रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

भरत मुनि का रस सिद्धांत ( Ras Siddhant ) भारतीय काव्यशास्त्र का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है | रस सिद्धांत ( Ras Siddhant ) की विवेचना करने से पूर्व ‘रस’ के अर्थ को जानना आवश्यक होगा | ‘रस’ का सामान्य अर्थ आनंद से लिया जाता है | भारतीय साहित्य शास्त्र में रस की अवधारणा अत्यंत प्राचीन है | आचार्य भरत मुनि ने अपनी रचना ‘नाट्यशास्त्र‘ में कहा है कि रस के अभाव में काव्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती |

जीवन भी रस की प्राप्ति के लिए है | यदि जीवन में कोई रस न हो तो वह व्यर्थ है | प्राचीन आचार्यों ने तो योग की साधनावस्था को ही रस की अवस्था कहा है | काव्य भी एक साधना है जिसमें काव्य-कर्त्ता और काव्य-भोक्ता दोनों को ही रस की प्राप्ति होती है | काव्य में दु:खद अनुभूतियां भी रसानुभूति प्रदान करने की क्षमता रखती हैं |

रस का अर्थ ( Ras ka Arth )

सर्वप्रथम प्रश्न उठता है कि रस है क्या? इस विषय पर विद्वानों ने गंभीर चिंतन किया है लेकिन आज भी विद्वान इसके अर्थ के विषय में एकमत नहीं हैं | ‘रस’ शब्द ‘रस्’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय के जुड़ने से बना है | इसकी व्याख्या इस प्रकार से की जा सकती है — “रस्यते आस्वाद्यते इति रस: |” अर्थात जो आस्वादित किया जा सके उसे रस कहते हैं |

आज सामान्य व्यवहार में रस का प्रयोग चार अर्थों में होता है : –

(1) वनस्पति आदि से उत्पन्न कटु, तिक्त, अम्लीय आदि स्वादमय द्रव-रूप रस |

(2) चिकित्सा विज्ञान के विशिष्ट प्रयोगों से उत्पन्न औषधि रूप रस |

(3) साधना, समाधि आदि द्वारा अनुभूत ब्रह्मानंद का मुक्ति रूप रस |

(4) काव्य-नाटक सुनने और देखने से श्रृंगार, करुण आदि रसों की अनुभूति |

रस के विषय में संस्कृत आचार्यों के मत ( Ras Ke Vishay Mein Sanskrit Acharyon Ke Mat )

▪️ वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में रस का प्रयोग श्रृंगार आदि रसों के लिए किया है |

▪️ महर्षि वात्स्यायन ने अपनी रचना कामसूत्र में प्रेम, काम भाव तथा अनुराग के लिए रस शब्द का प्रयोग किया है |

▪️ आचार्य भरत मुनि ने अपनी रचना ‘नाट्यशास्त्र‘ में रस शब्द का प्रयोग श्रृंगारादि रस के लिए ही किया है | भरत मुनि ने रस को आस्वाद्य बताया है और अन्न के आस्वादन का उदाहरण दिया है |

▪️ भामह अलंकारवादी आचार्य थे परंतु उन्होंने रस के बारे में भी चिंतन किया है | उन्होंने रस का अर्थ तो स्पष्ट नहीं किया परंतु रस के महत्व को स्वीकार करते हुए वे कहते हैं — ” रस के प्रयोग से काव्य सुस्वादु हो जाता है, उसकी शास्त्रीय कटुता नष्ट हो जाती है और परिणामस्वरूप पाठक उसे भेषज ( मीठी औषधि ) के समान ग्रहण करते हैं |”

▪️ आनंदवर्धन एक ध्वनिवादी आचार्य थे | उन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा माना लेकिन रस को प्रेरक और सार-रूप कहा |

▪️ अभिनवगुप्त भी एक ध्वनिवादी आचार्य थे | उन्होंने रस का सर्वथा मौलिक एवं गंभीर चिंतन किया | उनका कथन है कि आनंद वस्तुतः आत्मा का धर्म है, विषय वस्तु का नहीं | उनके अनुसार प्रमाता केवल अपनी आत्मा के आनंद को ही अनुभव करता है | इस प्रकार अभिनवगुप्त ने स्पष्ट किया कि रस नाट्यगत न होकर सामाजिकगत है अर्थात रस हृदय से संबंधित है ; नाटक या काव्य से नहीं |

▪️ आचार्य मम्मट अपनी रचना ‘काव्यप्रकाश‘ में रस के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं — “काव्या पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभावादि के संयोग से निष्पन्न होने वाली आनंददायक चित्तवृत्ति ही रस है |”

▪️ आचार्य विश्वनाथ ने रस के स्वरूप पर विस्तृत प्रकाश डाला है | इन्होंने चौदहवीं सदी में रचित अपनी रचना ‘साहित्य दर्पण’ में रस को अखंड, स्वप्रकाश, आनंदमय, चिन्मय, वेद्यान्तरस्पर्शशून्य, ब्रह्मस्वादसहोदर, लोकोत्तर-चमत्कारप्राण और अपने आकार से अभिन्न बताया है |

रस के स्वरूप को निर्धारित करने वाले उक्त तत्वों का विवरण इस प्रकार है : —

1️⃣ रस अखंड है — इसका तात्पर्य यह है कि रस उस स्थायी भाव का अपर नाम है जिसका संयोग विभाव, अनुभाव, संचारीभाव, इन तीनों के समन्वित रूप के साथ हो ना कि इन में से किसी एक अथवा दो के साथ | इसका अर्थ यह भी है कि रस यद्यपि अपने अंशों से निर्मित है तथापि इसके किसी भी अंश को उससे पृथक नहीं किया जा सकता | अतः इसे अखंड माना जाता है |

2️⃣ रस स्व-प्रकाश है — इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिखाने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार रस भी स्वयं प्रकाशित होता है | इसे प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं है | संभवत: इसी कारण इसे भी ‘अपने आकार से अभिन्न’ कहा जा सकता है |

3️⃣ रस अपने आकार से अभिन्न है — रस अपने आकार से अभिन्न रूप में आस्वादित किया जाता है अर्थात रस जिस रूप में आस्वादित होता है उससे इतर यह और किसी प्रकार की अनुभूति नहीं है | इस कथन की व्याख्या में यह भी कहा जा सकता है कि सहृदय की निजी अनुभूति ही रस का रूप धारण कर लेती है अर्थात रस के आस्वादन प्रसंग में एक सहृदय की अनुभूति में किसी अन्य सहृदय की अनुभूति न तो सहायक बनती है और न उसे किसी रूप में प्रभावित ही कर सकती है |

4️⃣ रस चिन्मय है — इसका अर्थ यह है कि रस शुद्ध चेतन नहीं है अपितु चेतनता प्रधान है | इस प्रसंग में चेतना-प्रधानता से यह तात्पर्य ले सकते हैं कि रस आत्मा के समान सचेतन अथवा प्राणवान आनंद है, वह निद्रा, मद्यपान आदि से उत्पन्न भौतिक आनंदों के समान जड़ आनंद नहीं है |

5️⃣ रस वेद्यान्तरस्पर्शशून्य है — इसका तात्पर्य यह है कि रस के आस्वादन के समय अन्य किसी प्रकार के ज्ञान का स्पर्श तक नहीं हो पाता | रसास्वादन के समय सांसारिक घटना अथवा विचार का स्मरण आने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता | इतना ही नहीं हम यह भी भूल जाते हैं कि हम नाट्यगृह में बैठे हैं अथवा अन्यत्र |

6️⃣ रस ब्रह्मस्वाद सहोदर है — इसका तात्पर्य है कि रस का आस्वादन करने वाला उतना आस्वाद कर पाता है जितना एक साधक ब्रह्म-प्राप्ति के द्वारा | यहां रस को ब्रह्मास्वाद न कहकर उसका सहोदर कहा गया है | इसका अर्थ यह है कि इन दोनों में पर्याप्त अंतर है | वह अंतर यह है कि ब्रह्मास्वाद की प्राप्ति के समय योगी ऐन्द्रिय विकारों से पूरी तरह से विमुक्त होता है, इधर काव्यास्वाद के समय भी सहृदय ऐन्द्रिय विकारों से मुक्त होता है किंतु केवल कुछ समय के लिए | अत: काव्यास्वाद (रस ) को ब्रह्मास्वाद की अपेक्षा निम्नतर कोटि का बताया गया है |

7️⃣ रस लोकोत्तरचमत्कारप्राण है — रस का प्राण है – लोकोत्तर | ‘चमत्कार’ का अर्थ है – विस्मय | स्पष्ट शब्दों में कहें तो चमत्कार चित्त का विकासजनक आह्लाद है | रस का प्राण यही आनंद है किंतु वह लोकोत्तर होना चाहिए | इस प्रकार लोकोत्तरचमत्कार प्राण का अर्थ यह हुआ कि रस लोकोत्तर होता है तथा चित्तविकास-जनक आनंद से युक्त होता है |

8️⃣ रस लोकोत्तर आह्लादवान है — इसका तात्पर्य यह है कि रस का आह्लाद है तो इह-लौकिक पर वह इस लोक के अन्य आह्लादों से सर्वोपरि है |

रस के विषय में रीतिकालीन आचार्य कवियों के मत ( Ras Ke Vishay Mein Ritikalin Aacharya Kaviyon Ke Mat )

रीतिबद्ध कवियों ने भी रस-संबंधी विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है लेकिन उनमें मौलिकता का सर्वथा अभाव है | उनका रस सिद्धांत ( Ras Siddhant ) प्राय: संस्कृत आचार्यों के मतों पर आधारित है | इनमें से कुछ आचार्यों द्वारा प्रस्तुत किया गया रस-विवेचन इस प्रकार है —

▪️ केशवदास ने ‘रसिक प्रिया’ में नौ रसों का विवेचन करते हुए श्रृंगार रस को रसराज कहा है |

▪️ देव, कुलपति, भिखारीदास और ग्वाल कवि आचार्य विश्वनाथ द्वारा रचित ‘साहित्य दर्पण’ का ही समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं | भिखारीदास अपनी पुस्तक ‘रस सारांश’ में कहते हैं —

जहां विभाव अनुभाव थिर चर भावन का ज्ञान |

एक ठौर ही पाइये सो रस रूप प्रमान ||

ग्वाल कवि अपनी पुस्तक ‘रस तरंग’ में कहते हैं —

जहं विभाव अनुभाव अरु सात्विक और संचारि |

ये मिली थित को पूरहीं सो रस सुकवि विचारि ||

रस के विषय में आधुनिक विद्वानों के महत्व ( Ras Ke Vishay Mein Adhunik Vidvanon Ke Mat )

आधुनिक काल के विद्वानों में केशव प्रसाद मिश्र, श्यामसुंदर दास, गुलाब राय और हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने प्राय: संस्कृत आचार्यों के रस सिद्धांत ( Ras Siddhant ) का ही समर्थन किया है | इनमें से किसी ने भी नवीन सिद्धांत की स्थापना नहीं की |

▪️ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘कविता क्या है ?’ निबंध में हृदय की मुक्तावस्था को रस दशा कहा है | वे लिखते हैं – “जिस प्रकार आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है |”

▪️ डॉ नगेंद्र ने प्राच्य और पाश्चात्य काव्य सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन करके अपना रस संबंधी मत दिया है | उन्होंने रस को आनंदमयी चेतना माना है जो कि विषयानंद और ब्रह्मानंद के बीच की वस्तु है | काव्यानन्द शुद्ध आत्मानन्द ( ब्रह्मानन्द ) नहीं है | आत्मानंद में जहां शुद्ध आत्मातत्व का योग है, वहीं काव्यानंद में भौतिक जीवन की भूमिका अवश्य बनी रहती है |

यह भी देखें

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

काव्यात्मा संबंधी विचार

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