाता है | यह गुण श्रृंगार, शांत एवं करुण रस के अनुकूल है | इसमें लंबे समास और कठोर वर्णों का प्रयोग निषेध होता है | संयुक्त वर्ण का प्रयोग भी माधुर्य गुण में बहुत कम प्रयोग होता है |
उदाहरण –
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं |
तब ये लता लगती अति सीतल,
अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं | |
यह भी देखें
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