जब से मैंने यह कविता लिखी है
कट रहे जंगल के छोर पर राजमार्ग के समीप
सब दिन मरे पड़े मिलते हैं नौजवान
लाश का हुलिया सुन कोई जानता नहीं कौन था
मान लिया जाता है कैसे मरा होगा
मरने का कारण अब थोड़े ही शेष है
हुलिया भी संक्षिप्त होता जा रहा है
जितने कम कपड़े उतना छोटा हुलिया
चेहरे पर जाति की छाप मिट रही है
गांव के सयाने तो मौत का कारण हताशा बताते हैं
समवयस्क समवेत स्वर में अनेक नाम लेते हैं
पर उसका नाम है हत्या | 1️⃣
यह शून्यकाल है युग के बदलने का
बीसवीं शताब्दी जाने से पहले धोखा दे रही है
कि सारे संसार में आ रहा है नवयुग
पीने, उड़ाने, पहनने, खाने का समय
खाने पीने वाले खुद उसे धोखा समझते हैं
सत्य मानते हैं सिर्फ भूखे और प्यासे लोग
जिनको पता होनी चाहिए असलियत
यह युग है जिसका अंत हमें दिखता है
पर अगले युग का आरंभ नहीं जानते
मनहूस शून्य के अथाह में पांव नहीं टिकते हैं
हम डूबते नहीं उतराते रहते हैं
बार-बार यह कोशिश है कि हर एक संवाद
अर्थहीन हो जाए
लोगों के संबंध मध्यस्थों द्वारा बना करें
आज इन टूटते रिश्ते को सार्वजनिक मान्यता देते हैं अध्येता
करते हैं प्रबंध की एक शैली का उद्घाटन,
जनता के साधनों से नए लाभ की | 2️⃣
यह नहीं हो सकता, यह नहीं होगा
शून्य में घोषणा करता है विचारक
पढ़े लिखे लोगों के बीच सिद्ध होता है
कि संवाद मर गया
कर्महीन लोकतंत्र की मदद करता है विध्वंसक लोकतंत्र
दोनों मिलकर विचारधारा चलाते हैं
कि कोई विचार नहीं हत्या ही सत्य है
हम भी भयभीत असहाय भी भयभीत है
यों कह कर भीड़ में समर्थ छिप जाते हैं | 3️⃣