चार्ली चैप्लिन यानी हम सब : विष्णु खरे

( यहाँ NCERT की 12वीं की हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ का मूल पाठ व अभ्यास के प्रश्न दिए गए हैं | )

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब
चार्ली चैप्लिन यानी हम सब ( विष्णु खरे )

यदि यह वर्ष चैप्लिन की जन्मशती का न होता तो भी चैपलिन के जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष होता क्योंकि आज उनकी पहली फिल्म ‘मेकिंग ए लिविंग’ के 75 वर्ष पूरे होते हैं | पौन शताब्दी से चैपलिन की कला दुनिया के सामने है और 5 पीढ़ियों को मुग्ध कर चुकी है | समय, भूगोल और संस्कृतियों की सीमाओं से खिलवाड़ करता हुआ चार्ली आज भारत के लाखों बच्चों को हँसा रहा है जो उसे अपने बुढ़ापे तक याद रखेंगे |

पश्चिम में तो बार-बार चार्ली का पुनर्जीवन होता ही है, विकासशील दुनिया में जैसे-जैसे टेलीविजन और वीडियो का प्रचार हो रहा है, एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग नए सिरे से चार्ली को घड़ी सुधारते या जूते खाने की कोशिश करते हुए देख रहा है | चैप्लिन की ऐसी कुछ फिल्में या इस्तेमाल न की गई रिलें भी मिली हैं जिनके बारे में कोई जानता न था | अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ कहा जाएगा |

उनकी फिल्में भावनाओं पर टिकी हुई हैं, बुद्धि पर नहीं | ‘मेट्रोपोलिस, ‘दी केबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, द रोवंथ सील’, लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ जैसी फ़िल्में दर्शक से एक उच्चतर एहसास की माँग करती हैं | चैप्लिन का चमत्कार यही है कि उनकी फिल्मों को पागलखाने के मरीजों, विकल मस्तिष्क लोगों से लेकर आइंस्टाइन जैसे महान प्रतिभा वाले व्यक्ति तक कहीं एक स्तर पर और कहीं सूक्ष्मतम रसास्वादन के साथ देख सकते हैं |

चैप्लिन ने न सिर्फ फिल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण व्यवस्था को तोड़ा | यह अकारण नहीं है कि जो भी व्यक्ति समूह या तंत्र गैर बराबरी नहीं मिटाना चाहता वह अन्य संस्थाओं के अलावा चैप्लिन की फिल्मों पर भी हमला करता है |चैप्लिन भीड़ का वह बच्चा है जो इशारे से बदला देता है कि राजा भी उतना ही नंगा है जितना मैं हूँ और भीड़ हँस देती है | कोई भी शासक या तंत्र जनता का अपने ऊपर हँसना पसंद नहीं करता |

एक परित्यक्ता, दूसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री का बेटा होना, बाद में भयावह गरीबी और माँ के पागलपन से संघर्ष करना, साम्राज्यवाद, औद्योगिक क्रांति, पूंजीवाद तथा सामंत शाही से मगरूर एक समाज द्वारा दुरदुराया जाना – इन सबसे चैपलिन को वे जीवन मूल्य मिले जो करोड़पति हो जाने के बावजूद अंत तक उनमें रहे | अपनी नानी की तरफ से चैप्लिन खानाबदोशों से जुड़े हुए थे और यह एक सुदूर रूमानी संभावना बनी हुई है कि शायद उस खानाबदोश औरत में भारतीयता रही हो क्योंकि यूरोप के जिप्सी भारत से ही गए थे – और अपने पिता की तरफ से वे यहूदीवंशी थे | इन जटिल परिस्थितियों ने चार्ली को हमेशा एक बाहरी, घुमंतू चरित्र बना दिया | वे कभी मध्यमवर्गीय बुर्जुआ या उच्चवर्गी जीवन-मूल्य न अपना सके | यदि उन्होंने अपनी फिल्मों में अपनी प्रिय छवि ‘ट्रैम्प’ ( बद्दू, खानाबदोश, आवारागर्द ) की प्रस्तुत की है तो उसके कारण उनके अवचेतन तक पहुंचते हैं |

चार्ली पर कई फिल्म समीक्षकों ने नहीं फिल्म कला के उस्तादों और मानविकी के विद्वानों ने सिर धुने हैं और उन्हें नेति नेति कहते हुए भी यह मानना पड़ता है कि चार्ली पर कुछ नया लिखना कठिन होता जा रहा है | दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है | जो करोड़ों लोग चार्ली को देखकर अपने पेट दुखा लेते हैं उन्हें मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की बेहद सारगर्भित समीक्षाओं से क्या लेना-देना? वे चार्ली को समय और भूगोल से काटकर देखते हैं और जो देखते हैं उसकी ताकत अब तक ज्यों-की-त्यों बनी हुई है |

यह कहना है कि वे चार्ली में खुद को देखते हैं दूर की कौड़ी लाना है लेकिन बेशक जैसा चार्ली वे देखते हैं वह उन्हें जाना पहचाना लगता है, जिस मुसीबत में वह अपने को हर दशवें सेकंड में डाल देता है वह सुपरिचित लगती है | अपने को नहीं लेकिन वे अपने किसी परिचित या देखे हुए को चार्ली मानने लगते हैं | कला में बेहतर क्या है – बुद्धि को प्रेरित करने वाली भावना या भावना को उकसाने वाली बुद्धि? उसने भावना को चुना और उसके कारण थे |

बचपन की दो घटनाओं ने चैप्लिन पर गहरा, स्थायी प्रभाव डाला था। एक बार जब वे बीमार थे तब उनकी मां ने उन्हें ईसा मसीह का जीवन बाइबल से पढ़ कर सुनाया था। ईसा के सूली पर चढ़ने के प्रकरण तक आते-आते मां और चार्ली दोनों रोने लगे। अपनी आत्मकथा में चैपलिन लिखते हैं – ‘ओकले स्ट्रीट के तहखाने के उस अंधयारे कमरे में माँ ने मेरे सामने संसार की वह सबसे दयालु ज्योति उजागर की जिसने साहित्य और नाट्य को उनके महानतम और समृद्धतम विषय दिए हैं : स्नेह, करूणा और मानवता |’

दूसरी घटना भी कम मार्मिक नहीं है | बालक चार्ली उन दिनों एक ऐसे घर में रहता था जहां से कसाईखाना दूर नहीं था | वह रोज सैकड़ों जानवरों को वहां ले जाया जाता देखता था | एक बार एक भेड़ किसी तरह जान छुड़ाकर भाग निकली | उसे पकड़ने वाले उसका पीछा करते हुए कई बार फिसले, गिरे और पूरी सड़क पर ठहाके लगने लगे | आखिरकार उस गरीब जानवर को पकड़ लिया गया और उसे फिर कसाई के पास ले जाने लगे | तब चार्ली को एहसास हुआ कि उस भीड़ के साथ क्या होगा | वह रोता हुआ माँ के पास दौड़ा, ‘उसे मार डालेंगे, उसे मार डालेंगे |’ बाद में चैपलिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा : ‘वसंत कि वह बेलौस दोपहर और वह मजाकिया दौड़ कई दिनों तक मेरे साथ रही और मैं कई बार सोचता हूँ कि उस घटना ही ने तो कहीं मेरी भावी फिल्मों की भूमि तय नहीं कर दी थी – त्रासदी और हास्योत्पादक तत्वों के सामंजस्य की |’

भारतीय कला और सौंदर्य शास्त्र को कई रसों का पता है | उनमें से कुछ रसों का किसी कलाकृति में साथ-साथ पाया जाना श्रेयस्कर भी माना गया है | जीवन में हर्ष और विषाद आते रहते हैं यह संसार की सारी सांस्कृतिक परंपराओं को मालूम है, लेकिन करुणा का हास्य में बदल जाना एक ऐसे रस-सिद्धांत की मांग करता है जो भारतीय परंपराओं में नहीं मिलता | ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ में जो हास्य है वह दूसरों पर है और अधिकांशत: वह परसंताप से प्रेरित है | जो करुणा है वह अक्सर सद्व्यक्तियों के लिए और कभी-कभार दुष्टों के लिए है | संस्कृत नाटकों में जो विदूषक है वह राजव्यक्तियों से कुछ से बदतमीजियाँ अवश्य करता है किंतु करुणा और हास्य का सामंजस्य उसमें भी नहीं है | अपने ऊपर हंसने और दूसरों में भी वैसा ही माद्दा पैदा करने की शक्ति भारतीय विदूषक में कुछ कम ही नजर आती है |

इसलिए भारत में चैपलिन के इतने व्यापक स्वीकार का एक अलग सौंदर्यशास्त्रीय महत्व तो है ही, भारतीय जनमानस पर उसने जो प्रभाव डाला होगा उसका पर्याप्त मूल्यांकन शायद अभी होने को है | हास्य कब करुणा में बदल जाता है और करुणा कब हास्य में परिवर्तित हो जाएगी इससे पारंपरिक या सैद्धांतिक रूप से अपरिचित भारतीय जनता ने उस ‘फिनोमेनन’ को यूँ स्वीकार किया जैसे बत्तख पानी को स्वीकारती है | किसी विदेशी कला सिद्धांत को इतने स्वाभाविक रूप से पचाने से अलग ही प्रश्न खड़े होते हैं और अंशत: एक तरह की कला की सार्वजनिकता को ही रेखांकित करते हैं |

किसी भी समाज में इने-गिने लोगों को ‘अमिताभ बच्चन’ या ‘दिलीप कुमार’ कहकर ताना दिया जाता है लेकिन किसी भी व्यक्ति को परिस्थितियों का औचित्य देखते हुए ‘चार्ली’ या ‘जॉनी वॉकर’ कह दिया जाता है | यह स्वयं एक स्वीकारोक्ति है कि हमारे बीच ‘नायक’ कम है जबकि हर व्यक्ति दूसरे को कभी न कभी विदूषक समझता है | दरअसल मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, क्लाउन जोकर या साइड-किक है | यह अकारण नहीं है कि महात्मा गांधी से चार्ली चैप्लिन का खासा पुट था और गांधी तथा नेहरू दोनों ने कभी चार्ली का सानिध्य चाहा था |

चार्ली के नितांत अभारतीय सौंदर्यशास्त्र की इतनी व्यापक स्वीकृति देखकर राज कपूर ने भारतीय फिल्मों का एक सबसे साहसिक प्रयोग किया | ‘आवारा’ सिर्फ ‘दि ट्रैम्प’ का शब्दानुवाद ही नहीं था बल्कि चार्ली का भारतीयकरण ही था | वह अच्छा ही था कि राजकपूर ने चैप्लिन की नकल करने के आरोपों की परवाह नहीं की | राजकपूर के ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ के पहले फिल्में नायकों पर हँसने की और स्वयं नायकों के अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी | 1953 – 57 के बीच जब चैपलिन अपनी गैर-ट्रैम्पनुमा अंतिम फिल्में बना रहे थे तब राज कपूर चैप्लिन का युवा अवतार ले रहे थे | फिर तो दिलीप कुमार ( बाबुल, शबनम, कोहिनूर, लीडर, गोपी ), देव आनंद (नौ दो ग्यारह, फंटूश, तीन देवियां ), शम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन ( अमर अकबर एंथनी ) तथा श्रीदेवी तक किसी न किसी रूप में चैप्लिन का कर्ज स्वीकार कर चुके हैं | बुढ़ापे में जब अर्जुन अपने दिवंगत मित्र कृष्ण की पत्नियों को डाकुओं से ने बचा सके और हवा में तीर चलाते रहे तो यह दृश्य करुण और हास्योत्पादक दोनों था किंतु महाभारत में सिर्फ उसकी त्रासद व्याख्या स्वीकार की गई | आज फिल्मों में किसी नायक को झाड़ू से पिटता भी दिखाया जा सकता है लेकिन हर बार हमें चार्ली की ही ऐसी फ़जीहतें याद आती हैं |

चार्ली की अधिकांश फिल्में भाषा का इस्तेमाल नहीं करती इसलिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा मानवीय होना पड़ा | सवाक चित्रपट पर कई बड़े-बड़े कॉमेडियन हुए हैं लेकिन वे चैप्लिन की सार्वभौमिकता तक क्यों नहीं पहुंच पाए इसकी पड़ताल अभी होने को है | चार्ली का चिर युवा होना या बच्चों जैसा दिखना एक विशेषता तो है ही, सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते | यानी उनके आसपास जो भी चीजें, अड़ंगे, खलनायक, दुष्ट औरतें आदि रहते हैं वे एक सतत ‘विदेश’ या ‘परदेस’ बन जाते हैं और चैप्लिन ‘हम’ बन जाते हैं | चार्ली के सारे संकटों में हमें यह भी लगता है कि यह ‘मैं’ भी हो सकता हूँ, लेकिन ‘मैं’ से ज्यादा चार्ली हमें ‘हम’ लगते हैं | यह संभव है कि कुछ अर्थों में ‘बस्टर कीटन’ चार्ली चैपलिन से बड़ी हास्य-प्रतिभा हो लेकिन कीटन हास्य का काफ्क़ा है जबकि चैप्लिन प्रेमचंद के ज्यादा नजदीक हैं |

एक होली का त्यौहार छोड़ दें तो भारतीय परंपरा में व्यक्ति के अपने पर हंसने, स्वयं को जानते-बूझते हास्यास्पद बना डालने की परंपरा नहीं के बराबर है | गाँवों और लोक संस्कृति में तब भी वह शायद हो, नागर सभ्यता में तो वह थी नहीं | चैप्लिन का भारत में महत्त्व यह है कि वह ‘अंग्रेजों’ जैसे व्यक्तियों पर हंसने का अवसर देते हैं | चार्ली स्वयं पर सबसे ज्यादा तब हँसता है जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्मविश्वास से लबरेज, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ अपने ‘वज्रादपि कठोराणि’ अथवा ‘मृदुनि कुसुमादपि’ क्षण में दिखलाता है | तब यह समझिए कि कुछ ऐसा हुआ ही चाहता है कि यह सारी गरिमा सुई चुभे गुब्बारे जैसी फुस्स हो उठेगी |

अपने जीवन के अधिकांश हिस्सों में हम चार्ली के टीली ही होते हैं जिसके रोमांस हमेशा पंक्चर होते रहते हैं | हमारे महानतम क्षणों में कोई भी हमें चिढ़ाकर या लात मारकर भाग सकता है | अपने चरमतम शूरवीर क्षणों में हम क्लैब्य और पलायन के शिकार हो सकते हैं | कभी-कभार लाचार होते हुए जीत भी सकते हैं | मूलत: हम सब चार्ली हैं क्योंकि हम सुपरमैन नहीं हो सकते | सत्ता, शक्ति, बुद्धिमता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्षों में जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा चार्ली-चार्ली हो जाता है |

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