जयशंकर प्रसाद ने हिंदी नाटक विधा को नए आयाम प्रदान किए | उन्होंने प्राय: ऐतिहासिक नाटक लिखे हैं | ध्रुवस्वामिनी नाटक भी एक ऐतिहासिक नाटक है जिसे प्रसाद जी ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के बल पर एक रसमय साहित्यिक रचना में परिवर्तित कर दिया है | ध्रुवस्वामिनी का कथानक गुप्त वंश के शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय से सम्बद्ध है |
प्रस्तुत नाटक में प्रसाद जी ने इतिहास के घटनाक्रम में कुछ नई संभावनाओं को तलाशा है |
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर उसकी पत्नी से विवाह कर लिया था परंतु इस नाटक में सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे के कारणों की पड़ताल की गई है |
ऐसा माना जाता है कि रामगुप्त अत्यंत कायर और विलासी प्रवृत्ति का था और सम्राट बनने के लिए सर्वथा अयोग्य था | इसीलिए सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था परंतु रामगुप्त अपने अमात्य शिखर स्वामी के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचता है और चंद्रगुप्त की वाग्दत्ता पत्नी ( मंगेतर ) अथवा प्रेयसी ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और स्वयं राजसिंहासन पर अधिकार कर लेता है |
चन्द्रगुप्त स्वेच्छा से रामगुप्त को सम्राट स्वीकार कर लेता है | ध्रुवस्वामिनी भी धीरे-धीरे अपने आप को परिस्थितियों के अनुसार ढलने की कोशिश करने लगती है |
परंतु उस समय चंद्रगुप्त के सब्र का बांध टूट जाता है जब रामगुप्त अपनी कायरता की सभी हदों को पार करते हुए अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को सौंपने के लिए तैयार हो जाता है | चंद्रगुप्त स्वयं ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के शिविर में जाता है और उसका वध कर देता है |
रामगुप्त धोखे से चंद्रगुप्त की हत्या करना चाहता है तो एक सामंत रामगुप्त को देख लेता है और उसकी हत्या कर देता है |
अंत में चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और चंद्रगुप्त सम्राट व ध्रुवस्वामिनी साम्राज्ञी बन जाती है |
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक तीन अंकों में विभक्त है | प्रथम अंक रामगुप्त के शिविर में आरंभ होता है, दूसरा अंक शकराज के शिविर से प्रारंभ होता है तथा तृतीय व अंतिम अंक का पर्दा शकदुर्ग के भीतरी प्रकोष्ठ में उठता है और वहीं ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का अंत होता है |
🔷 प्रथम अंक – रामगुप्त का शिविर ; ध्रुवस्वामिनी का प्रवेश होता है | उसके पीछे-पीछे एक पुरुष और एक लंबी स्त्री नंगी तलवार लिए चुपचाप आती है | वह स्त्री पहले काफी समय तक कुछ नहीं बोलती परंतु बाद में चंद्रगुप्त के विषय में ध्रुवस्वामिनी को सब कुछ बताती चली जाती है | वह ध्रुवस्वामिनी को चंद्रगुप्त के ह्रदय में ध्रुवस्वामिनी के प्रति छिपे प्रेम के विषय में तथा चंद्रगुप्त की दीनहीन दशा के बारे में बताती है |
तभी वहां रामगुप्त का प्रवेश होता है | वह ध्रुवस्वामिनी को पाने के लिए लालायित है | उसे केवल एक ही चिंता बार-बार सताती रहती है कि आज भी ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से प्रेम करती है |
उसी समय एक प्रहरी एक चिंताजनक समाचार रामगुप्त को सुनाना चाहती है परंतु रामगुप्त का ध्यान उस तरफ बिल्कुल नहीं है | उसे यही चिंता सताती रहती है कि ध्रुवस्वामिनी उसे दिल से नहीं चाहती |
तभी अमात्य शिखर स्वामी शकराज के दूत का संदेश रामगुप्त को सुनाता है | वह रामगुप्त को बताता है कि शकराज ने एक संधि-प्रस्ताव भेजा है | इस प्रस्ताव में शकराज ने अपने लिए ध्रुवस्वामिनी तथा अपने सामंतों के लिए गुप्त साम्राज्य के सामंतों की पत्नियों की मांग की है | प्रस्ताव न मानने की स्थिति में शकराज आक्रमण करने और सबकुछ तहस-नहस करने की धमकी देता है |
कायर रामगुप्त तुरंत शकराज के संधि-प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है | ध्रुवस्वामिनी पहले इस बात का विरोध करती है, तत्पश्चात अनुनय-विनय करती है परंतु राम गुप्त ध्रुवस्वामिनी की बातों को अनसुना कर देता है |
जब चंद्रगुप्त को इस विषय में पता चलता है तो वह ध्रुवस्वामिनी के स्थान पर स्वयं शकराज के शिविर में जाने का निर्णय लेता है | रामगुप्त और शिखर स्वामी ध्रुवस्वामिनी को भी साथ जाने के लिए कहते हैं |
अंत में चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों शकराज के शिविर में जाने का निर्णय लेते हैं |
🔷 द्वितीय अंक –द्वितीय अंक शकराज के शिविर से प्रारंभ होता है | शिविर में शकराज की प्रेमिका कोमा दिखाई देती है |
तभी शकराज हाथ में नंगी तलवार लिए हुए चिंतित भाव से वहां प्रवेश करता है | वह बड़े व्यग्र भाव से अपने दूत खिंगल के आने की प्रतीक्षा कर रहा है | कोमा को देखकर वह उससे बातें करने लगता है | वह अपने मन में चल रही उलझन से कोमा को अवगत कराना चाहता है | कोमा उसकी चिंता को शांत करने के लिए मदिरा का प्याला लेने चली जाती है |
इसी बीच खिंगल प्रवेश करता है और शकराज को यह समाचार देता है कि रामगुप्त ने उसके दोनों प्रस्ताव स्वीकार कर लिए हैं |
शकराज खुशी से झूमने लगता है | कोमा चुपके से आकर पीछे खड़ी हो जाती है और सारी बातें सुन लेती है |
शकराज विजय का उत्सव मनाने के लिए अपने सामंतों को आज्ञा देता है | तब शकराज बड़ी अधीरता से ध्रुवस्वामिनी के आने की प्रतीक्षा करने लगता है |
खिंगिल शकराज को सूचना देता है कि पालकियाँ आ गई हैं और साथ ही वह यह भी बताता है कि ध्रुवस्वामिनी शकराज से अकेले ही भेंट करना चाहती हैं |
कोमा शकराज को ऐसा करने से रोकना चाहती है परंतु शकराज उसकी भर्त्सना कर उसके हृदय को चोट पहुंचाता है | वह अपने धर्माचार्य मिहिर देव का भी अपमान करता है | मिहिर देव कोमा को अपने साथ चलने के लिए कहता है आरंभ में कोमा मिहिर देव के साथ नहीं जाना चाहती परंतु बाद में वह मिहिर देव के साथ चली जाती है |
तभी ध्रुवस्वामिनी और ध्रुवस्वामिनी के वेश में चंद्रगुप्त आपस में वार्तालाप करते हुए प्रवेश करते हैं | दोनों स्वयं को ध्रुवस्वामिनी बताते हैं | शकराज दोनों के रूप सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो जाता है |
तभी चंद्रगुप्त द्वंद्व-युद्ध के लिए शकराज को ललकारता है और शकराज का वध कर देता है |
🔷 तृतीय अंक – तृतीय अंक का आरंभ शक-दुर्ग के भीतरी प्रकोष्ठ में होता है | ध्रुवस्वामिनी मंच पर विराजमान है | तभी एक सैनिक आता है | वह उससे चंद्रगुप्त के घावों के विषय में पूछती है | तभी पुरोहित का आगमन होता है | वह महादेवी से स्वासत्ययन ( एक विशिष्ट धार्मिक रीति ) के लिए कहता है परंतु ध्रुवस्वामिनी स्वयं को महादेवी कहलाना नहीं चाहती | वह पुरोहित और उनके धर्म शास्त्रों की नारी की दयनीय दशा के संबंध में भर्त्सना भी करती है | पुरोहित कहता है कि वह अपने धर्म शास्त्र फिर से देखने की बात कह कर चला जाता है |
मिहिर देव और कोमा रानी ध्रुवस्वामिनी से शकराज के शव को ले जाने की याचना करते हैं | महादेवी इसके लिए आज्ञा प्रदान कर देती है | तभी चंद्रगुप्त वहां पर प्रवेश करता है और कहता है कि अब उसका यहां रहना व्यर्थ है | इसी अंतराल में नेपथ्य में कोलाहल सुनाई देता है और मंदाकिनी चंद्रगुप्त को यह सूचना देती है कि शकराज का शव लेकर जाते हुए आचार्य मिहिर देव और उसकी पुत्री को रामराम गुप्त के सैनिकों ने मार डाला | सभी सामंत इस बात से क्षोभ में भर उठते हैं | वे रामगुप्त के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं |
रामगुप्त अचानक प्रवेश करता है और यह सब सुनकर वह क्रोधित हो जाता है | रामगुप्त के संकेत से चंद्रगुप्त को बंदी बना लिया जाता है | ध्रुवस्वामिनी इस बात का विरोध करती है | वह स्वयं को रामगुप्त की पत्नी मानने से इनकार कर देती है | क्रोध में भरकर रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी को भी बंदी बनाने की आज्ञा देता है |चंद्रगुप्त इसे सहन नहीं कर पाता और अपनी बेड़ियां तोड़ देता है |
अवसर देखकर शिखर स्वामी चंद्रगुप्त की ओर हो जाता है | मंत्रीपरिषद की बैठक होती है जिसमें सभी मंत्री व सामंत मिलकर ध्रुवस्वामिनी को रामगुप्त से तलाक लेने और चंद्रगुप्त से विवाह करने की अनुमति प्रदान कर देते हैं |
क्षुब्ध होकर रामगुप्त चंद्रगुप्त पर धोखे से वार करना चाहता है किंतु एक सामंत उसे देख लेता है और राम गुप्त का वध कर लेता है |
राजाधिराज चंद्रगुप्त व महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जय के उद्घोष गूंजने लगते हैं | इस प्रकार नाटक की समाप्ति हो जाती है |
इस प्रकार ध्रुवस्वामिनी का कथानक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित है परन्तु प्रसाद जी की प्रतिभा के कारण अत्यंत रोचक, आकर्षक व नाटकीय बन गया है | पूरे नाटक में कथानक चलचित्र की भाँति पाठकों के मस्तिष्क पटल पर उभरता रहता है |
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