‘पुरस्कार‘ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कहानी है | प्रस्तुत कहानी के माध्यम से प्रसाद जी ने अपनी अन्य कहानियों व नाट्य-कृतियों की भाँति राष्ट्रीय भावना का परिचय देते हुए मानव-प्रेम पर देश-प्रेम की की महत्ता प्रतिपादित की है | किसी भी कहानी की समीक्षा के लिए विद्वानों ने कुछ तत्त्व निर्धारित किए हैं | ‘पुरस्कार’ कहानी की तात्विक समीक्षा इस प्रकार है |
कहानी कला के आधार पर ‘पुरस्कार’ कहानी की समीक्षा /आलोचना ( Kahani Kala Ke Aadhar Par ‘Puraskar’ Kahani Ki Samiksha / Aalochana )
विद्वानों ने कहानी के निम्नलिखित छह प्रमुख तत्व माने हैं | जो कहानी इन छह तत्वों पर खरी उतरती है वही कहानी एक उत्कृष्ट कहानी मानी जाती है : —
(1) कथानक य कथावस्तु
(2) पात्र एवं चरित्र-चित्रण
(3) संवाद तथा कथोपकथन
(4) देशकाल तथा वातावरण
(5) भाषा और भाषा-शैली
(6) उद्देश्य
(1) कथानक या कथावस्तु
‘पुरस्कार’ कहानी का कथानक ( Puraskar Kahani Ka Kathanak ) कुछ-कुछ ऐतिहासिक लगता है परंतु यह पूर्णत: कल्पित है | इस कहानी में कोशल के वीर देशभक्त सिंहमित्र की पुत्री मधुलिका और मगध राज्य के राजकुमार अरुण की प्रेम कथा का वर्णन है | मधूलिका राजकुमार अरुण के प्रेम में पड़कर एक बार अपने राज्य से विश्वासघात करने को तैयार हो जाती है परंतु उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारती है | कहानी के अंत में वह फिर से अपने राजा का साथ देती है और पूरे षडयंत्र के विषय में राजा को बता देती है | इस प्रकार वह अपने राज्य की रक्षा करती है | जब राजा उसे पुरस्कार मांगने की बात करते हैं तो वह कहती है – “तो मुझे भी प्राण दंड मिले” और यह कहते हुए वह बंदी अरुण के पास जाकर खड़ी हो जाती है | इस प्रकार मधूलिका देश के प्रति अपने कर्तव्य तथा राजकुमार अरुण के प्रति अपने प्रेम ; दोनों का सफलतापूर्वक निर्वाह करती है |
इस प्रकार कथानक दो राज्यों के आपसी संघर्ष, अरुण और मधूलिका के प्रेम, मधूलिका का देश और अरुण के प्रति प्रेम, अरुण की महत्वाकांक्षा, मधूलिका का मानसिक द्वंद्व आदि बहुत कुछ लिए हुए है | लेकिन इतना कुछ होते हुए भी कथानक की सभी घटनाएं सह-सम्बद्ध हैं, कथानक में कहीं भी शिथिलता नहीं है | सभी घटनाएं एक के बाद एक अत्यंत स्वाभाविक ढंग से चलती हैं | मधूलिका का अंत में यह कहना ‘तो मुझे भी प्राण दंड मिले’ प्रेम के गौरव की रक्षा करता है |
(2) पात्र एवं चरित्र-चित्रण
‘पुरस्कार’ कहानी में प्रमुख पात्र अरुण और मधूलिका हैं | कहानी इन दो पात्रों के माध्यम से ही चरम तक पहुंचती है | दोनों गतिशील पात्र हैं और कहानी में आरंभ से लेकर अंत तक दिखाई देते हैं | प्रसाद जी ने अरुण और मधूलिका दोनों पात्रों का शब्द-चित्र तो पाठकों के सामने प्रस्तुत किया ही है साथ ही उनकी मानसिक दशा को भी पाठकों के समक्ष सफलतापूर्वक उजागर किया है | जहां राजकुमार अरुण की वीरता, संघर्षक्षमता और महत्वाकांक्षा का परिचय हमें मिलता है, वहीं मधुलिका के मानसिक द्वंद्व की झलक भी मिलती है | कर्तव्य और प्रेम से उत्पन्न अंतर्द्वंद्व में उसका चरित्र विकसित होता है | इन दो पात्रों के अतिरिक्त कहीं-कहीं राजा का पात्र भी अपनी छाप छोड़ता है |
इस प्रकार पात्रों के चरित्र-चित्रण की दृष्टि से ‘पुरस्कार’ कहानी एक सफल कहानी कही जा सकती है | कहानी के समाप्त होने पर मधूलिका का चरित्र लंबे समय तक पाठकों के मस्तिष्क में उभरता रहता है |
(3) संवाद तथा कथोपकथन
किसी भी कहानी में संवाद एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | यद्यपि बिना संवादों के भी वर्णनात्मक शैली में कहानी कही जा सकती है परंतु उससे कहानी में चरित्रों का सही उद्घाटन नहीं हो पाता और कहानी में भावात्मकता का सर्वथा अभाव रहता है |
‘पुरस्कार’ कहानी के संवाद कथानक एवं पात्रों के अनुकूल हैं | संवाद कथानक को आगे बढ़ाने तथा पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करने में सफल सिद्ध हुए हैं | कहानी के संवाद सरल, सहज, स्वाभाविक, पात्रानुकूल तथा मनोवैज्ञानिक हैं | अधिकांशत: संक्षिप्त संवादों का प्रयोग हुआ है | मधूलिका के प्रेम और कर्तव्य के द्वंद्व को उद्घाटित करने में संवादों की विशेष भूमिका रही है |
( 4) देशकाल तथा वातावरण
देशकाल और वातावरण से अभिप्राय कहानी के समय, स्थान और परिवेश आदि के वर्णन से होता है | किसी भी कहानी में देशकाल की सृष्टि कहानी को स्वाभाविक और रोचक बनाती है | वैसे तो हर कहानी में देशकाल की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन ऐतिहासिक कहानियों में यह और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है |
‘पुरस्कार’ कहानी के आरंभ में ही कृषि-उत्सव का वर्णन करते हुए प्रसाद जी देशकाल, वातावरण और परिवेश के ऐसे संकेत देते हैं कि पाठक कहानी पढ़ते-पढ़ते उसी परिवेश का एक हिस्सा बन जाता है | प्रसाद जी ने वातावरण की सृष्टि प्रकृति वर्णन, रथों, हाथियों, अश्वारोहियों, पुरोहितवर्ग के स्वस्ति मंत्र के पाठ, इंद्र-पूजन आदि के वर्णन से की है |
(5) भाषा और भाषा-शैली
प्रसाद जी की कहानियों की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिंदी है | क्योंकि प्रसाद जी मूलत: कवि हैं, अत: इनकी कहानियों की भाषा काव्य के समान प्रवाहमय है | कुछ आलोचक उनकी भाषा को कलिष्ट कहते हैं, और सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग न होने के कारण उनकी कहानियों को सामान्य व्यक्ति से परे की चीज मानते हैं | उनका यह आरोप सही हो सकता है, लेकिन अपनी इसी भाषा के कारण प्रसाद जी हिंदी साहित्य में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं | वह शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी को साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित करते हैं | कठिनाई की बात अगर छोड़ दें, तो प्रसाद जी की भाषा सहज, स्वाभाविक, विषयानुकूल एवं भावानुकूल है | पात्रों का व्यक्तित्व उभारने में उनकी भाषा को अपेक्षित सफलता मिली है | केवल स्थूल वर्णन ही नहीं अपितु अमूर्त भावनाओं की अभिव्यक्ति भी वे प्रभावी ढंग से करते हैं |
उनकी शैली में वर्णनात्मकता, भावात्मकता, चित्रात्मकता तथा मनोवैज्ञानिकता का निर्वहन हुआ है |
(6) उद्देश्य
प्रत्येक साहित्यिक रचना का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है | इस दृष्टिकोण से जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘पुरस्कार’ कहानी भी कोई अपवाद नहीं है | प्रस्तुत कहानी में प्रेम और कर्तव्य के संघर्ष को चित्रित किया गया है | कहानी का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र-प्रेम और कर्तव्य की प्रेम पर विजय दर्शाना है | इस कहानी की नायिका मधूलिका है जो मगध राज्य के निर्वासित राजकुमार अरुण से प्रेम करती है | आरंभ में वह उसका साथ देने के लिए और अपने राजा और राज्य से विश्वासघात करने के लिए तैयार हो जाती है लेकिन अंत में सारा भेद अपने राजा के समक्ष खोल देती है और अपने राज्य की रक्षा करती है | लेकिन कहानी के अंत में एक दृश्य कहानी में रोचकता एवं नवीनता उत्पन्न करता है | जब राजा मधूलिका को कुछ मांगने के लिए कहता है तो मधूलिका अपने लिए मृत्यु-दण्ड मांगती है और मृत्यु-दण्ड की सजा प्राप्त राजकुमार अरुण के पास जाकर खड़ी हो जाती है |
कहानी के अंतिम दृश्य के माध्यम से जयशंकर प्रसाद जी राष्ट्र-प्रेम और कर्तव्य के साथ-साथ प्रेम का गौरव बनाए रखने में सफल रहते हैं |
इस प्रकार कहानी के तत्वों के आधार पर समीक्षा करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘पुरस्कार’ कहानी हिंदी साहित्य-जगत की एक सर्वश्रेष्ठ कहानी है |
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