बिहारीलाल के दोहों की व्याख्या ( Biharilal Ke Dohon Ki Vyakhya )

( यहाँ कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित बिहारीलाल के दोहों की व्याख्या दी गई है | )

बिहारीलाल के दोहों की व्याख्या

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरिक सोइ |

जा तन की झाईं परैं स्यामु हरित-दुति होइ || (1)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ से अवतरित है | प्रस्तुत दोहे में कवि बिहारी ने प्राचीन काव्य-परंपरा का पालन करते हुए मंगलाचरण के रूप में श्री राधिका की स्तुति की है |

व्याख्या — कविवर बिहारी जी कहते हैं कि जिस चतुर राधिका के शरीर की छाया पड़ने से श्याम-वर्ण श्री कृष्ण हरे रंग की आभा वाले हो जाते हैं ; वही राधिका मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करे | अथवा इसका एक अन्य अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि जिस चतुर राधिका के शरीर की झलक पढ़ने से श्री कृष्ण प्रसन्नचित्त हो जाते हैं ; वही राधिका मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करे |

विशेष — (1) प्रस्तुत दोहा मंगलाचरण के रूप में लिखा गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

कौन भाँति रहि है बिरदु, अब देखिबो मुरारि |

बीधे मोसों आई कै, गीधे गीधहिं तारि || (2)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बिहारी ने प्रभु की पतित पावन छवि को ध्यान में रखते हुए उन्हें अपना उद्धार करने के लिए उकसाया है |

व्याख्या — कवि बिहारी प्रभु श्री कृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे मुरारी! अब देखना है कि आपकी बड़ाई कैसे रहती है क्योंकि यह जटायु नामक गिद्ध नहीं है जिसका एक बार उद्धार करने पर आपको तारने की आदत पड़ गई है | अबकी बार आपका पाला मुझ जैसे बड़े पापी से पड़ा है जिसे सरलता से तारा नहीं जा सकता |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने जटायु प्रकरण का उदाहरण देते हुए प्रभु की पतित-पावन छवि का चित्रण किया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हटि जान्यौ नाँहि |

ज्यों आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि || (3)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारीलाल जी कहते हैं कि प्रभु ने हमें सारे जगत का ज्ञान करवाया है परंतु उसी परमात्मा को हम जान नहीं पाए | जिस प्रकार से आंखों से मनुष्य सारे जगत को देखता है परंतु मनुष्य स्वयं अपनी आंखों को नहीं देख सकता | कहने का भाव यह है कि जिस ईश्वर की कृपा से हम इस संसार में प्रत्येक वस्तु का ज्ञान करते हैं हमें उस प्रभु को जानने का प्रयास करना चाहिए |

विशेष — (1) ईश्वर को जानने की प्रेरणा दी गई है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साईंहिं न भूलि |

दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि || (4)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि का कथन है कि हे मनुष्य! दुख के आ जाने पर तू लंबे-लंबे सांस मत ले और सुख प्राप्त हो जाने पर साईं अर्थात ईश्वर को मत भूल | हे मनुष्य! तू भाग्य-भाग्य क्यों करता है | भाग्य ने या भगवान ने जो कुछ भी तुझे दिया है, उसी को स्वीकार कर | कहने का भाव यह है कि मनुष्य को अपने जीवन में जो कुछ मिलता है उसी में संतोष करना चाहिए |

विशेष — (1) प्रस्तुत दोहे में कवि बिहारी ने सुख और दु:ख दोनों स्थितियों में समभाव बनाए रखने की प्रेरणा दी है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

बंधु भए का दीन के, तारयो रघुराइ |

तूठे तूठे फिरत हौ, झूठे बिरद कहाइ || (5)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे भगवान! तुम किस दिन-दु:खी के बंधु बने हो अर्थात किसके सहायक या हितैषी हुए हो? हे रघुकुल के राजा राम! तुमने किसका उद्धार किया है? क्यों व्यर्थ में ही दीन-दुखियों के उद्धारक होने का यश अपने नाम के साथ जोड़कर प्रसन्न हुए घूम रहे हो? कहने का भाव यह है कि कवि तभी ईश्वर को पतित-पावन मानेगा जब स्वयं उसका उद्धार होगा |

विशेष — (1) अभी तक प्रभु द्वारा अपना उद्धार नहीं किए जाने पर भक्त रुष्ट है और उपालंभ भरे स्वर में अपने उद्धार की प्रार्थना करता है |

2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

दियौ, सु सीस चढाइ लै आछी भाँति अएरि |

जापैं सुखु चाहतु लियौ, ताके दुखहिं फेरि || (6)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कविवर बिहारी जी कहते हैं कि हे मनुष्य! जिस ईश्वर से तुम्हे इच्छा करके सुख प्राप्त किया है | उसके लिए तू दुःख को वापस न कर | ईश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी दिया है उसे तुम सिर-माथे पर रखकर अच्छी प्रकार से स्वीकार करो | भाव यह है कि ईश्वर ही हमें सुख अथवा दुख प्रदान करने वाला है | ईश्वर का दिया हुआ हमें स्वीकार करना चाहिए |

विशेष — (1) जीवन में सुख और दुख जो कुछ भी मिलता है वह ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार करना चाहिए |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोइ |

ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रँग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होइ || (7)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि मेरे इस अनुरक्त मन की दशा को कोई नहीं समझ सकता यह ज्यों-ज्यों काले रंग ( कृष्ण के प्रेम ) में डूबता है, त्यों-त्यों उजला ( प्रसन्न ) होता है अर्थात् यह जैसे-जैसे श्री कृष्ण के रंग में डूबता है, वैसे-वैसे अधिक पवित्र व प्रसन्न होता जाता है |

विशेष — (1) भक्त जितना अधिक प्रभु प्रेम में डूबता है उसका ह्रदय उतना अधिक पवित्र होता जाता है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

जपमाला, छापा, तिलक, सरै न एकौ कामु |

मन-कांचै नाचै वृथा, साँचे राँचै रामु || (8)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — बिहारीलाल जी कहते हैं की माला जपने, शरीर पर मुद्रा अंकित करवाने या तिलक लगाने से ईश्वर-भक्ति सिद्ध नहीं हो जाती क्योंकि मन में चंचलता होती है और वह व्यर्थ में इधर-उधर भागता रहता है | राम केवल सच्चे मन से भक्ति करने वालों के मन में रमते हैं |

विशेष — (1) व्यर्थ की आडंबरों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती | ईश्वर की प्राप्ति के लिए निर्मल मन तथा सच्ची भक्ति की आवश्यकता है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

घरु घरु डोलत दीन ह्वै जनु-जनु जाचतु जाइ |

दियैँ लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाइ | (9)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारीलाल जी कहते हैं कि लोभी व्यक्ति अपनी आंखों पर लोभ का चश्मा लगाकर व दीन बनकर घूमता रहता है और हर व्यक्ति से जा-जाकर मांगता रहता है | आंखों पर लोभ का चश्मा होने के कारण उसे छोटा व्यक्ति भी बड़ा दिखाई देता है | अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को देखकर लोभी व्यक्ति को यही लगता है कि वह इससे कुछ प्राप्त कर सकता है |

विशेष — (1) लोभी व्यक्ति की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

तजि तीरथ, हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुरागु |

जिहिं ब्रज-केलि-निकुंज-मग, पग-पग होत प्रयागु || (10)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी लाल जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तू तीर्थ यात्रा को छोड़कर राधा-कृष्ण के तन की अनुपम कान्ति से अनुराग कर ब्रजभूमि में जिनकी प्रेम लीला के निकुंजों के मार्ग में पग-पग पर प्रयागराज के समान पवित्रता के दर्शन होते हैं |

विशेष — (1) कवि की सगुण भक्ति के प्रति निष्ठा प्रकट हुई है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ |

तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग-नाइक, जग-बाइ || (11)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि हे कृष्ण! मैं कब से दीन होकर आपको पुकार रहा हूँ लेकिन आप मेरे सहायक नहीं बन रहे अर्थात् मेरा उद्धार नहीं कर रहे | हे जगतगुरु! हे ईश्वर! इससे यही स्पष्ट होता है कि मानो आपको भी जमाने की हवा लग गई है |

विशेष — (1) अपना उद्धार नहीं किए जाने के कारण भक्त द्वारा भगवान को उपालंभ दिया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

तंत्री-नाद, कवित्त-रस, सरस राग, रति-रंग |

अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग || (12)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि जो व्यक्ति वाद्य यंत्रों के स्वर, काव्यानंद रसपूर्ण गीत तथा रति-रंग आदि कलाओं में पूर्णत: लिप्त नहीं हो सके हैं वे नष्ट हो गए हैं और जो लोग इन कलाओं में पूरी तरह डूब गए हैं, वे निश्चय ही तर गए हैं | कहने का भाव यह है कि मनुष्य को अपने सांसारिक जीवन में इन कलाओं का भरपूर आनंद लेना चाहिए तभी उनका जीवन सार्थक हो सकता है |

विशेष — (1) कला प्रेम में निमग्न रहकर ही ईश्वरीय आनंद की अनुभूति की जा सकती है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

कनक कनक तैं सौ गुनी मादकता अधिकाइ |

उहिं खाएँ बौराइ, इतिं पाएँ हीं बौराइ || (13)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — धन-संपत्ति और धतूरे से मादकता झलकती है | धन-संपत्ति प्राप्त होने पर मनुष्य मदमस्त हो जाता है और अपना विवेक खो बैठता है | इस प्रकार धन-संपत्ति धतूरे से सौ गुना अधिक मादक होती है | एक को ( धतूरे ) खाने से मनुष्य को केवल नशा ही होता लेकिन दूसरे को ( धन-संपत्ति ) को तो प्राप्त करने से ही नशा हो जाता है |

विशेष — (1) धन को धतूरे की भांति मदमस्त करने वाला बताया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) यमक अलंकार का सुंदर प्रयोग है |

स्वारथु, सुकृतु न, श्रमु बृथा, देखि बिहंग बिचारि |

बाज़, पराऐं पानि परि तूँ पच्छनु न मारि || (14)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कविवर बिहारी बाज को लक्ष्य करके कहते हैं कि अरे आकाश में उड़ने वाले बाज! तू जरा सोच कर देख कि तेरा यह सारा श्रम व्यर्थ है क्योंकि इससे न तो तेरे स्वार्थ की सिद्धि होती है और न ही तुझे पुण्य मिलता है | इसलिए तू दूसरों के हाथ में पड़कर व्यर्थ ही पक्षियों को मत मार |

दूसरे अर्थ में राजा जयसिंह को समझाया गया है कि तू स्वतंत्र रहने वाला राजा है | तू अन्य राजाओं से मिलकर निर्दोष प्रजा को मत मार क्योंकि इससे न तो तेरा स्वार्थ सिद्ध होगा और न ही तुझे यश की प्राप्ति होगी |

विशेष — (1) बाज के माध्यम से राजा जयसिंह को व्यर्थ का नरसंहार न करने का संदेश दिया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अन्योक्ति अलंकार है |

नर की अरु नल-नीर की गति इकै करि जोइ |

जेतौ नीचो ह्वै चले, तेतौ ऊँचौ होइ || (15)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि का कथन है कि मनुष्य और नल की दशा एक समान होती है | नल जितना नीचा होकर चलता है उसका पानी उतना ही ऊंचा अर्थात अधिक प्रवाह वाला होता है | उसी प्रकार जिस मनुष्य में विनम्रता जितनी अधिक होती है उसका यश उतना ही अधिक होता है, उसका व्यक्तित्व उतना ही अधिक ऊँचा होता है |

विशेष — (1) मनुष्य जितना अधिक विनम्र होता है उसका यश उतना अधिक बढ़ता है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) श्लेष अलंकार का सुंदर उदाहरण है |

समै-समै सुन्दर सबै, रूप कुरूपु न कोइ |

मन की रुचि जेती, तित तेती रुचि होइ || (16)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — समय-समय पर सभी सुंदर होते हैं | वास्तव में न कोई सुंदर है और न कोई असुंदर | जिसके प्रति मन में जैसी रूचि होती है उसके प्रति वैसा ही भाव उत्पन्न हो जाता है अर्थात सुंदरता या असुंदरता मन की स्थिति पर निर्भर करती है |

विशेष — (1) किसी वस्तु-व्यक्ति की सुंदरता व्यक्ति की रुचि और समय के अनुसार होती है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

बसे बुराई जासु तन, ताही को सनमानु |

भलै भलौ कहि छोड़ियै, खोटैं ग्रह जपु, दानु || (17)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि जिस व्यक्ति के तन में बुराई का वास होता है उस व्यक्ति का खूब आदर-सम्मान किया जाता है | इसके विपरीत अच्छे व्यक्ति को केवल अच्छा या भला व्यक्ति कहकर छोड़ दिया जाता है | उदाहरण के लिए जब बुरे या अनिष्ट ग्रहों का प्रकोप बढ़ने लगता है तब मनुष्य उनकी शांति के लिए अनेक प्रकार की पूजा-अर्चना करता व दान आदि करता है लेकिन शांत ग्रहों को कोई याद तक नहीं करता |

विशेष — (1) संसार पर व्यंग्य किया गया है कि वह बुरे लोगों को सम्मान प्रदान करता है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) जीवन की कटु सच्चाई पर प्रकाश डाला गया है |

सोहत ओढ़ैं पितु पटु स्याम , सलोनैं गात ।

मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु परयो प्रभात ॥ (18)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे सखी! श्री कृष्ण ने श्याम वर्ण के सुंदर शरीर पर पीले रंग के वस्त्र धारण किए हुए हैं | वे पीले रंग की इस वेशभूषा में इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं मानो नीलम के पहाड़ पर प्रातः काल के सूर्य की धूप खिल रही हो |

विशेष — (1) श्री कृष्ण की वेशभूषा का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अनुप्रस्थ एवं उत्प्रेक्षा अलंकार का सुंदर प्रयोग है |

तो पर वारौं उरबसी , सुनि राधिके सुजान ।

तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी समान ॥ (19)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे चतुर राधिका! मेरी बात को ध्यान से सुन तेरे सौंदर्य पर राजा इंद्र के दरबार की उर्वशी नामक अप्सरा भी न्योछावर की जा सकती है | हे राधिका! श्री कृष्ण के हृदय में तुम्हारा वही स्थान है जो वक्ष-स्थल पड़े हुए आभूषण का होता है |

विशेष — (1) राधा की सखी उसे बताती है कि श्री कृष्ण उससे सच्चा प्रेम करते हैं |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) यमक और उपमा अलंकार का सुंदर व सहज प्रयोग है |

जुवति जोन्ह मैं मिलि गई , नैंक न होति लखाइ ।

सौंधे कैं डोरैं लगी अली चली सँग जाइ ॥ (20)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कवि बिहारी कहते हैं कि तरुणी नायिका अपने गोरे रंग के कारण चांदनी में इस प्रकार मिल गई है कि जरा भी दिखाई नहीं देती | उसके साथ चलने वाली सखी भी उसे आंखों से देख नहीं पाती किंतु उसके शरीर से निकलने वाली कमल की सुगंध के सहारे वह भ्रमर की भांति उसके साथ-साथ चली जा रही है |

विशेष — (1) नायिका को चांदनी के समान गौरवर्णी बताया गया है | यह समानता इतनी अधिक है कि चांदनी रात में नायिका दिखाई नहीं देती |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) रूपक अतिशयोक्ति अलंकार है |

हौं रीझी , लखि रीझिहौं छबिहिं छबीले लाल ।

सोनजुही सी होती दुति-मिलत मालती माल ॥ (21)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे छबीले! मैं तो उसे देखकर उस पर मुग्ध हो गई हूँ | जब तुम उसे देखोगे तो तुम भी उस पर मुग्ध हो जाओगे | उसका गोरा रंग तो ऐसा अनोखा है कि जब वह मालती के फूलों से बनी माला पहनती है तो उसके शरीर की चमक से मिलकर वह माला सोनजुही सी दिखाई देने लगती है |

विशेष — (1) नायिका के रूप-सौंदर्य का शब्द चित्र अंकित किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अनुप्रास अलंकार है |

जोग-जुगति सिखए सबै मनौ महामुनि मैन ।

चाहत पिय-अद्वैतता काननु सेवत नैन ॥ (22)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि का कथन है कि ऐसा लगता है मानो महामुनि कामदेव ने सभी योग-युक्तियां नायिका को सिखा दी हैं | इसलिए प्रिय से अद्वैतता स्थापित करने के लिए नायिका के नयन कानों तक फैल गए हैं अर्थात उसे हर तरफ अपने प्रिय के दर्शन होते हैं |

विशेष — (1) नायिका के रूप सौंदर्य का चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

झीनैं पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार ।

सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार ॥ (23)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कवि बिहारी कहते हैं कि झीने वस्त्रों में झिलमिलाती हुई उस नायिका की अपार शोभा-युक्त झलक ऐसी लगती है मानो सागर में कल्पवृक्ष की शाखा सपल्लव चमचमा रही हो |

विशेष — (1) झीने वस्त्रों से झलकती नायिका की शारीरिक कांति का सुंदर चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकारों का सुंदर व सहज प्रयोग है |

खेलन सिखए , अलि , भलैं चतुर अहेरी मार ।

कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार ॥( 24)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे सखी! चतुर कामदेव रूपी शिकारी ने तेरे इन बड़े-बड़े कानों तक फैले नैनों रूपी हिरणों को नगर के पुरुषों का शिकार करना अच्छे से सिखाया है अर्थात नायिका के नेत्र इतने आकर्षक हैं कि उन्हें देखने वाला व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता |

विशेष — (1) नायिका के नेत्रों की सुंदरता का चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) रूपक अलंकार का सफल प्रयोग है |

रस सिंगार-मंजनु किए , कंजनु भंजनु दैन ।

अंजनु रंजनु हूँ बिना खंजनु गंजनु नैन ॥ (25)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका की सखी नायक को बताती है कि उस नायिका के कमलों को पराजित करने वाले श्रृंगार-रस में नहाए हुए नयन अत्यंत सुंदर लगते हैं | वे इतने सुंदर हैं कि अंजन अर्थात काजल लगाए बिना भी खंजन पक्षियों का मान भंग कर देते हैं |

विशेष — (1) नायिका के नेत्रों की तुलना खंजन पक्षी तथा कमल पुष्प से की गई है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अनुप्रास अलंकार का सुंदर व सफल प्रयोग है |

सायक-सम मायक नयन , रँगे त्रिविध रँग गात ।

झखौ बिलखि दुरि जात जल , लखि जलजात लजात ॥ (26)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए नायिका की सखी नायक से कह रही है कि हे नायक! उस नायिका के नेत्र संध्याकाल की तरह मायावी हैं | जिस प्रकार सांयकाल के समय आकाश में सफेद, काला और लाल ये तीनों रंग दिखाई देते हैं उसी प्रकार नायिका की आंखों में इन तीनों रंगों को देखा जा सकता है | उसकी आंखों की चंचलता को देखकर जलाशय की मछलियां दु:खी होकर पानी में छिप जाती हैं तथा उन आंखों की सुंदरता को देखकर जलाशय में खिले हुए कमल लज्जित हो जाते हैं | कहने का तात्पर्य यह है कि नायिका की आंखों में मछलियों की चंचलता तथा कमल के फूलों की सुकुमारता है |

विशेष — (1) नायिका के नेत्रों की सुंदरता का वर्णन किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

बर जीते सर मैन के , ऐसे देखे मैं न ।

हरिनी के नैनानु तैं , हरि , नीके ए नैन ॥ (27)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के नेत्रों की सुंदरता का वर्णन करते हुए नायिका की सखी नायक को कहती है कि उसके नेत्रों जैसे नेत्र मैंने कहीं नहीं देखे | इन्होंने तो कामदेव के बाणों को भी बलपूर्वक जीत लिया है | हे स्वामी! ये नेत्र हिरणियों के नेत्रों से भी कहीं अधिक सुंदर हैं |

विशेष — (1) नायिका के नेत्रों के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उन्हें कामदेव के बाणों से अधिक घातक तथा हिरणियों नैनों से अधिक सुंदर बताया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

अंग-अंग-नग जगमगतु , दीपसिखा सी देह ।

दिया बढ़ाएँ हूँ रहे बडौ उज्यारौ गेह ॥ (28)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के शारीरिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए नायिका की सखी नायक से कहती है कि नायिका के अंग-प्रत्यंग से आभूषणों में जड़े हुए नगीनों की शोभा जगमगा रही है | उसका शरीर दीपशिखा के समान जगमगा रहा है | रात के समय दीपक बुझा देने पर भी उसके घर में अत्यधिक प्रकाश फैला रहता है | कहने का भाव यह है कि नायिका के शरीर पर पहने हुए आभूषणों के कारण नायिका दीपिका के समान जगमगाती रहती है |

विशेष — (1) नायिका के शारीरिक सौंदर्य का आकर्षक शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

छुटी न सिसुता की झलक , झलक्यौ जोबनु अंग ।

दीपति देह दूहुन मिलि दिपति ताफता-रँग ॥ (29)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए नायिका की सखी नायक से कहती है कि अभी बचपन की झलक उसके शरीर से अलग नहीं हुई है और असीम यौवन की झलक दिखाई देने लगी है | बाल्यावस्था और यौवनावस्था इन दोनों के मिलन से उसके शरीर की दीप्ति ताफ़ता अर्थात धूप-छाँह नामक रेशमी कपड़े की भांति दिखाई देती है |

विशेष — (1) नायिका की वयसन्धि की अवस्था का सुंदर एवं सजीव चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

पत्रा हीं तिथि पाइयै या घर कैं चहुँ पास ।

नित प्रति पून्योई रहे आनन-ओप उजास ॥ (30)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के मुख की कांति का वर्णन करते हुए नायिका की सखी नायक से कहती है कि उसके घर के चारों ओर उसके मुख की कांति के कारण हमेशा पूर्णिमा की छाई रहती है | इसलिए वहाँ तिथि आदि का पता केवल पत्रा अर्थात् पंचांग देखकर ही लगता है | कहने का भाव यह है की नायिका के मुख की कान्ति से सदैव पूर्णिमा की भांति चारों ओर आलोक फैला रहता है |

विशेष — (1) नायिका की मुख की कांति के प्रभाव से उसके चारों ओर पूर्णिमा छाई रहती है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

कंज-नयनि मंजनु किए , बैठी ब्यौरति बार ।

कच-अँगुरी बिच दीठि दे , चितवति नंद कुमार ॥ (31)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे सखी! देखो वह कमलनयनी नायिका स्नान करके अपने बालों को संवार रही है | वह अपने बालों और अंगुलियों के बीच दृष्टि देकर श्री कृष्ण को निहार रही है |

विशेष — (1) बालों को सुलझाते हुए बालों और उंगलियों के बीच से नायक को देखना नायिका के चातुर्य का प्रमाण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) चित्रात्मक भाषा है |

सोनजुही सी जगमगति अँग-अँग जोबन-जोति ।

सुरँग , कसूँभी , कंचुकी दुरँग देह-दुति होती ॥ (32)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए नायिका की सखी नायक से कहती है कि नायिका के अंग-अंग में यौवन का सौंदर्य सोनजुही ( पीली चमेली ) की भांति चमक रहा है | जब वह दो रंगों वाली सुंदर ओढ़नी ओढ़ती है तब उसके शरीर की आभा दो रंगों से युक्त अर्थात लाल और पीले रंगों वाली या धूप-छांव की भांति हो जाती है |

विशेष — (1) नायिका के रूप-सौंदर्य का सुंदर शब्द चित्र प्रस्तुत किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) चित्रात्मक भाषा है |

निसि अँधियारी , नील पटु पहिरि , चली पिय-गेह ।

कहौ , दुराई क्यौं दुरै दीप-सिखा सी देह ॥ (33)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका की सखी नायिका को कहती है कि हे सखी! यह ठीक है कि रात अंधेरी है और तुम पीले वस्त्र पहनकर प्रिय के घर की ओर चली हो किंतु यह दीपशिखा सा चमकने वाला तुम्हारा शरीर छिपाने से किस प्रकार छिप सकता है |

विशेष — (1) नायिका के गौर वर्ण का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) उपमा एवं अतिशयोक्ति अलंकारों का सुंदर प्रयोग है |

मकराकृति गोपाल कैं सोहत कुंडल कान ।

धरयो मनौ हिम-घर समरू , ड्योढ़ी लसत निसान ॥ (34)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी श्री कृष्ण के कानों में पड़े हुए कुंडलों की शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे मकर की आकृति के समान हैं और देखने में बहुत सुंदर लगते हैं | ऐसा लगता है मानो कामदेव स्वयं तो हृदय रूपी घर में घुस गया है और उसका झंडा बाहर ड्योढ़ी पर फहरा रहा है |

विशेष — (1) कृष्ण के कानों में पड़े कुण्डलों की सुंदरता का वर्णन है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) उत्प्रेक्षा अलंकार है |

लग्यो सुमन ह्वै है सफलु , आतप-रोसु निवारि ।

बारी , बारी आपनी सींचि सुहृदता-बारि ॥ (35)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका की सखी नायिका को परामर्श देते हुए कहती है कि हे सखी! देख तेरा अच्छा मन नायक से लगा हुआ है अर्थात तेरे मन में नायक के प्रति प्रेम है | इसका परिणाम भी अच्छा ही होगा | तू अपने क्रोध रूपी धूप का निवारण कर | हे बावली! तू प्रेम रूपी जल से हृदय रूपी वाटिका को सींचती रह |

विशेष — (1) क्रोध प्रेम का शत्रु है | मधुर प्रेम-संबंध बनाने के लिए क्रोध से सदैव दूर रहना चाहिए |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) यमक और रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग है |

कहत , नटत , रीझत , खीझत , मिलत , खिलत , लजियात ।

भरै भौन मैं करत हैं , नैननु हीं सौं बात ॥ (36)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

प्रस्तुत दोहे में उस स्थिति का वर्णन किया गया है जहां नायक और नायिका ऐसे स्थल पर हैं जहां वे बहुत से लोगों से घिरे हुए हैं | तब ऐसी स्थिति में वे आंखों के इशारों से एक-दूसरे से बातचीत करते हैं |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि नायक आंखों के संकेतों से कुछ कह रहा है परंतु नायिका उत्तर में आंखों के संकेतों से ही इंकार कर देती है | इस पर नायक मुग्ध हो जाता है और नायिका अपनी खीज प्रकट करती है | आंखों के आंखों से मिलने पर दोनों प्रसन्न हो जाते हैं तथा नायिका लजा जाती है | इस तरह भरे हुए भवन में ही नायक और नायिका आँखों-ही-आँखों एक-दूसरे से बातचीत कर रहे हैं |

विशेष — (1) लोगों की भीड़ भरे भवन में नायक-नायिका के द्वारा नेत्रों के माध्यम से किए गए सांकेतिक वार्तालाप का आकर्षक शब्द चित्र प्रस्तुत किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अनुप्रास अलंकार है |

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ ।

सौंह करैं , भौंहनु हँसैं , देन कहै नटि जाइ ॥ (37)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

इस दोहे में कवि बिहारी ने राधा-कृष्ण की पारस्परिक नोक-झोंक का वर्णन किया है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि श्रीकृष्ण की बातचीत का आनंद लेने के लिए राधा ने उसकी बांसुरी छुपा दी | जब श्री कृष्ण उससे बांसुरी मांगते हैं तो वह सौगंध खाकर कहती है कि उसने उसकी बांसुरी नहीं देखी | जब कृष्ण उसकी बातों पर विश्वास कर लेते हैं तो वह भौहों से हंस देती है | उसके भौहों की मुस्कान को देखकर श्री कृष्ण समझ जाते हैं कि उसकी बांसुरी उसी के पास है | वह फिर बांसुरी मांगते हैं तो राधा मना कर देती है |

विशेष — (1) कृष्ण का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए तथा उससे बातें करने के लिए राधा द्वारा किए गए विभिन्न युक्तियों का उल्लेख है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) श्रृंगार रस और माधुर्य गुण है |

कागद पर लिखत न बनत , कहत सँदेसु लजात ।

कहिहै सबु तेरौ हियौ , मेरे हिय की बात ॥ (38)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

प्रस्तुत दोहे में नायिका की विरह वेदना का वर्णन किया गया है जिसमें वह अपनी मनोदशा का वर्णन करने में असमर्थ है |

व्याख्या — विरह वेदना से संतप्त नायिका कहती है कि वह लिखकर अपनी विरह वेदना को अभिव्यक्त करने में अक्षम है | बोल कर अपनी दशा के बारे में बताने में उसे लज्जा का अनुभव होता है | अंत में मैं केवल इतना ही कह सकती हूँ कि तुम्हारा हृदय ही तुम्हें मेरे हृदय की सभी बातें बता देगा अर्थात जिस प्रकार मैं तुम्हारे विरह में संतप्त हूँ उसी प्रकार तुम्हारा ह्रदय भी इसी अवस्था से गुजर रहा होगा |

विशेष — (1) विरह-विदग्ध नायिका की स्थिति का भावपूर्ण चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

सोवत , जागत , सुपन-बस , रस , रिस , चेन , कुचैन ।

सुरति स्यामघन की , सु रति बिसरैं हूँ बिसरै न ॥ (39)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — अपनी विरह-वेदना को व्यक्त करते हुए नायिका कहती है कि हे सखी! मेरी दशा तो यह हो गई है कि मैं सोते समय, जागते हुए, सपने में, आनन्द में, क्रोध की दशा में, चैन में तथा व्याकुलता में घनश्याम के रूप की स्मृति मुझे किसी प्रकार भुलाए नहीं भूलती |

विशेष — (1) विरह-विदग्ध नायिका की दशा का स्वाभाविक चित्रण किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

नेहु न , नैननु , कौं कछु उपजी बड़ी बलाइ ।

नीर-भरे नित प्रति रहैं , तऊ न प्यास बुझाइ ॥ (40)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका अपनी विरह वेदना का वर्णन करते हुए सखी से कहती है कि हे सखी! मुझे प्रेम नहीं बल्कि कोई बहुत बड़ी व्याधि हो गई है | मेरी आँखें नित-प्रति आँसुओं से भरी रहती हैं | किंतु फिर भी इनकी प्यास नहीं बुझती | कहने का भाव यह है कि नायिका विरह-वेदना से संतप्त है और आँसू बहाती रहती है |

विशेष — (1) नायिका की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

लाल तुम्हारे विरह की अगनि अनूप , अपार ।

सरसे बरसैं नीर हूँ , झर हूँ मिटै न झार ॥ (41)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका की सखी नायक को संबोधित करते हुए कहती है कि हे लाल! तुम्हारी विरहाग्नि विलक्षण एवं आपार है | आंखों के बरसने पर भी उसकी जलन बढ़ती है और यह जलन झरी द्वारा भी नहीं मिटती |

विशेष — (1) नायिका की विरह-वेदना का मार्मिक शब्द चित्र है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

कौन सुने , कासौं कहौं , सुरति बिसारी नाह ।

बदाबदी ज्यौ लेत हैं ए बदरा बदराह ॥ (42)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे सखी! मेरी विरह-व्यथा को अब कौन सुनता है और किससे मैं अपना दुख कहूँ क्योंकि उस दु:ख को सुनने वाले मेरे स्वामी ने मेरी याद भुला दी है | इस पर इन पथभ्रष्ट बादलों ने मेरे प्राणों को लेने के लिए होड़ लगा दी है |

विशेष — (1) नायिका विरह-वेदना से दग्ध है | बादल उसकी विरह-वेदना को और अधिक उद्दीप्त कर रहे हैं |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

बैठि रहि अति सघन बन , पैठि सदन-तन माँह ।

देखि दुपहरी जेठ की , छाँहौं चाहति छाँह ॥ (43)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — जेठ के महीने की दुपहरी का वर्णन करते हुए कवि बिहारी कहते हैं कि जेठ के महीने की भयंकर गर्मी के कारण छाया घने जंगल में घुस गई है या घर में प्रवेश कर गई है | ऐसा प्रतीत होता है कि जेठ की भयंकर गर्मी को देखकर छाया भी छाया चाहने लगी है अर्थात जेठ माह की भयंकर गर्मी के कारण छाया भी छाया में बैठना चाहती है |

विशेष — (1) जेठ के महीने की प्रचंड गर्मी का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) मानवीकरण अलंकार है |

औंधाई सीसी , सु लखि बिरह-बरनि बिललात ।

बिच हीं सूखि गुलाबू गौ , छीटौ छुई न गात ॥ (44)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — नायिका की विरह वेदना का वर्णन करते हुए एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! मैंने उस नायिका को विरह वेदना के कारण जलते हुए और बहुत ही बेचैन होते हुए देखकर उसके उपचार हेतु उस पर गुलाब जल की पूरी शीशी उड़ेल दी किंतु उसके शरीर का ताप इतना अधिक था की शीशी का सारा गुलाब जल बीच में ही भाप बनकर उड़ गया, उसका एक भी छिंटा उसके शरीर को नहीं छू सका |

विशेष — (1) नायिका की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण है ||

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

(5) अतिशयोक्ति अलंकार है |

जिन दिन देखे वे कुसुम , गई सु बीति बहार ।

अब , अलि , रही गुलाब मैं अपत , कँटीली डार ॥ (45)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि हे भ्रमर! जिन दिनों तुमने मुझ पर फूल खिले हुए देखे थे वह वसंत ऋतु तो अब बीत गई है | अब तो इस गुलाब की केवल पत्र-विहीन कांटेदार डालियाँ ही शेष रह गई हैं | कहने का भाव यह है कि वैभव का समय बीत गया है | अब कवि के जीवन में निर्धनता और अभाव है |

विशेष — (1) कवि ने अपने सुखमय दिनों के बीतने और वर्तमान दु:खमय स्थिति का वर्णन किया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

हौं हीं बौरी बिरह-बस , कै बौरौ सबु गाउँ ।

कहा जानि ए कहत हैं ससिहिं सीतकर नाउँ ॥ (46)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — विरहिणी नायिका अपनी सखी से कहती है कि विरह के कारण में पगला गई हूँ या यह सारा गाँव ही पागल हो गया है? नहीं तो यह लोग चंद्रमा का नाम सीतकर अर्थात शीतल किरणों वाला क्यों कहते | कहने का भाव यह है कि विरह में चंद्रमा विरहिणी को शीतलता प्रदान करने वाला नहीं, संताप देने वाला लगता है |

विशेष — (1) नायिका की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

सुनत पथिक-मुँह , माह-निस चलति लुवैं उहिं गाम ।

बिन बूझैं , बिनु हीं कहैं , जियति बिचारी बाम ॥ (47)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

इस दोहे में कवि बिहारी ने नायिका के विरह का अत्यंत रोचक वर्णन किया है |

व्याख्या — कवि कहता है कि किसी पथिक के मुख से यह बात सुनकर कि उस गाँव में माघ मास की रात्रि में भी गर्म हवाएँ चलती हैं | नायक ने बिना किसी से पूछे और पथिक के कहे बिना ही यह समझ लिया कि वह नारी अर्थात नायक की प्रेमिका अभी तक जीवित है |

विशेष — (1) नायिका की विरह-वेदना का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

इत आवति चलि , जाति उत चली छसातक हाथ ।

चढ़ी हिडोरैं सी रहै लगी उसासनु साथ ॥ (48)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — एक सखी दूसरी सखी से नायिका के विरह के विषय में बताते हुए कहती है कि विरह के कारण वह इतनी दुर्बल हो गई है कि वह सांस लेने और छोड़ने के साथ छह-सात हाथ इधर आती है तथा फिर छह-सात हाथ उधर जाती है अर्थात सांस लेते और छोड़ते समय आगे पीछे हटती रहती है | ऐसा लगता है मानो वह अपने ही सांसों के साथ झूले पर चढ़ी रहती है |

विशेष — (1) नायिका की विरह-वेदना का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

पिय कैं ध्यान गही गही रही वही ह्वै नारि ।

आपु आपु हीं आरसी लखि रीझति रिझवारि ॥ (49)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे सखी! अपने प्रियतम के ध्यान में डूबी हुई यह नायिका अपना प्रियतम बन गई है अर्थात अपने आप को ही अपना प्रियतम समझने लगी है | वह स्वयं दर्पण देखकर उसमें अपना प्रतिबिंब निहारती है तथा अपने प्रतिबिंब को ही अपना प्रियतम समझकर उस पर मुग्ध रही है |

विशेष — (1) मुग्धा नायिका का आकर्षक शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

भौ यह ऐसोई समौ , जहाँ सुखद दुखु देत ।

चैत चाँद की चाँदनी , डारति किए अचेत ॥ (50)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — हे सखी! समय कुछ ऐसा ही हो गया है कि मुझे सब विपरीत नजर आता है | अब सुख देने वाले सभी वस्तुएँ भी मुझे दुख देने लगी हैं | देखो! यह चैत्र मास की चांदनी भी मुझे अचेत कर रही है |

विशेष — (1) विरहावस्था में सुख के क्षण भी दुख प्रदान करते हैं |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

समै-पलट पलटै प्रकृति , को न तजै निज चाल ।

भौ अकरूण करुनाकरौ , इहिं कपूत कलिकाल ॥ (51)

प्रसंग — प्रस्तुत दोहा हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कविवर बिहारी की प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ में से अवतरित है |

व्याख्या — कवि बिहारी कहते हैं कि जब समय बदलता है अर्थात जब बुरा समय आता है तो आसपास की वस्तुओं का स्वाभाव भी बदल जाता है | फिर ऐसा कौन है जो उस काल में अपने रंग-ढंग अर्थात स्वभाव नहीं बदलता? यह दुष्ट कलयुग का ही समय है कि इसमें तो करुणा करने वाला भगवान भी बदल गया है |

विशेष — (1) विपरीत समय आने पर हितैषी भी बैरी बन जाते हैं | यहाँ तक की करुणामय प्रभु भी विमुख हो जाते हैं |

(2) साहित्यिक ब्रजभाषा का सफल एवं सुंदर प्रयोग है |

(3) शब्द योजना आकर्षक, सार्थक एवं भावानुकूल है |

(4) दोहा छंद है |

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