नभ में पाँती-बँधे बगुलों के पंख,
चुराए लिए जाती वे मेरी आँखें |
कजरारे बादलों की छाई नभ छाया,
तैरती साँझ की सतेज श्वेत काया |
होले होले जाती मुझे बांध निज माया से |
उसे कोई तनिक रोक रक्खो |
वह तो चुराए लिए जाती मेरी आँखें
नभ में पाँती-बँधे बगुलों की पाँखें |
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित ‘बगुलों के पंख’ नामक कविता से अवतरित है | इसके कवि श्री उमाशंकर जोशी जी हैं | इसमें कवि ने आकाश में उड़ रहे बगुलों के माध्यम से प्रकृति का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है |
व्याख्या — कवि कहता है कि बगुले पंक्ति-बद्ध होकर आकाश में उड़े चले जा रहे हैं | उनके पंख अत्यंत आकर्षक लग रहे हैं | वह इतने मनोहारी हैं कि मेरी आंखें एकटक उन्हीं को देख रही हैं | लगता है जैसे वे मेरी आंखों को चुरा कर ले जा रहे हैं अर्थात मेरी आंखें लगातार उनकी उड़ान का पीछा कर रही हैं | आकाश में काले बादलों की छाया फैली हुई है उसे देख कर ऐसा लगता है मानो सांय काल की श्वेत चमकीली काया आकाश में तैर रही हो | यह दृश्य धीरे-धीरे कवि को अपने जादू में बांध रहा है | कवि लगातार इस दृश्य को देखना चाहता है | इसीलिए वह कहता है कि कोई इस दृश्य को पल भर के लिए रोक ले ताकि वह कुछ देर और इस रमणीक दृश्य का आनंद ले सके | इसीलिए कवि कहता है कि आकाश में पंक्ति-बद्ध उड़ रहे बगुलों के सुंदर पंख उसकी आंखों को चुराए लिए जा रहे हैं |
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