कबीर ( Kabir )

( यहाँ ग्यारहवीं कक्षा की हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह भाग 1’ में संकलित ‘कबीर’ के पदों की सप्रसंग व्याख्या प्रस्तुत की गई है | )

पद 1

हम तौ एक एक करि जाना |

दोइ कहैं तिनहीं कौँ दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ||

एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांनां |

एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै कोंहरा सांनां ||

जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनी न काटै कोई |

सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई ||

माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां |

निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां ||

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 1’ में संकलित ‘कबीर’ से अवतरित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कबीरदास जी ने निर्गुण ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाला है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने यह अच्छी प्रकार से जान लिया है कि ईश्वर एक है | जो लोग अनेक ईश्वरों की कल्पना करते हैं उन्हें अंततः नरक की प्राप्ति होगी अर्थात अंत में उन्हें पछताना पड़ेगा |

जिस प्रकार सारे संसार के जीव एक ही प्रकार की हवा में सांस लेते हैं, एक ही प्रकार का पानी पीकर अपनी प्यास शांत करते हैं ; उसी प्रकार मनुष्य के शरीर रूपी सभी बर्तनों का निर्माण एक ही प्रकार की मिट्टी से हुआ है और एक ही ईश्वर रूपी कुम्हार ने उनका निर्माण किया है |

एक बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है लेकिन उसमें छिपी हुई अग्नि के तत्व को नहीं काट सकता ठीक उसी प्रकार शरीर नष्ट हो सकता है लेकिन आत्मा अमर है |

वह ईश्वर सभी हृदयों में व्याप्त है और वही विभिन्न रूप धारण करता है |

कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के लोग मोह-माया के लोभवश व्यर्थ में गर्व करने लगते हैं |

अंत में कबीरदास जी कहते हैं कि मैं ईश्वर भक्ति में लीन होकर निर्भय हो गया हूँ, मुझे किसी प्रकार का डर नहीं सताता |

पद 2

संतो देखत जग बौराना |

साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ||

नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना ||

आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना ||

बहुतक देखा पीर पीर औलिया, पढ़ेे कितेब कुराना ||

कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना ||

आसान मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ||

पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना ||

टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना |

साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना ||

हिंदू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना ||

आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना ||

घर घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना ||

गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना ||

कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना ||

केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना || 2️⃣

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 1’ में संकलित ‘कबीर’ से अवतरित है |

इन पंक्तियों में कबीर दास जी ने धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडंबरों पर करारा प्रहार किया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे संतो! देखो, यह जग पगला गया है | अगर इस संसार के लोगों को कोई झूठ बात कही जाए तो यह तुरंत विश्वास कर लेते हैं लेकिन सच कहने पर मारने के लिए दौड़ते हैं |

मैंने ऐसे ही नियम-धर्म का पालन करने वाले लोग देखे हैं जो प्रातःकाल स्नान करते हैं और अपनी आत्मा को मारकर पत्थर की पूजा करने लगते हैं | वास्तव में उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता |

मैंने ऐसे बहुत से पीर-पैगंबर भी देखे हैं जो कुरान पढ़ते हैं, शिष्य बनाते हैं और उन्हें संसार से उबरने की युक्ति बताते हैं परंतु वास्तव में उन्हें भी कोई ज्ञान नहीं होता |

ऐसे भी बहुत से लोग होते हैं जो मन में अभिमान भरकर आसन लगाकर तपस्या करते हैं, तीर्थ यात्राएं करते हैं, विभिन्न प्रकार की टोपी और माला पहनते हैं | मस्तक या शरीर के अन्य किसी अंग पर अलग-अलग प्रकार की छाप लगाते हैं | परंतु ये सब भी धार्मिक आडंबर मात्र हैं |

व्यर्थ के धार्मिक आडंबरों में फंसकर लोग व्यर्थ में साखी और शब्दों का गायन करते हैं लेकिन वास्तव में उन्हें आत्मज्ञान तक नहीं होता |

हिंदू राम को प्यारा मानते हैं और मुस्लिम रहीम को | दोनों इसी बात को लेकर एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं और अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं लेकिन वास्तविक मर्म कोई नहीं जानता |

ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो अभिमान में भरकर घर-घर जाकर लोगों को मोक्ष की प्राप्ति का मंत्र देते हैं लेकिन अंत काल में ऐसे गुरुओं के सभी शिष्य अपने गुरुओं सहित डूब जाते हैं और उन्हें पछताना पड़ता है |

अंत में कबीरदास जी कहते हैं कि हे संतों ये सभी भ्रम में डालने वाले धार्मिक आडंबर हैं | हमें इन धार्मिक आडम्बरों से मुक्त होकर सच्चे मन से ईश्वर की आराधना करनी चाहिए |

कबीरदास जी कहते हैं कि कितनी बार कहूँ? कोई कहा नहीं मानता | उस सहज-स्वरूप ईश्वर को सहज भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है |

यह भी देखें

मीरा ( Mirabai )

पथिक : रामनरेश त्रिपाठी ( Pathik : Ram Naresh Tripathi )

वे आँखें : सुमित्रानंदन पंत ( Ve Aankhen : Sumitranandan Pant )

घर की याद : भवानी प्रसाद मिश्र ( Ghar Ki Yad : Bhawani Prasad Mishra )

अक्क महादेवी ( Akka Mahadevi )

सबसे खतरनाक : पाश ( Sabse Khatarnak : Pash )

आओ, मिलकर बचाएँ : निर्मला पुतुल ( Aao, Milkar Bachayen : Nirmala Putul )

22 thoughts on “कबीर ( Kabir )”

Leave a Comment

error: Content is proteced protected !!