अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है |
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम,
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है | 1️⃣
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है |
बादल को घिरते देखा है | 2️⃣
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है |
बादल को घिरते देखा है | 3️⃣
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारू कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों में
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रज- रचित मणि खचित कलामय
दान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपुटी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारूण आंखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है | 4️⃣
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारूण की मृदु किरणें थी
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी-दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है |
बादल को घिरते देखा है | 5️⃣
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊंचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल –
के पीछे धावित हो-होकर
तरुण तरुण कस्तूरी मृग को,
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है | 6️⃣
कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गयी उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योह-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर | 7️⃣
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